मेरे आशा के अनुरूप
सुलझाया तुमने
आपस में उलझे
मेरे अव्यक्त विचारों को
न चाह कर भी
उलझ रहे हैं उन्हीं में
मेरे अहसास...
अब न जाने क्यूँ
मौन होकर तुम
सुलझाना चाहते हो मुझे
जबकि उसे भरते-भरते
और भी मैं
उलझ ही रही हूँ...
अभिव्यक्ति दो तो
परिणति चाहता
वो परितप्त विचार
मुक्त हो सके
उन्मुक्त गगन में...
मौन तो होना ही है
चाहे सो जाए
चाँद की गोद में
या छू ले
उस दहकते सूरज को...
पर प्रिय !
रोक सकते हो तो रोक लो
उन तरंगो को
जो तुमसे निकल कर
आती है मुझतक...
तुम मुझे
अपने तरंगो में
इसतरह उलझा कर
कितना सुलझाओगे
या मुझसे भी
निकलती तरंगो में
तुम भी
मेरी तरह ही
उलझ जाओगे..?
रोक सको तो रोक लो उन तरंगो को.........बहुत ही सुन्दर है ये पंक्तियाँ ......लाजवाब पोस्ट|
ReplyDeleteगहन मंथन...
ReplyDeleteशानदार भाव संयोजन्।
ReplyDeletenice lines amrita
ReplyDeletecheck out my blog also
http://iamhereonlyforu.blogspot.com/
सुलाझ्कर भी उलझते विचार ... गहरे अर्थ बताते हैं
ReplyDeleteक्या कहने
ReplyDeleteबहुत सुंदर
par priy......
ReplyDeletemeri tarah ulajh jaoge
bahut sunder likha hai.
shubhkamnayen
तरंगें भी खूब सुलझन उलझन करती रहती हैं जी.
ReplyDeleteतरंगों के कारण और उद्गम को ही समझा जाये फिर तो.
सुन्दर तरंगित करती प्रस्तुति है आपकी.
प्रेम की संभावना ही प्रेरणा है !
ReplyDeleteऔर मौन ही प्रेम होता है
बहुत सुंदर गहरे भाव... न वह उलझाना चाहता है न वह उलझता है... वह तो साक्षी बना बस दूर से तकता रहता है...हमारी हर तरंग को देखते हुए...
ReplyDelete“मौन तो होना ही है
ReplyDeleteचाहे सो जायें
चाँद की गोद में
या छू लें
उस दहकते सूरज को...
गहनाभिव्यक्ति....
सादर बधाई...
पर प्रिय !
ReplyDeleteरोक सकते हो तो रोक लो
उन तरंगो को
जो तुमसे निकल कर
आती है मुझतक...
बेहतरीन पंक्तियाँ।
सादर
गहरी सोच ..!
ReplyDeleteउम्दा रचना !
आभार !
अभिव्यक्ति सुलझने की और इशारा करती है,
ReplyDeleteमौन हो जाना उलझने की निशानी है.
बहुत ही दार्शनिक अभिव्यक्ति.
शुभ कामनाएं.
उलझ उलझ कर सुलझना और सुलझ सुलझ कर उलझना ही जीवन है॥
ReplyDeleteएक बार फिर आपकी कलम ने अपना लोहा मनवाया है...कमाल की रचना...बधाई...
ReplyDeleteनीरज
तरंगें किनारों पर स्थिर हो जाती हैं।
ReplyDeleteतुम मुझे
ReplyDeleteअपने तरंगों में
इस तरह उलझाकर
कितना सुलझाओगे
या मुझसे भी
निकलती तरंगों में
तुम भी
मेरी तरह ही
उलझ जाओगे.....?
प्रभावशाली पंक्तियाँ.......
आपकी कविता "तरंगों में" काफी अच्छी लगी । आपने भावों को घनीभूत कर दिया है । मेरे नए पोस्ट " तुम्हे प्यार करते-करते कहीं मेरी उम्र न बीत जाए " पर आपके प्रतिक्रियाओं की आतुरता से प्रतीक्षा रहेगी । धन्यवाद ।
ReplyDeleteउन्मुक्त गगन में मौन तो होना ही है....
ReplyDeleteसच अमृता... आपने कितना सुन्दर लिखा है ... राहुल
suljhaane ke chakkar mein hi kuchh log buri tarah ulajh jaate hain.....!
ReplyDeletebahut sundar rachna...
Adrishya tarangon ko chhoo lene waalee samvedansheelta aur maun mein machalte saagar kee kahani.
ReplyDeleteAmrit mein tanmay karne waale gantavya kee kavymayee seedhiyan
badhaaee
समय .......!!
ReplyDeleteमन उलझता भी है ...और सुलझाता भी है ....क्योंकि मौन रह कर भी तरंगे तो मौन नहीं हैं न ...वो तो पहुँच ही रहीं हैं आप तक उसकी और उस तक आपकी ...तभी तो इतनी सुंदर रचना बन पड़ी ....
बहुत ही सुंदर रचना ...!!
खिल गया पढ़ कर मन ...!!
उलझने-सुलझने के गोरखधंधे में निबहती जिंदगी.
ReplyDeleteसुकोमल विचारों की सुंदर अभिव्यक्तिं
ReplyDeletelajabab prsatuti ......mn ke tarang to samane khade vykati ko prabhavit karte hi hain.....abhar Amrita ji .
ReplyDeleteअच्छी लगी आपकी यह रचना. मन की उड़ान को कौन रोक सकता है?
ReplyDeleteसुन्दर, दार्शनिक मनोभाव - आभार.
ReplyDeleteतरंगों की बेचैनी।
ReplyDeleteबहुत खुबसूरत रचना अभिवयक्ति.........
ReplyDeleteगहन उलझनों में सुलझे विचार..बहुत सुंदर भावाभिव्यक्ति...
ReplyDeleteखूबसूरत भाव ,खूबसूरत एहसास ...
ReplyDeleteनया साल मुबारक हो.....एक बात बताईए इतना बढ़िया लिखती कैसे हैं आप....
ReplyDeleteकिसी ने कहा था " रोक सको , तो रोक लो मन की उड़ान को " ,
ReplyDeleteउसके काफी करीब आपकी रचना.... !!
मन उलझाता भी है , सुलझाता भी है.....!!!!
बेहद ख़ूबसूरत एवं उम्दा रचना ! बधाई !
ReplyDeletebahut sundar !!
ReplyDeleteगहन भावों से भरा कविता अच्छी लगी । मेरे नए पोस्ट "लेखनी को थाम सकी इसलिए लेखन ने मुझे थामा": पर आपका बेसब्री से इंतजार रहेगा । धन्यवाद। .
ReplyDeleteसुंदर अभिव्यक्ति बहुत सुंदर भावों की बढ़िया रचना,....बधाई
ReplyDeletewelcom to new post --"काव्यान्जलि"--
उलझने की आशंका उलझन ही है. यह नहीं है तो आशंका भी नहीं है. बहुत सुंदर कविता.
ReplyDelete