मन की मजबूरियों की
क्या कीमत लगाओगे
या बात-बात पर
नपे-तुले व्यावहारिकता की
चादर ओढाओगे...
ध्रुवों पर कील गाड़कर
आस्था-विश्वास को
बाँध आओगे और
उन्हें जोड़ने के लिए
कच्चा-पक्का पुल बनाओगे
फिर आग्रहों का सहारा लेकर
भारी पाँव को घसीटोगे
तो सारी जुगत भीड़ जायेगी
खुद को बचाते हुए
मुझ तक आने में ही...
जैसे-तैसे आ तो जाओगे
पर सोच लो क्या दोगे
रास्ते का जोखिम भरा ब्योरा
या जुगत का दांव-पेंच
या फिर उसी चादर की
देने लगोगे दुहाई पर दुहाई..
जबकि मैं उसी ध्रुव पर
हर चादर उताड़े खड़ी हूँ
हर कीमत या जुगत को
आग्रहों के अलाव में झोंक कर
बस थोड़ी सी गर्मी के लिए...
जो थोड़ी सी गर्मी
तुम्हारी गर्म साँसों की
और तुम्हारी नर्म बाहों की मिले
तो सदियों तक यूँ ही
यहीं खड़ी रहूँगी
क्योंकि मैंने
मान दिया है
मन की मजबूरियों को
और जान लिया है तुम्हें .
इंतेज़ार में जो मज़ा है वो मिलने में कहां ?
ReplyDeleteप्रबल और स्पष्ट भाव मन के .......अंगद के पाँव की तरह जमा हुआ वजूद ...
ReplyDeleteवाह!!
ReplyDeleteबेहतरीन भाव...
बहुत सुंदर भाव संजोये है और उनकी अभिव्यक्ति भी बहुत सुंदर ..
ReplyDeleteमान मिले हर भावों को अब।
ReplyDeleteकिसी की मजबूरियों का समझना और उन्हें मान देना ... कम ही समझ पाते अहिं ...
ReplyDeleteभाव लिए सुन्दर रचना ...
मन के भावो को शब्द दे दिए आपने......
ReplyDeleteवाह!
ReplyDeleteबहुत बढ़िया!
अपनी सुविधा से लिए, चर्चा के दो वार।
चर्चा मंच सजाउँगा, मंगल और बुधवार।।
घूम-घूमकर देखिए, अपना चर्चा मंच ।
लिंक आपका है यहीं, कोई नहीं प्रपंच।।
आपकी इस प्रविष्टी की चर्चा कल बुधवार के चर्चा मंच पर भी होगी!
बेहतरीन।
ReplyDeleteसादर
सुन्दर ...
ReplyDeleteमेरे ब्लॉग पर आपका स्वागत है..
kalamdaan.blogspot.com
सहज अभिव्यक्ति
ReplyDeleteबहुत सुन्दर...मज़बूरी को मान देना..वाह क्या भाव है
ReplyDeleteबेहतरीन कविता।..वाह!
ReplyDeleteबहुत सुन्दर .
ReplyDeleteपढ़कर अच्छा लगा.
मन की मजबूरियों की कोई कीमत नहीं होती ... वह एक एहसास है , जिसकी समझ कम लोगों में होती है
ReplyDeleteहर हाल में ख़ुशी , हर हाल में मान .
ReplyDeleteसमर्पण का प्यारा सा एहसास .........
ReplyDeleteumda...shayad pyar ka gendered perspective hai, ek insaan ko sadiyon bane tasweer mein dhalne ki koshish aur us insaan ke us tasweer/ imagery ki marubhumi mein kayam rehne ki koshish. koshishen zaroori hain apna wazood bachaye rakhne ke liye. bahut sateek kavita. sadhuvaad
ReplyDeleteबढ़िया रचना , ख़ूबसूरत भाव !
ReplyDeletevivashtaao ko shabdo me bakhoobi ukera hai.
ReplyDeletekyunki
ReplyDeletemaine maan diya hai
mann ki majburiyon ko
aur gherai se jaan liya hain
bahut khoob....
