बन कर मेरी छाया तुमने
अनुराग से दुलराना चाहा
पर उलझा सा बाबरा मन
तुम्हें कहाँ समझ पाया...
भूल मेरी ही है जो
अपना इक जाल बनाया है
तुम्हीं से खिले फूल को
तुमसे ही छुपाया है.....
चाहती तो हूँ कि प्रिय !
तुम्हारे अन्त:करण की तेज़ से
अपनी ही प्रतिमा उकेर लूँ
गहरी धुंध के इस बाँध को
झटके में बिखेर दूँ ....
साहस जगे तो स्वीकार करूँ
और तेरी धारा में बह चलूँ ...
हाँ ! तुमने तो
भरना चाहा झोली मेरी
पर रह गयी मैं कोरी की कोरी
कैसा भराव हुआ है... प्रिय !
खाली-खाली रह गया है कहीं..
स्तब्ध ह्रदय में जब झाँका है
तब निज दुर्बलता को आँका है..
उजियारे में नैन मूंदकर
कौतुक भरा बाल-क्षण जीकर
रह-रह कर आँख डबडबाया है
जानती हूँ...
अनमोल सा इस जीवन में
कैसे अपना मोल घटाया है .
bhavpurn kavita hai amrita ji...sundar
ReplyDeleteसही कहा आपने |
ReplyDeleteबधाई ||
अपनों का मोल कहाँ आँका जाता है, जीवन तो समर्पणीय है..
ReplyDeleteबहुत ही सुन्दर पोस्ट है सत्य से साक्षात्कार |
ReplyDeletebehad khoobsoorat khyaal ukere hein aapne ,sapne aur aashaaon ke tootne par manosthitee ko bahut achhee tarah se chitral kiyaa hai,
ReplyDeletebadhaayee
आपके इस उत्कृष्ट लेखन के लिए आभार ।
ReplyDeleteबहुत ही सुन्दर पंक्तियाँ ...
ReplyDeleteबहुत सुन्दर सोच |अच्छी प्रस्तुति
ReplyDeleteआशा
इस रचना में आपकी अभिव्यक्ति काबिल-ए-तारीफ़ है.
ReplyDeleteअपना मोल घटाने या बढाने की बात तो तब आती है..जब हम अपनी कीमत लगते हैं.रिश्तों में यह फरमा फिट नहीं बैठता. वैसे आपने अपनी रचना में भी उस फरमे को तोड़ने की बात कही है..साहस जगे तो स्वीकार चलूँ.
यहाँ मोल घटाने का आशय अपने अहंकार के परिपेक्ष्य में शुद्रता में उलझ कर अपने महान उद्देश्य से विमुख होना है . अर्थात स्वयं को छोटी-छोटी बातों में लगाकर अनमोल जीवन को यूँ ही जाया करने से है .
ReplyDeleteदार्शनिक सन्दर्भ की तरफ अच्छा ध्यान दिलाया आपने. फिर भी सवाल बना रहता है कि अपने सर्वोच्च लक्ष्य कि स्मृति कैसे बनी रहे? और उस दिशा में हम कैसे निरंतर आगे बढ़ते रहें? शुक्रिया
Deleteसर्वप्रथम हमें लक्ष्य का निर्धारण करना होता है तब उसके प्रति समर्पण करना होता है जो कि सतत स्मरण से होता है . साथ ही उसके अनुरूप परिश्रम करने से उस तक पहुंचा जाता है . जैसे हम स्वभावगत बातों को चाह कर भी स्वयं से अलग नहीं कर पाते हैं उसी तरह अपने लक्ष्य को भी स्वभाव बना लेने से वो विस्मरण में नहीं जाता है .
Deleteप्रणाम हो गुरु जी को .........इतना गहरा दर्शन....चरण कहाँ है आपने :-)
Deleteबेहद भावमयी रचना।
ReplyDeleteयही तो होता है.. घटना के बाद हम होश में आते हैं ।
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ReplyDeleteबहुत सुन्दर
ReplyDeleteहिंदी दुनिया
क्या कहे .. झोली तो भरनी चाही .. लेकिन स्वीकार नहीं हुआ . पर इससे मोल कम नहीं हो जाता , न ही प्रेम का और न ही नायिका का . पर इन्तजार तो रहेंगा ही ..हमेशा ..
ReplyDeleteमन को छूती हुई .. मन में बसती हुई.... मन से कहती हुई.....प्रेमकथा !!
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ReplyDeleteबीत गए दिन भजन बिना रे ...
Deleteबाल अवस्था खेल गंवायो ...
जब जवान तब मान घना रे ..
कहे कारन मूल गंवायो ..
अजहूँ न गयी मन की त्रिसना रे ..
कहत कबीर सुनो भाई साधो ..
पार उतर गए संत जाना रे ...
आज यही भजन गाने मन हुआ आपकी पोस्ट पढ़कर ...
अमृता जी इस बेहतरीन रचना के लिए बधाई स्वीकारें...
