विरवा में अनुक्षण अँखुआते
हर पंखड़ी , पात से पूछूं
भोर की सुकुमार किरणों सी
गंध बिखराती हर गात से पूछूं
अल्हड़ , आतुर चाहना की
फूलझड़ियों सी बरसात से पूछूं
तुम मेरे हो कौन ?
शिशिरा के हलके हिलोरे से
झिर-झिर झिलमिलाते मूंजों से पूछूं
कनखी ही कनखी में कुछ कह
सकुचाते सघन कुंजों से पूछूं
प्राण-पिकी की मतवाली सी
मरमराती मधुर गूंजों से पूछूं
तुम मेरे हो कौन ?
इन निर्झर नलिन-नयनों में तिरते
पल-पल की पिपासा से पूछूं
दूर-दूर तक विस्तीर्ण नीलिमा में
विस्तारित , विस्मित जिज्ञासा से पूछूं
झिर्रियों की झलक से चौंधियाकर
चुलबुलाते पंखों की अभिलाषा से पूछूं
तुम मेरे हो कौन ?
तुझ पाहुन की पगध्वनि पाने को
धमा-धम धमकते धड़कनों से पूछूं
तन पर तारकावलियों सा जड़ने को
तप्त , तत्पर चुम्बनों से पूछूं
देह की देहरी पर दुहाई देते
कसकते , कसमसाते आलिंगनों से पूछूं
तुम मेरे हो कौन ?
मुझे पूरब , पश्चिम और दक्षिण
दिखा- दिखा कर न जाने
उत्तर कहाँ है गौण ?
जब तुमसे जो पूछूं तो
रहस्य भरी मुस्कान लिए
बस रहते हो मौन...
अब कोई तो मुझे बताये
मैं किससे जाकर पूछूं कि
तुम मेरे हो कौन ?
कितनी सूक्ष्मता के साथ ,मनमोहक बिम्बों के जरिये कवयित्री ने आपनी बात कह दी है ? वाकई एक स्मरणीय श्रृंगारिक कविता !
ReplyDeleteवाह, आपने तो सभी से पूछ लिया .. ! :)
ReplyDeleteबहुत ही सुन्दर एवं अलंकृत रचना.
सादर
मधुरेश
कोमलता का अद्भुत आनन्दमयी प्रवाह
ReplyDeleteबस रहते हो मौन...
ReplyDeleteअब कोई तो मुझे बताये
मैं किससे जाकर पूछूं कि
तुम मेरे हो कौन,,,,,,,बहुत सुन्दर भाव लिये रचना.,,,,,,
RECECNT POST: हम देख न सके,,,
कालजयी ...संग्रहणीय ...अद्भुत कृति ...
ReplyDeleteअत्यधिक आह्लादकारी प्रस्तुति ...
चमत्कृत हूँ मै . ऐसे भी कोई लिख सकता है
ReplyDeleteबहुत सुंदर भावों वाली रचना
ReplyDeleteआपको पढ़ना हमेशा सुखद लगता है।
गंध बिखराती हर गात से पूछूं
अल्हड़ , आतुर चाहना की
फूलझड़ियों सी बरसात से पूछूं
तुम मेरे हो कौन ?
क्या बात
सबसे पूछा.........
ReplyDeleteनहीं मिला न उत्तर...
अब स्वयं से पूछो....उत्तर वहीँ हैं, मन के भीतर छिपा..
♥
anu
Amrita,
ReplyDeleteJO ANU NE KAHAA MEIN US SE SAHMAT HOON. BHASHA GOORH HAI, MUJHE DHYAAN SE DO BAAR PARHNAA PARHA AUR ACHCHHA LAGAA.
Take care
रहस्य भरी मुस्कान लिए
ReplyDeleteबस रहते हो मौन...
अब कोई तो मुझे बताये
मैं किससे जाकर पूछूं कि
तुम मेरे हो कौन ?
जीवन के सूक्ष्म बिम्बों को स्पर्श करती भावमय रचना
दिल पर हाथ रखो...उत्तर वहीँ धड़क रहे हैं
ReplyDeleteapne dil se hi puchiye ki tum mere kaun ho kyonki us dil se hi itni khubsurat rachna nikali hai
ReplyDeleteशीतल चांदनी के परों पर
ReplyDeleteमौन की लज्जत से पूछिए...
रूहों के भीतर भटकती रूह में
भींगती नेह से पूछिए...
इन निर्झर नलिन-नयनों में तिरते
ReplyDeleteपल-पल की पिपासा से पूछूं
दूर-दूर तक विस्तीर्ण नीलिमा में
विस्तारित , विस्मित जिज्ञासा से पूछूं
झिर्रियों की झलक से चौंधियाकर
चुलबुलाते पंखों की अभिलाषा से पूछूं
तुम मेरे हो कौन ?
