जरूरतों और इच्छाओं के इर्द-गिर्द
नाचती-घुमती दिनचर्या में
जीवन के काव्यात्मक उपकरण
कैसे/कहाँ खो जाते हैं कि
उन्हें खोजने के लिए
लेना पड़ता है सहारा
सूक्ष्मदर्शी/दूरदर्शी यंत्रों का....
फिर भी चारों और से
घेरे रहता है भयानक भय
बाकी सब खो जाने का....
यदि कभी/कहीं वे
मिल भी जाते हैं तो
सारे तार ऐसे तार-तार होते हैं
कि सधे हाथों से भी जोड़ो तो
ऋणात्मक-धनात्मक छोरों में
ठनी होती है अड़ियल अनबन...
व विभिन्न तीव्रता में प्रवाहित धारा
कुछ ज्यादा ही होती है
जोरदार झटका देने के लिए....
उसके जंग लगे कल-पुर्जों से
लगातार होता रहता है
कानफोडू कोलाहल
साथ ही विषैले रिसाव का
दमघोटूं दबाव धमनियों पर...
तब ख्याल आता है कि
ज़िंदा साँसे भी होती है या नहीं
ये भी ख्याल आता है कि
बाज़ार में उछाल पर क्यों है
कृत्रिम ऑक्सीजन की मांग/आपूर्ति...
सब मानते हैं / मैं भी
ज़रूरी है कोई भी ऑक्सीजन
काल्पनिक काव्यशैली में भी
जीने/ जिलाने के लिए
कृत्रिम फूलों की कृत्रिम सुगंध के
आदान/प्रदान के लिए...
सबसे ज्यादा तो ज़रूरी है
खुद को ज़िंदा दिखाना
एक-दूसरे को भरोसा देना
सुन्दर-सा मुस्कान चिपकाए रखना
और ये कहते रहना कि
कृत्रिम काव्य-धारा में भी
कितना सुन्दर बह रहा है जीवन .
लोग कहते भये हैं कि ऐसी ही दशा काव्य प्रतिभा को जिलाए रखती है .......सो ,शुभकामनाएं!
ReplyDeleteसाहित्य एक संजीवनी सा बन आ जाता है जीवन में।
ReplyDeletekritim muskaan,kabhi kabhi kratim bhawnaein...ye kratimta jeewan ka hissa ban gai hai...
Deleteबहुत सुन्दर वाह!
ReplyDeleteyes complete circuit and uninterrupted power supply is rare!!!!!!!lack of earthing!!!!!
ReplyDeleteबहुत सुन्दर वाह!
ReplyDeleteआपकी यह ख़ूबसूरत प्रविष्टि आज दिनांक 16-04-2012 को सोमवारीय चर्चामंच-851 पर लिंक की जा रही है। सादर सूचनार्थ
अमृता जी, अचानक इतना निराशा भरा स्वर क्यों...जीवन में काव्य तो मुख्यधारा है...वही तो है जिसके इर्द-गिर्द घूमता है जीवन का चक्र एक कवि का, वैसे आपने सामान्य जीवन की बात कही हो तो सत्य है, बहुत सटीक चित्रण !
ReplyDeleteगहन भावाभिव्यक्ति आज कल की व्यस्त जिंदगी कृत्रिमता के मुखौटे लगाए हुए लोग निरंतर भागती जिंदगी ....बहुत कुछ कह दिया आपकी रचना ने ...बहुत सुन्दर प्रस्तुति
ReplyDeleteकि सधे हाथों से भी जोड़ो तो
ReplyDeleteऋणात्मक-धनात्मक छोरों में
ठनी होती है अड़ियल अनबन...
कृतिम काव्य धारा में बह रहा है जीवन .... बहुत गहन अभिव्यक्ति
amrita jee rachna ke ant tak pahunchte paahuncte main is kritim jeewan kee khusi se abhibhot ho gaya...sach kahoon to ham sab doobte hue titenic par sawar hain..gila hai to doobenge nahi hai to doobenge...saamay nishchit hai..sach hai ek doosre ko bharosa dilay jaaye..kuch tathyon ko chod de to saririk seemaon mein hai ...wakee sab kalpa hai..man kee anubhooti hai..lekin aapka sandesh mujhe behad accha laga..sadar badhayee aaur amantran ke sath
ReplyDeletehmm.. कभी-कभी इन कृत्रिम मुखौटों में ही हम ज़िन्दगी की वो खुशियाँ भी तो बटोर लेना चाहते हैं, जो वास्तव में शायद न हो!
