सक्रिय सहभागिता मेरी
जीवन के हर एक
स्पंदन और विचलन में
उच्छृंखलता और नियमन में
चढ़ान और फिसलन में
अवसाद और थिरकन में...
पर साथ-साथ
फन उठाये एक डर भी
उलझाता एक एहसास भी
परजीवी होने का....
अपने पेट में ही
उलझ-सुलझ कर
अपनी स्वतंत्रता को
कमोवेश निगलते जाना....
अपनी ही बिठाई
निष्पक्ष जाँच की धार पर
संभल-संभल कर चलना....
न जाने कब
अपदस्थ कर दी जाऊं...
अपने ही किसी काल-कोठरी में
नजरबंद कर दी जाऊं...
तब एक चरम बिंदु तय करके
समग्र साधनों को संचित करके
अगुआई करती हूँ
एक आत्मक्रांति की
और हो जाती हूँ - मुक्त
कुछेक पल के लिए...
हाँ! ये मेरी क्रांति ही
झझकोर रही है आज
समस्त संधित
संदीप्त चेतना को .
जीवन यज्ञ में प्रयासों की आहुतियाँ..अधिकारों के स्वर कुन्द पड़ जाते हैं।
ReplyDeleteअगुआई करती हूँ
ReplyDeleteएक आत्मक्रांति की
और हो जाती हूँ मुक्त
कुछेक पल के लिए
गहरे मनोभावों को शिद्दत से बयाँ करती अलहदा पोस्ट.......
भय न हो तो गति ना हो , गति में ही विस्तार है , आधार है
ReplyDeleteबेहतरीन अभिव्यक्ति की बहुत सुंदर रचना,,,,, ,
ReplyDeleteMY RECENT POST,,,,काव्यान्जलि ...: ब्याह रचाने के लिये,,,,,
वाह....
ReplyDeleteगहन अभिव्यक्ति.....
बहुत सुन्दर.
अनु
गहन अनुभूति के साथ सुन्दर प्रस्तुति...अमृता..सस्नेह
ReplyDeleteबहुत सुदंर
ReplyDeleteक्या कहने
इतना संभल संभल के चलना और फिर पहुँच जाना क्रांति तक जो एक छलांग चाहती है...अद्भुत !
ReplyDeleteआत्ममंथन से आत्मक्रांति तक की बात चेतना को आंदोलित करती है. कविता बहुत कुछ को सहज ही हृदय तक उतार देती है.
ReplyDeleteबेहतरीन
ReplyDeleteसादर
बहुत बढिया!!! आत्मंथन करती ही एक बढिया रचना।आभार।
ReplyDeleteजीवन के बड़े मकसद.बदलाव बिना क्रांतियों के संभव नहीं हुए हैं० वेलकम !
ReplyDeleteअमृता जी मानसिक कुहांसे को शब्द पैरहन पह्राना कोई आपसे सीखे .बढ़िया आत्म विश्लेषण और निर्बन्धन होता मन और उसकी पड़ताल करती कव -यित्री .
ReplyDeleteबहुत सुदंर
ReplyDeleteक्रांति की प्रणेता आपकी चेतना ऐसी ही संदीप्त रहे
ReplyDeleteAmrita,
ReplyDeleteJO APNI SWAYAM NISHCHIT KI SEEMA MEIN APNI ANTARATMAA KI SUN KAR RAHTAA HAI, KABHI BHI GALAT NAHIN HO SAKTAA.
Take care
पुनरावलोकन/आत्मविश्लेषण...
ReplyDeleteसुंदर चिंतन....
सादर।
आत्मक्रांति से मुक्ति कुछेक पल के लिए सही, काफी है...गहन भावाभियक्ति... आभार
ReplyDeleteअर्थपूर्ण और सम्पूर्ण रचना |
ReplyDeleteकभी कभी हम स्वयं से ऐसे ही प्रश्न करते और अपने ही अंतर जाल में उलझे निष्पक्ष क्रांति पथ पर अग्रसर पाते हैं
ReplyDeleteफिर भी सफ़र जारी रहता है ,शायद यही जीवन क्रम है .............
बढ़िया आत्म विश्लेषण
पर साथ-साथ
ReplyDeleteफन उठाये एक डर भी
उलझाता एक एहसास भी
परजीवी होने का....
अपने पेट में ही
उलझ-सुलझ कर
अपनी स्वतंत्रता को
कमोवेश निगलते जाना....
