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Monday, April 16, 2012

काव्य-धारा


जरूरतों और इच्छाओं के इर्द-गिर्द
नाचती-घुमती दिनचर्या में
जीवन के काव्यात्मक उपकरण
कैसे/कहाँ खो जाते हैं कि
उन्हें खोजने के लिए
लेना पड़ता है सहारा
सूक्ष्मदर्शी/दूरदर्शी यंत्रों का....
फिर भी चारों और से
घेरे रहता है भयानक भय
बाकी सब खो जाने का....
यदि कभी/कहीं वे
मिल भी जाते हैं तो
सारे तार ऐसे तार-तार होते हैं
कि सधे हाथों से भी जोड़ो तो
ऋणात्मक-धनात्मक छोरों में
ठनी होती है अड़ियल अनबन...
व विभिन्न तीव्रता में प्रवाहित धारा
कुछ ज्यादा ही होती है
जोरदार झटका देने के लिए....
उसके जंग लगे कल-पुर्जों से
लगातार होता रहता है
कानफोडू कोलाहल
साथ ही विषैले रिसाव का
दमघोटूं दबाव धमनियों पर...
तब ख्याल आता है कि
ज़िंदा साँसे भी होती है या नहीं
ये भी ख्याल आता है कि
बाज़ार में उछाल पर क्यों है
कृत्रिम ऑक्सीजन की मांग/आपूर्ति...
सब मानते हैं / मैं भी
ज़रूरी है कोई भी ऑक्सीजन
काल्पनिक काव्यशैली में भी
जीने/ जिलाने के लिए
कृत्रिम फूलों की कृत्रिम सुगंध के
आदान/प्रदान के लिए...
सबसे ज्यादा तो ज़रूरी है
खुद को ज़िंदा दिखाना
एक-दूसरे को भरोसा देना
सुन्दर-सा मुस्कान चिपकाए रखना
और ये कहते रहना कि
कृत्रिम काव्य-धारा में भी
कितना सुन्दर बह रहा है जीवन .



48 comments:

  1. लोग कहते भये हैं कि ऐसी ही दशा काव्य प्रतिभा को जिलाए रखती है .......सो ,शुभकामनाएं!

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  2. साहित्य एक संजीवनी सा बन आ जाता है जीवन में।

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    1. kritim muskaan,kabhi kabhi kratim bhawnaein...ye kratimta jeewan ka hissa ban gai hai...

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  3. yes complete circuit and uninterrupted power supply is rare!!!!!!!lack of earthing!!!!!

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  4. बहुत सुन्दर वाह!
    आपकी यह ख़ूबसूरत प्रविष्टि आज दिनांक 16-04-2012 को सोमवारीय चर्चामंच-851 पर लिंक की जा रही है। सादर सूचनार्थ

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  5. अमृता जी, अचानक इतना निराशा भरा स्वर क्यों...जीवन में काव्य तो मुख्यधारा है...वही तो है जिसके इर्द-गिर्द घूमता है जीवन का चक्र एक कवि का, वैसे आपने सामान्य जीवन की बात कही हो तो सत्य है, बहुत सटीक चित्रण !

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  6. गहन भावाभिव्यक्ति आज कल की व्यस्त जिंदगी कृत्रिमता के मुखौटे लगाए हुए लोग निरंतर भागती जिंदगी ....बहुत कुछ कह दिया आपकी रचना ने ...बहुत सुन्दर प्रस्तुति

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  7. कि सधे हाथों से भी जोड़ो तो
    ऋणात्मक-धनात्मक छोरों में
    ठनी होती है अड़ियल अनबन...