ReplyDeleteबहरहाल, हमेशा की तरह, एक सुन्दर रचना...
शुभकामनाएं
कृत्रिमता ने जहाँ हमारे जीवन को घेर लिया ...वहीँ हमारी अभिव्यक्ति ...हमारे अहसासों को भी जकड लिया है ....काव्यात्मक सर्जन की इस दुविधा का अर्थपूर्ण चित्रण !!!!
ReplyDeleteकितना सुंदर बह रहा है जीवन,.
ReplyDeleteबेहतरीन पंक्तियाँ बहुत सुंदर रचना...बेहतरीन पोस्ट के लिए,
अमृता जी,... बधाई
.
MY RECENT POST...काव्यान्जलि ...: आँसुओं की कीमत,....
बेहद गहन प्रस्तुति।
ReplyDeleteसुंदर रचना
ReplyDeleteबहुत बढिया
ओह बनावटीपन से तार-तार है ह्रदय ....
ReplyDeleteअगर रेडी मेड खाना खाते रहेबच्चे ,क्रश में बड़े होते बच्चे ... ...बच्चों को माँ के हाथ का खाना भी ध्यान नहीं रहेगा ....हर चीज़ का औचित्य खतम होता जा रहा है ...ऐसा लगता है .....!!
सच में अमृता जी दुःख बहुत होता है जब कृत्रिमता हावी होने लगती है ...
बहुत गहन भाव ....
beautiful real lines .very much pointing and heart touching lines with deep expression.
ReplyDeleteसबसे ज्यादा ज़रूरी जिंदा होना , जिजीविषा दिखाना - सूक्ष्मता से हासिल करना
ReplyDeleteओह, अमृता जी इसी से बनती है कविता और वह बोलती-बतियाती है, सब से..
ReplyDeleteपर वहीं बनावटी कविता मुस्कुराती जरूर दिखती है पर बोलती नहीं है. अतिसुन्दर.. आपका जादू..
जीवन की जरूरतों को पूर्ण करते हुए भी भाव संचार होता है और काव्य प्रस्फुटन भी . कृत्रिमता जीवन पर हावी होने लगी है .
ReplyDeleteबहुत ख़ूब बधाई
ReplyDeleteबहुत सुंदर
ReplyDeletenice post..
ReplyDeleteतीखा प्रहार... आँखों में चुभता हुआ.. पर सुन्दर पोस्ट.......
ReplyDeleteहम मानते हैं कि हमारे आसपास कि जिन्दगी में भरोसा दरक रहा है और सुन्दर सी मुस्कान चिपकाये रखना आदतन मजबूरी बन चुकी है जीने के लिए....इसके बावजूद कहीं न कहीं एक नैसर्गिक कतरा बचा हुआ है.. मुझे पता है उस कतरे को तलाशने और तराशने में आपको देर नहीं लगेगी......
wow specchless....haits off
ReplyDeleteसारे तार ऐसे तार-तार होते हैं
ReplyDeleteकी साढ़े हाथों से भी जोड़ो तो
ऋणात्मक-धनात्मक छोरों मे
ठनी ओटी है अड़ियल अनबन...
सुंदर रचना...
सादर।
कुछ तो है जो करने पड़ते है .. विसंगतियाँ तो संग रहती ही हैं.
ReplyDeleteहम सब रंगमंच की कठपुतलियाँ नहीं बल्कि मशीनें हैं और माहौल भी मशीनी और कृत्रिम ही है ....हर तरफ अक अंधी दौड़ ।
ReplyDeleteकृत्रिमता के विस्तार में खुशी खोजने की प्रवृत्ति बढ़ती जा रही है।ऐसे हाल में ऐसी कविता का आना सजग होने का सूचक है। सुंदर कविता। स्वागत है।
ReplyDeletevirjesh sinhg --
Deleteआपकी काव्यधारा के प्रवाह से गुजरते हुए जो महसूसा आपसे साझा कर रहा हूं।
कविता लिखने का खिलौना (उपकरण) खो गया
तो बच्चों की तरह उदास क्यों होती हो
किसने कहा ्अगर तुम नहीं लिखती कविता
तो तुमको नहीं मिलेगा बच्चों सा अपनापन...