मन की मजबूरी और ध्रुवों पर इंतजार... बहुत सुंदर भाव और शब्दों के माध्यम से दिल की गहराई से निकली कविता...
ReplyDeleteगहरे भाव।
ReplyDeleteसुंदर रचना।
सुन्दर भाव और अभिव्यक्ति के साथ लाजवाब रचना लिखा है आपने! बधाई!
ReplyDeleteमजबूरी ....न जाने क्यों ये शब्द अच्छा सा नहीं लगता......कई बार कमजोरियों को मज़बूरी का नाम भी दे दिया जाता है.....इंतज़ार का लुत्फ़ और उसकी घुटन को दर्शाती ये पोस्ट बेहतरीन है........शानदार|
ReplyDeleteजबकि मैं उसी ध्रुव पर
ReplyDeleteहर चादर उताड़े खड़ी हूँ
हर कीमत या जुगत को
आग्रहों के अलाव में झोंक कर
बस थोड़ी सी गर्मी के लिए...
जो थोड़ी सी गर्मी
तुम्हारी गर्म साँसों की
और तुम्हारी नर्म बाहों की मिले
तो सदियों तक यूँ ही
यहीं खड़ी रहूँगी
क्योंकि मैंने
मान दिया है
मन की मजबूरियों को
और जान लिया है तुम्हें .
बहुत खूब ....क्योंकि मैंने भी मन की मजबूरी को जान लिया है मान लिया है पहचान लिया है तुम्हे ...सुन्दर प्रयोग भूमि .
आपकी प्रस्तुति गहरे भाव अभिव्यक्त करती है.
ReplyDeleteजिन्हें समझने के लिए गहराई में उतरना होगा.
आपके दिल की गहराई अथाह है.
प्यार समर्पण ही तो है...शायद !
ReplyDeleteअमृता जी बहुत ही सुन्दर और सराहनीय कविता बधाई |
ReplyDeletebhavpoorn......
ReplyDeleteअमृता जी आपकी सहज अभिव्यक्ति वाली यह कविता बहुत सुन्दर लगी.मन की मजबूरियों को स्वीकारने और उसकी वजह को जानने के बाद तो उम्मीद पर कायम रहना ही बेहतर होगा.
ReplyDeletesach pyar samarpan ki bina adhura hai..
ReplyDelete..bahut badiya manobhavon ki prastuti..
nice poem
ReplyDeletebahut khoob
behad nazuk si......achchi lagi.
ReplyDeleteसम्पूर्ण समर्पण को परिभाषित करती प्यारी रचना ....मजबूरियों को मान देना प्रेम की सार्थकता है
ReplyDeleteडाईरेक्ट दिल से --आपकी लेखनी को सलाम
ReplyDeleteबहुत खूब
ReplyDeleteबहुत सुन्दर और सहज अभिव्यक्ति.....
ReplyDeleteबहुत सुंदर प्रस्तुति । मेरे नए पोस्ट " हो जाते हैं क्यूं आद्र नयन पर ": पर आपका बेसब्री से इंतजार रहेगा । धन्यवाद। .
ReplyDeleteओह कितनी कोमल कविता है..बहुत सुन्दर :):)
ReplyDeleteमैं उसी ध्रुव पर
ReplyDeleteहर चादर उताड़े खड़ी हूँ
हर कीमत या जुगत को
आग्रहों के अलाव में झोंक कर
बस थोड़ी सी गर्मी के लिए...
जो थोड़ी सी गर्मी
तुम्हारी गर्म साँसों की
और तुम्हारी नर्म बाहों की मिले
तो सदियों तक यूँ ही
यहीं खड़ी रहूँगी
क्योंकि मैंने
मान दिया है
मन की मजबूरियों को
और जान लिया है तुम्हें .
नि:शब्द कर दिया इन भावों ने.....
बड़ी सारी कवितायें पढ़ गया आज आपकी..
ReplyDeleteबड़ा अच्छा सा लगा दीदी :)
यहीं खड़ी रहूँगी
ReplyDeleteक्योंकि मैंने......