मुझे
अपने हाथों की
प्रत्यंचा बना सकते हो...
अपने तरकस से
तीर पर तीर चला सकते हो...
बेध सूर्य-चन्द्र को
अँधेरे को जिता सकते हो...
मेरी ऊँगली से
अपना चक्र भी चला सकते हो...
तुम्हारी विराटता सिद्ध हो तो
कण-कण में
मुझे बिखरा सकते हो....
और अपने जय-घोष में
मुझसे ही
शंख भी फुंकवा सकते हो....
पर जब मैं
तुम्हारा भेद खोलने लगूँ तो
सच कहो
अठारहों अध्याय भी
कम तो नहीं पड़ जायेंगे .
तुम्हारा भेद खोलने लगूँ तो
ReplyDeleteसच कहो
अठारहों अध्याय भी
कम तो नहीं पड़ जायेंगे .
बहुत ही खूबसूरत और आपकी दूरदर्शिता को मुकम्मल मोड़ देता पोस्ट....
सुंदर अभिव्यक्ति ,,,,,
Deleteपर जब मैं
ReplyDeleteतुम्हारा भेद खोलने लगूँ तो
सच कहो
अठारहों अध्याय भी
कम तो नहीं पड़ जायेंगे .
बहुत सारगर्भित पक्तियां । अठारह अध्याय क्या सहस्त्रों महाकाव्य की रचना हो सकती है। मेरे नए पोस्ट पर आपका स्वागत है धन्यवाद।।
पर जब मैं
ReplyDeleteतुम्हारा भेद खोलने लगूँ तो
सच कहो
अठारहों अध्याय भी
कम तो नहीं पड़ जायेंगे
बहुत खूब ... भेद तो खोलने ही होंगे
इन सारे प्रपंचों के बीच शाश्वत सत्य अडिग खड़ा सबकी पोल खोल देने की शक्ति रखता है।
ReplyDeleteAmrita,
ReplyDeleteKISI BAHUT HI KARIBI VAYAKTI, JO KE PATNI YAA PREMIKAA HO SAKTI HAI, NE KISSI KO APNI SHAKTI PAR GHAMAND NAA KARNE KE LIYE SAWDHAAN KIYAA HAI, EISAA LAGTAA HAI.
Take care
तुम्हारा भेद खोलने लगूँ तो
ReplyDeleteसच कहो
अठारहों अध्याय भी
कम तो नहीं पड़ जायेंगे .
प्रभावित करते सशक्त भाव....
सच में कम पड़ जायेगें, कहाँ तक कोई छिपा सकता है..
ReplyDeleteअपनी कविताओं के माध्यम से सदा कुसुमो की सौरभ बिखेरने वाली कवियत्री क्यों आज अठारह अध्ह्याय बांचने की आवश्यकता आन पड़ी ?ऐसी नाराजगी क्यों और किस से.?
ReplyDeleteपर जब मैं
ReplyDeleteतुम्हारा भेद खोलने लगूँ तो
सच कहो
अठारहों अध्याय भी
कम तो नहीं पड़ जायेंगे .
आदरणीय प्रेम सरोवर जी के कमेन्ट से पूर्णतः सहमत
पर जब मैं
ReplyDeleteतुम्हारा भेद खोलने लगूँ तो
सच कहो
अठारहों अध्याय भी
कम तो नहीं पड़ जायेंगे .
मन के भावों की गहन अभिव्यक्ति .... न जाने कितना कुछ मन में छिपा रहता है
bhtreen
ReplyDeleteबहुत सुंदर..लिखते रहिये ...
Deleteपर जब मैं
ReplyDeleteतुम्हारा भेद खोलने लगूँ तो
सच कहो
अठारहों अध्याय भी
कम तो नहीं पड़ जायेंगे .
बहुत सुंदर ...जब तुम ह्दय मे हो प्रभु ...और मैं तुम्हारा भेद खोलने लगूँ ...
यही तो प्रभु प्रसाद है ....आपकी लेखनी अर्चित है ...लिखते रहिये ...
कितने ग्रन्थ इतिहास लिखे जायेंगे ...
ReplyDeleteमन के विस्तृत संसार की अकथ गाथा कहाँ सिमटेगी !
तुम्हारा भेद खोलने लगूँ तो
ReplyDeleteसच कहो
अठारहों अध्याय भी
कम तो नहीं पड़ जायेंगे ....atharah adhyay lagenge ya atharah hajaar ye to pata nahi...par uddhrit panktiyon ko padhte hee aapke ooper kee tamam panktiyon ka rahsya samajh me aaya aaur dil ne kaha ...bhai wah
पर जब मैं
ReplyDeleteतुम्हारा भेद खोलने लगूँ तो
सच कहो
अठारहों अध्याय भी
कम तो नहीं पड़ जायेंगे ....bahut hi sundar.....
शंखनाद है इन अतुल्य भावनाओं के लिए
ReplyDeleteबहुत ही सुन्दर और शास्वत कविता ..
ReplyDeleteप्रभु का आह्वान ..
बधाई .
तुम्हारा भेद खोलने लगूँ तो
ReplyDeleteसच कहो
अठारहों अध्याय भी
कम तो नहीं पड़ जायेंगे .
adbhut...