ReplyDeleteनीरज
स्तब्ध ह्रदय में जब झाँका है
ReplyDeleteतब निज दुर्बलता को आँका है... dil ko kuch kahti hui rachna
सार्थक चिंतन... बहुत सुन्दर...
ReplyDeleteसादर.
भावपूर्ण कविता के लिए आभार.......
ReplyDeletebeautiful lines with deep and silent expression.
ReplyDeleteकितने सुन्दर भाव !! मन को छु गयी..
ReplyDeletekalamdaan.blogspot.com
बहुत खूब...
ReplyDeletebahut khoob
ReplyDeleteमोल अमोल था जीवन
ReplyDeleteपर हमने मोल घटाया है।
..वाह! सुंदर दर्शन।
बहुत बड़ी बात है निज दुर्बलता को आंकना... जो दुर्बल के लिए संभव नहीं...गहन भाव... बहुत -बहुत आभार...
ReplyDeleteभावपूर्ण!
ReplyDeleteबहुत सुन्दर रचना...दिल में कुछ हलचल कर गयी..
ReplyDeleteगहन अभिव्यक्ति ... अपने अहंकार में न हम खुद सुखी होते हैं और न दूसरे के द्वारा जो मिलता है उसकी कीमत आंकते हैं ...
ReplyDeleteअच्छी प्रस्तुति
बहुत सुन्दर! जब आँख खुले तो सवेरा ...
ReplyDeleteअमृता जी, आखिर उसका जादू चल ही गया... बधाई !
ReplyDeleteवाह ...बहुत ही अच्छी प्रस्तुति ।
ReplyDeleteकई बार जीवन में साहस की जरूरत होती है और जब वो आ जाए ... सफर शुरू कर देना चाहिए ... अच्छा लिखा है ...
ReplyDeleteसुन्दर भाव....
ReplyDeletewah bahut sundar abhivyakti...
ReplyDeleteअंतःकरण के तेज़ से उकेरे गए चित्र अमित छाप छोड़ जाते हैं अमृता...जीवन मे ऐसे पल विरले ही आते हैं और ऐसे साथी अगर हों साथ तो पूरा दृश्यपटल ही रंग बिरंगी तितलियों से पत जाता है....जो निज की दुर्बलता आँकने की ताकत ट्राखते हैं उन सा बलशाली कोई नहीं अमृता...मैं तुम्हारी लेखनी से बहुत प्रभावित हूँ....हाँ, नए वर्ष पर शुभकामना संदेश रख छोड़ा है....कोशिश करूँगा की अब व्यवधान न हो लेखनी में...
ReplyDeleteअपने उद्देश्य में रचना पूर्णतः सफल।
ReplyDeleteसराहनीय रचना....
कृपया इसे भी पढ़े-
क्या यही गणतंत्र है
बेहतरीन...बेहतरीन..बेहतरीन... अमृताजी
ReplyDeleteसुंदर रचना।
ReplyDeleteगहरे भाव।
गणतंत्र दिवस की शुभकामनाएं....
जय हिंद...वंदे मातरम्।
गणतंत्र दिवस की हार्दिक शुभ कामनाएँ।
ReplyDelete----------------------------
कल 27/01/2012 को आपकी यह पोस्ट नयी पुरानी हलचल पर लिंक की जा रही हैं.आपके सुझावों का स्वागत है .
धन्यवाद!
मनोभावों के हर रंग आपकी लेखनी से स्पष्ट द्रष्टिगोचर होने लगते है .
ReplyDeletebahut hee bhav poorn,sundar rachna padne ko mili,
ReplyDeleteaabhar.
प्रत्येक पंक्ति दर्शन से पूर्ण..
ReplyDeleteगहन अनुभूति लिए भावपूर्ण अभिव्यक्ति....
ReplyDeleteपढ़कर लगा कि किसी ऐसे ने लिखा है जो मेरे बहुत करीब है।
ReplyDeleteकुछ ऐसा ही कभी मैने भी महसूस किया था।
शायद......!
"पर उलझा सा बावरा मन
ReplyDeleteतुम्हें कहाँ समझ पाया"
गहन चिंतन और आत्म-मंथन करती भावपूर्ण अभिव्यक्ति!
बहुत ही गहन विचारो से ओत - प्रोत बेहतरीन भावात्मक अभिव्यक्ति
ReplyDeleteआपकी किसी पोस्ट की चर्चा है नयी पुरानी हलचल पर कल शनिवार 28/1/2012 को। कृपया पधारें और अपने अनमोल विचार ज़रूर दें।
ReplyDeleteभावाकुल रचना के लिए साधुवाद...
ReplyDeleteमन का बाज उड़ा जाता है चोंच में भर कर मन के पंख
मन के आंगन मन की चिडि़या रोती है बेदीना है।
बेहतरीन!!!!:)
ReplyDeleteबहुत सुन्दर
ReplyDeleteआपकी आत्म स्वीकारोक्ति बहुत कुछ सिखा रही है.
ReplyDeleteसुन्दर प्रस्तुति के लिए आभार.
जो अनमोल है वह सदा के लिए है -हीरे का मोल जौहरी के लिए है !
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