उलझ सुलझ कर भी एक दिशा देती सुंदर रचना
मित्रों चर्चा मंच के, देखो पन्ने खोल |
ReplyDeleteपैदल ही आ जाइए, महंगा है पेट्रोल ||
--
बुधवारीय चर्चा मंच ।
गहन भाव लिए बेहतरीन रचना....
ReplyDeleteहाँ! ये मेरी क्रांति ही
ReplyDeleteझझकोर रही है आज
समस्त संधित
संदीप्त चेतना को .
कितना सुंदर प्रयास है स्वयम की कृती को स्वयम ही जांचना परखना ...आत्मविश्लेशण का सुख ....प्रभु की ओर ले जाता है ....
बहुत सुंदर अभिव्यक्ति ....कई बार पढ़ी ...आत्मसात की ...अब कुछ लिख रही हूँ ...
परिस्तिथियों से जब तक सुलह करते रहेंगे.....उन्हें न चाहते हुए भी एक्सेप्ट करते रहेंगे ..तब तक भय मुक्त कदापि नहीं हो पाएंगे....उसके लिए हिम्मत जुटानी होगी .....लकीर से हटने की ...अपने नियम खुद बनाने की ...बहुत सुन्दर अमृताजी
ReplyDeleteWell said .Compromising is nothing but mental corruption..Freeing with fear needs facing situation with harder determination and belief to winover.Traditions are only mental barrier created by individuals or sosciety and needs to broke if stands in the way of individual freedom and progress.The present life and happiness matters only and is precious.
Deleteमन की पीड़ा से उपजी बहुत मार्मिक, बहुत सुन्दर रचना...
ReplyDeleteखुद के मन की क्रान्ति से ही इंसान जागता है ... दूसरा जितना भी प्रयास करे जगा नहीं सकता ...
ReplyDeleteक्रांति से होकर ही मंजिल की राह निकलती है.....शानदार पोस्ट।
ReplyDeleteआत्मंथन करती ही एक बढिया रचना
ReplyDeleteबहुत सुन्दर
हाँ! ये मेरी क्रांति ही
ReplyDeleteझझकोर रही है आज
समस्त संधित
संदीप्त चेतना को .
आत्मनिरीक्षण करना और अपने ही बनाए
नियमों से क्रांति लाना वाकई कठिन है...
जिसने यह कर लिया वह भयमुक्त हो गया...
सुंदर रचना !!
यह जीवन है ....
ReplyDeleteअपने लिए, अपने द्वारा बिठाई गई निष्पक्ष जांच और उसके आत्ममंथन से उपजी आत्मक्रांति की ललक से ही उस मंजिल को पाया जा सकता है, जिसे पा लेने के बाद और कोई मंज़िल शेष नहीं रहती।
ReplyDeleteआपकी कविताएं श्रेष्ठ होती हैं, और ब्लॉग जगत में ऐसे उदाहरण कम ही मिलते हैं।
बहुत खूब!!!!
मै भी मनोज जी से सहमत हूँ !
ReplyDeleteआपकी रचना पढकर सच में लगता है कुछ अच्छा पढ़ा है
सार्थक रचना !
आत्मक्रांति का संदेश देती एक अच्छी रचना।
ReplyDeleteअच्छी प्रस्तुति । धन्यवाद ।
ReplyDeleteजिस तरह बीज मिटी में में सड गल कर नये कोपल के रूप में होता है उसी तरह कोई प्रचंड बिचार ब्यक्ति या समूह में पिचले परिस्थितिओं में परिवर्तन कर नयी ब्यवस्था का निर्माण करती है .इस संक्रमण काल की पीड़ा से गुजरना ही साहस और धैर्य की परीक्षा है.बीज अगर अपने संक्रमण के लिए तैयार न हो तो नयी कोपल कंहा? भय करे तो निर्माण कैसे??
ReplyDeleteKRANTI KE LIYE ES SE BEHATAR SANDESH AUR KYA HO SAKATA HAI .....BADHAI AMRITA JI
ReplyDeleteआत्मक्रान्ति ही तो एक सुन्दर व्यक्तित्व और एक श्रेष्ठ रचनाकार को जन्म देती है ....बहुत सुन्दर भाव
ReplyDeletemain kavita do baar padh ke sochte rah gaya ki kya likhun lekin kuch samajh nahi aaya...bas padh ke mahsus kar raha hun...
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