बहुत सारगर्भित पक्तियां
ReplyDeleteतन्मय होकर के सुनो, अट्ठारह अध्याय |
ReplyDeleteभेद खोलता हूँ सकल, रहे कृष्ण घबराय |
रहे कृष्ण घबराय, सीध अर्जुन को पाया |
बेचारा असहाय, बुद्धि से ख़ूब भरमाया |
एक एक करतूत, देखता जाए संजय |
गोपी जस असहाय, नहीं हैं सुन ले तन्मय ||
भेद है तो खुलेगा ही। कब तक छिपा रहेगा।
ReplyDeleteवाह.....अगर मैं भेद खोलने लगूँ तो....वाह ।
ReplyDeleteपर जब मैं
ReplyDeleteतुम्हारा भेद खोलने लगूँ तो
सच कहो
अठारहों अध्याय भी
कम तो नहीं पड़ जायेंगे
शायद सभी इस प्रश्न को अकेले में दुहराते जरूर हैं ...सभी के मनोभावों को स्वर देने के लिये साधुवाद
अरे खोल रेतो दिया सा भेद , और सुनहरे अध्याय जैसी पंक्तियाँ , अति सुँदर
ReplyDeleteसारी सृष्टि कम पड़ जाएगी तब तो....
ReplyDeleteअद्भुत रचना...
सादर बधाई स्वीकारें।
ये क्या बात हुयी ? :-)
ReplyDeleteतुम्हारा भेद खोलने लगूँ तो
ReplyDeleteसच कहो
अठारहों अध्याय भी
कम तो नहीं पड़ जायेंगे .
यह तो डरा दिया. सोचना पड़ेगा शायद.
पर जब मैं
ReplyDeleteतुम्हारा भेद खोलने लगूँ तो
सच कहो
अठारहों अध्याय भी
कम तो नहीं पड़ जायेंगे
पर जब मैं
तुम्हारा भेद खोलने लगूँ तो
सच कहो
अठारहों अध्याय भी
कम तो नहीं पड़ जायेंगे
बढ़िया प्रस्तुति -तुम राधे बनो श्याम ,कह कह खूब नचायो श्याम ,खोल दूं भेड़ तुम्हारे कह कह खूब डरा यो श्याम ....वीरुभाई परदेसिया ,४३,३०९ ,सिल्वर वुड ड्राइव ,कैंटन ,मिशिगन ,४८,१८८ ,यू एस ए
उलाहनो के उद्गीत के लिए गीता के 18 अध्याय कम ही पड़ेंगे. रचयिता को रचना से सुनना ही पड़ेगा.
ReplyDeleteपर जब मैं
ReplyDeleteतुम्हारा भेद खोलने लगूँ तो
सच कहो
अठारहों अध्याय भी
कम तो नहीं पड़ जायेंगे
....अद्भुत पंक्तियाँ...अनेकों की भावनाओं को सुन्दर शब्द दिए...
अठारह अध्याय ही नहीं अठारह हजार भी कम पड़ जायेंगे....
ReplyDeletebahut sundar kavita hai Amrita ji. mere naye blog post par aapka swagat hai.
ReplyDeletehttp://utkarsh-meyar.blogspot.in/
..लिखते रहिये ...
Deleteरचना सुन्दर लगी और मुझे सुझाव के लिए धन्यवाद.
ReplyDeleteअमृता, जो सामर्थ्य प्रदान करते हैं वो कभी चाह कर भी असमर्थ नहीं करते....वो चुपचाप गरल पाण कर लेते हैं और शिवत्व को प्रपट कर लेते हैं....भेद खोलने का सामर्थ्य रखते हुये भी खोलते नहीं....आवाज़ बुलंद होते हुये भी बोलते नहीं....यही तो हमारी मुश्किल है....
ReplyDeleteआपकी भावनाओं के अंदर बहुत से नाद छिपे नजर आये हैं मुझे !
ReplyDeleteबहुत ही प्रशंसनीय रचना .सुधि दिलाने के लिए धन्यवाद-जल्दी ही नियमित हो रहा हूँ.
ReplyDeleteवाह ... बहुत खूब अनुपम प्रस्तुति।
ReplyDeleteबढ़िया अभिव्यक्ति ...
ReplyDeleteकल्पना जिसकी संजोयी हूँ
ReplyDeleteउसे सामने कहीं पा न जाऊं .
बढ़िया... बहुत बढ़िया.................
ReplyDeleteसादर
अनु
सच कहूं
ReplyDeleteबहुत सुंदर रचना
bahut sundar rachna hai, apne samay ko seedhe-seedhe katghare main khada kar deti hai.iske liye main aapko badhai deta hoon.
ReplyDeleteबहुत ही सुन्दर गहन प्रस्तुति.
ReplyDeleteआपके ज्ञान और अनुभव की बातें
भी निराले अंदाज में होती हैं.
चुटीली सी ,रसीली सी.
मेरे ब्लॉग पर आईएगा अमृता जी.
बेहतरीन कविता। एक दायरे को चुनौती देती हुई। नवीन तरीके से खुद को शब्द देती हुई। स्वागत है।
ReplyDeleteI read your post interesting and informative. I am doing research on bloggers who use effectively blog for disseminate information.My Thesis titled as "Study on Blogging Pattern Of Selected Bloggers(Indians)".I glad if u wish to participate in my research.Please contact me through mail. Thank you.
ReplyDeletehttp://priyarajan-naga.blogspot.in/2012/06/study-on-blogging-pattern-of-selected.html
सच में कम पड़ जायेंगे १८ अध्याय ...
ReplyDeleteबहुत सुन्दर अभिव्यक्ति.
बहुत सुन्दर सही गहन भाव लिये रचना। सच है ।
ReplyDeleteमेरी ऊँगली से
अपना चक्र भी चला सकते हो...
सच है औरत के कन्धे से बन्दूक चला कर उसे ही दोशी बना देता है आदमी।
बहुत सुन्दर प्रस्तुति..!
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टी की चर्चा आज के चर्चा मंच पर भी की गई है!
सूचनार्थ!