    कृतिम काव्य धारा में बह रहा है जीवन .... बहुत गहन अभिव्यक्ति

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  8. amrita jee rachna ke ant tak pahunchte paahuncte main is kritim jeewan kee khusi se abhibhot ho gaya...sach kahoon to ham sab doobte hue titenic par sawar hain..gila hai to doobenge nahi hai to doobenge...saamay nishchit hai..sach hai ek doosre ko bharosa dilay jaaye..kuch tathyon ko chod de to saririk seemaon mein hai ...wakee sab kalpa hai..man kee anubhooti hai..lekin aapka sandesh mujhe behad accha laga..sadar badhayee aaur amantran ke sath

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  9. hmm.. कभी-कभी इन कृत्रिम मुखौटों में ही हम ज़िन्दगी की वो खुशियाँ भी तो बटोर लेना चाहते हैं, जो वास्तव में शायद न हो!
    बहरहाल, हमेशा की तरह, एक सुन्दर रचना...
    शुभकामनाएं

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  10. कृत्रिमता ने जहाँ हमारे जीवन को घेर लिया ...वहीँ हमारी अभिव्यक्ति ...हमारे अहसासों को भी जकड लिया है ....काव्यात्मक सर्जन की इस दुविधा का अर्थपूर्ण चित्रण !!!!

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  11. कितना सुंदर बह रहा है जीवन,.
    बेहतरीन पंक्तियाँ बहुत सुंदर रचना...बेहतरीन पोस्ट के लिए,
    अमृता जी,... बधाई
    .
    MY RECENT POST...काव्यान्जलि ...: आँसुओं की कीमत,....

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  12. बेहद गहन प्रस्तुति।

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  13. ओह बनावटीपन से तार-तार है ह्रदय ....
    अगर रेडी मेड खाना खाते रहेबच्चे ,क्रश में बड़े होते बच्चे ... ...बच्चों को माँ के हाथ का खाना भी ध्यान नहीं रहेगा ....हर चीज़ का औचित्य खतम होता जा रहा है ...ऐसा लगता है .....!!
    सच में अमृता जी दुःख बहुत होता है जब कृत्रिमता हावी होने लगती है ...
    बहुत गहन भाव ....

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  14. beautiful real lines .very much pointing and heart touching lines with deep expression.

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  15. सबसे ज्यादा ज़रूरी जिंदा होना , जिजीविषा दिखाना - सूक्ष्मता से हासिल करना

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  16. ओह, अमृता जी इसी से बनती है कविता और वह बोलती-बतियाती है, सब से..

    पर वहीं बनावटी कविता मुस्कुराती जरूर दिखती है पर बोलती नहीं है. अतिसुन्दर.. आपका जादू..

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  17. जीवन की जरूरतों को पूर्ण करते हुए भी भाव संचार होता है और काव्य प्रस्फुटन भी . कृत्रिमता जीवन पर हावी होने लगी है .

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  18. बहुत ख़ूब बधाई

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  19. तीखा प्रहार... आँखों में चुभता हुआ.. पर सुन्दर पोस्ट.......

    हम मानते हैं कि हमारे आसपास कि जिन्दगी में भरोसा दरक रहा है और सुन्दर सी मुस्कान चिपकाये रखना आदतन मजबूरी बन चुकी है जीने के लिए....इसके बावजूद कहीं न कहीं एक नैसर्गिक कतरा बचा हुआ है.. मुझे पता है उस कतरे को तलाशने और तराशने में आपको देर नहीं लगेगी......

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  20. wow specchless....haits off

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  21. सारे तार ऐसे तार-तार होते हैं
    की साढ़े हाथों से भी जोड़ो तो
    ऋणात्मक-धनात्मक छोरों मे
    ठनी ओटी है अड़ियल अनबन...

    सुंदर रचना...
    सादर।

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  22. कुछ तो है जो करने पड़ते है .. विसंगतियाँ तो संग रहती ही हैं.

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  23. हम सब रंगमंच की कठपुतलियाँ नहीं बल्कि मशीनें हैं और माहौल भी मशीनी और कृत्रिम ही है ....हर तरफ अक अंधी दौड़ ।

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  24. कृत्रिमता के विस्तार में खुशी खोजने की प्रवृत्ति बढ़ती जा रही है।ऐसे हाल में ऐसी कविता का आना सजग होने का सूचक है। सुंदर कविता। स्वागत है।

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    1. virjesh sinhg --
      आपकी काव्यधारा के प्रवाह से गुजरते हुए जो महसूसा आपसे साझा कर रहा हूं।

      कविता लिखने का खिलौना (उपकरण) खो गया
      तो बच्चों की तरह उदास क्यों होती हो
      किसने कहा ्अगर तुम नहीं लिखती कविता
      तो तुमको नहीं मिलेगा बच्चों सा अपनापन...