शब्दों से क्या खेला है अमृता जी. खूबसूरत प्रस्तुति.
प्रेमपुर्ण कविता.
ReplyDeleteजिस सूक्ष्म भावतल पर प्रश्न पूछा गया है वहाँ न प्रकृति उत्तर दे पाती है और न नायक. प्रश्न की आकुलता बहुत सुंदर बन पड़ी है. बहुत ही सुंदर.
ReplyDeleteकमाल का शब्द समायोजन है ...रही बात उत्तर की तो वो आपके ही पास है
ReplyDeleteबहुत ही अच्छी कविता |अमृता जी आभार
ReplyDeleteवाह वाह.....सुन्दर श्रंगार.....मनो तो सब कुछ और न मनो तो कुछ नहीं :-)
ReplyDeleteबहुत सुन्दर ...
ReplyDeleteमैं आपकी हिंदी की कायल हूँ..
आपका हिंदी शब्द कोष विशाल है
आपकी कविता, जैसे शब्दों और भावों का शीतल झरना !
ReplyDeleteजो सैदेव आपका ही है,उससे पूछना कैसा?
ReplyDeleteहाँ आपने जैसे पूछा है उससे आपका अमर प्रेम
झर-झर झर रहा है.
हार्दिक आभार,अमृता जी.
जानने की भी आवश्यकता होती है ??बढ़िया भाव...
ReplyDeleteशुभकामनायें !
यह वह प्रश्न है, जो मैंने पाया है कि सदैव अनुत्तरित ही रहता है। फिर भी मन यह प्रश्न बार-बार करता रहता है। और कहीं न कहीं दिल में यह समाया रहता है कि इसका उत्तर न ही मिले तो ज़्यादा अच्छा है।
ReplyDeleteप्रकारांतर से यह पूछना भी क्या -तुम अंश अंश में ही क्यों, सर्वांश में ही मेरे ही तो हो-देह से मन तक ,तिनके से ब्रह्मांड तक तुम ही तो तुम व्याप्त हो :-)
ReplyDeleteकोई आराध्य है, जो देवतुल्य पद पा गया है आज मानो इस अभिव्यक्ति में -
एक अर्थ में यह एक आध्यात्मवादी काव्य प्रस्फुटन भी है जो अपने आराध्य देव को समर्पित है!
अमृताजी ,चैतन्य के इस महासागर में काल के आरोह में सारे चैतन्य जीव आत्माएं अपने अपने पृथक अहं के कारन पृथक पृथक दिखाते से लगते हैं ,वस्तुतः तो सभी एक ही चैतन्य के पृथक दिखाते रूप हैं.यह जीव भाव अपने पूर्ण से मिलने के लिए ही ,तथा इस अपूर्णता की बोध ही तो विरह ब्याकुलता और यह आकर्सन ही है जिसे हम एक शब्द दे देते हैं प्यार का,जब जब मानव मन इस भोतिकता से उब उठती है तो एक खोज शुरू होती है उस अज्ञात का .मन फिर बार बार पूछता है की तुम कौन हो?आपने तो इतना ह्रदय स्पर्शी एवम मार्मिक चित्रण किया है किसी भी खोजी का का दिल भर ही आएगा.आपके शब्दों का चयन तथा बिम्बों का चयन इतनी अछि तरह किया है की आप जिस विषय की और इंगित कर रही है वह बड़ा ही भावपूर्ण बन आया है बधाई आपको.आपके अगले कविता की प्रतीक्षारत एक पाठक.
ReplyDeleteसुंदर शब्दों का चयन और उतनी ही सुंदर भावभिव्यक्ति ....
ReplyDeleteअमृता जी, आज तो आपने भावों का एक निर्झर ही बहा दिया है, इसमें भीगते रहना और इस रहस्य को और गहरे होते देने के सिवा कोई उपाय नहीं...
ReplyDeleteउनका मौन कुछ कह रहा है, सुनिए... अद्भुत शब्द संयोजन... बहुत सुन्दर रचना... शुभकामनायें
ReplyDeleteवाह हर सवाल का जवाब मांगती हुई खूबसूरत रचना |
ReplyDeleteमुझे पूरब , पश्चिम और दक्षिण
ReplyDeleteदिखा- दिखा कर न जाने
उत्तर कहाँ है गौण ?
जब तुमसे जो पूछूं तो
रहस्य भरी मुस्कान लिए
बस रहते हो मौन...
वाह ... क्या बात है
उत्कृष्ट अभिव्यक्ति ।
padh kr anand hua aur laga ki hindi apne astitv men hai! Sadhuvaad.
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