क्यों झगड़ती हो शब्दों से और रोजमर्रा की जिंदगी से
अगर वे शामिल नहीं होना चाहती तुम्हारी
कविता की किटी-पार्टी में जन्मदिन की
मोमबत्ती की टिमटिमाती रौशनी की तरह...
कृत्रिमता के प्रति विकर्षण से खुद को मुक्त करना
हो सकता है एक रास्ता प्रकृति के साथ बहने का
लेकिन उस विकर्षण का स्वीकार भी तो
खुद अपनी प्रकृति को खाद-पानी देने की तरह है...
खुद को हर हाल में जिंदा रखना जरूरी है
यह प्रकृति का अंतिम लक्ष्य भी है
जिससे संघर्ष करके मनुष्य कभी-कभी
चुन लेता है रास्ता अपने आत्महंता होने का...
लेकिन उससे भी आगे बढ़कर जिंदगी को समझना
रिश्तों में भरोसे के फेवीकोल का लेप लगाना
साथ-साथ नदी के दो किनारों की तरह चलते जाना
भी तो हो सकता है रास्ता चलने का...
अगर हो सके तो असली मुस्कान
चमकदार आंसूओं के साथ मिलना
(जो ऑक्सीजन के रूपक हैं आजकल)
जिनमें क्षमता है जिंदगी को जिंदगी
बना देने की............
आपकी इस कविता में आशावादिता का स्वर काफ़ी तीव्रता से मुखर हो रहा है।
ReplyDeleteसुन्दर! खुशी से मुस्कान बनती है पर मुस्कान से भी खुशी बनती है। ज़िन्दा दिखना भी एक और कदम है ज़िन्दादिली की तरफ़!
ReplyDeleteसाहित्य से जुड़े ऐसे भाव गतिशीलता देते हैं रचनाधर्मिता को
ReplyDeletebeautiful deep expression. Amrita ji
ReplyDeleteआपकी काव्यधारा ऐसे ही अविरल बहती रहे और लोगों को प्रेरित करती रहे... शुभकामनायें!!
ReplyDeleteबहुत गहन भाव ....
ReplyDeleteबहुत सटीक और सार्थक प्रस्तुति!
ReplyDeleteचाहे मन रो रहा हो
ReplyDeleteपर सब कुछ ठीक ठाक है
कहना पड़ता है
कस्तूरी कुंडल बसे मृग ढूंढें वन माहीं ,यही बे -चैनी साहित्य सृजन की पहली शर्त है .
ReplyDeleteआशावादी स्वर कविता से झलक रहा है.
ReplyDeleteसुंदर प्रस्तुति.
"काव्य धारा' बहुत सुन्दर रचना है!...इसमें एक गूढार्थ छिपा हुआ है!...सुन्दर प्रस्तुति!...आभार!
ReplyDeletekai bar paristhition ke samne bhi lachari hoti hai...
ReplyDeleteAmrita,
ReplyDeleteAAPNE BILKUL THEEK KAHAA. ROZ ROZ KE VYAAST JEEWAN MEIN NAA JAANE HUM APNE KALAATMAK SOCHNE KA DHANG BHOOL JAATE HAIN. USE SAHI RAKHNE KE LIYE HUMEIN APNE PAR BHAROSAA RAKHNAA CHAHIYE.
Take care
chhadm jeevan shaili par ek gahan chintan liye kavy rachna...ati sundar aur samayochit....
ReplyDeleteसबसे जरूरी तो है खुद को जिन्दा दिखाना ....
ReplyDeleteसच है
gahri bat..... behad prabhavshali... abhar.
ReplyDeleteवाह!
ReplyDeleteकृत्रिम काव्यधारा में भी
कितना सुन्दर बह रहा है जीवन.
आपकी यह कविता 'अकविता आंदोलन' के समय के सृजन जैसी है. सृजन की कृत्रिमता भी काव्य का सुंदर विषय हो सकती है. आपकी कविता इस का उदाहरण है.
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