      क्यों झगड़ती हो शब्दों से और रोजमर्रा की जिंदगी से
      अगर वे शामिल नहीं होना चाहती तुम्हारी
      कविता की किटी-पार्टी में जन्मदिन की
      मोमबत्ती की टिमटिमाती रौशनी की तरह...

      कृत्रिमता के प्रति विकर्षण से खुद को मुक्त करना
      हो सकता है एक रास्ता प्रकृति के साथ बहने का
      लेकिन उस विकर्षण का स्वीकार भी तो
      खुद अपनी प्रकृति को खाद-पानी देने की तरह है...

      खुद को हर हाल में जिंदा रखना जरूरी है
      यह प्रकृति का अंतिम लक्ष्य भी है
      जिससे संघर्ष करके मनुष्य कभी-कभी
      चुन लेता है रास्ता अपने आत्महंता होने का...

      लेकिन उससे भी आगे बढ़कर जिंदगी को समझना
      रिश्तों में भरोसे के फेवीकोल का लेप लगाना
      साथ-साथ नदी के दो किनारों की तरह चलते जाना
      भी तो हो सकता है रास्ता चलने का...

      अगर हो सके तो असली मुस्कान
      चमकदार आंसूओं के साथ मिलना
      (जो ऑक्सीजन के रूपक हैं आजकल)
      जिनमें क्षमता है जिंदगी को जिंदगी
      बना देने की............

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  25. आपकी इस कविता में आशावादिता का स्वर काफ़ी तीव्रता से मुखर हो रहा है।

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  26. सुन्दर! खुशी से मुस्कान बनती है पर मुस्कान से भी खुशी बनती है। ज़िन्दा दिखना भी एक और कदम है ज़िन्दादिली की तरफ़!

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  27. साहित्य से जुड़े ऐसे भाव गतिशीलता देते हैं रचनाधर्मिता को

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  28. आपकी काव्यधारा ऐसे ही अविरल बहती रहे और लोगों को प्रेरित करती रहे... शुभकामनायें!!

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  29. बहुत गहन भाव ....

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  30. बहुत सटीक और सार्थक प्रस्तुति!

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  31. चाहे मन रो रहा हो
    पर सब कुछ ठीक ठाक है
    कहना पड़ता है

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  32. कस्तूरी कुंडल बसे मृग ढूंढें वन माहीं ,यही बे -चैनी साहित्य सृजन की पहली शर्त है .

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  33. आशावादी स्वर कविता से झलक रहा है.

    सुंदर प्रस्तुति.

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  34. "काव्य धारा' बहुत सुन्दर रचना है!...इसमें एक गूढार्थ छिपा हुआ है!...सुन्दर प्रस्तुति!...आभार!

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  35. kai bar paristhition ke samne bhi lachari hoti hai...

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  36. Amrita,

    AAPNE BILKUL THEEK KAHAA. ROZ ROZ KE VYAAST JEEWAN MEIN NAA JAANE HUM APNE KALAATMAK SOCHNE KA DHANG BHOOL JAATE HAIN. USE SAHI RAKHNE KE LIYE HUMEIN APNE PAR BHAROSAA RAKHNAA CHAHIYE.

    Take care

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  37. chhadm jeevan shaili par ek gahan chintan liye kavy rachna...ati sundar aur samayochit....

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  38. सबसे जरूरी तो है खुद को जिन्दा दिखाना ....

    सच है

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  39. gahri bat..... behad prabhavshali... abhar.

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  40. वाह!
    कृत्रिम काव्यधारा में भी
    कितना सुन्दर बह रहा है जीवन.

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  41. आपकी यह कविता 'अकविता आंदोलन' के समय के सृजन जैसी है. सृजन की कृत्रिमता भी काव्य का सुंदर विषय हो सकती है. आपकी कविता इस का उदाहरण है.

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