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Sunday, October 10, 2010

चाहत

कुछ अलग की चाहत होती तो
बस जाती किसी दूसरे ग्रह पर
जहाँ जीवन असंभव है और
रह लेती हवा पानी भोजन के बिना 
साबित करती अपनी अलग पहचान 
रोज सुबह घंटे भर के लिए 
यहाँ टहलने को आती
दो चार चक्कर लगाकर फिर 
लौट जाती अपने ठिकाने 
कुछ अलग की चाहत होती तो 
बन जाती दंतकथाओं की पात्र
आवश्यकता और इक्षानुसार 
रूप बदल सबों को करती अचंभित 
या फिर जादू की छड़ी लिए 
करती रहती चमत्कार पर चमत्कार 
क्रीडा कौतुक हेतु अपने श्राप से 
लोगों को बना देती तोता मेमना 
मेरी उँगलियों पर ही नाचते सभी 
कुछ अलग की चाहत होती तो 
किसी क्लिष्ट या अस्पष्ट लिपि को 
अभिव्यक्ति का माध्यम बनाती
और बन जाती मैं रहस्यमयी 
पर मैं तो वही हूँ जो सबमें है 
वही  कहती हूँ जो सबका ह्रदय कहता है 
हाँ  मैं एक पुकार हूँ चेतना की 
अस्तित्व की आवाज हूँ मैं 
मैं गूंजती रहूंगी सभ्यता के बाद भी .

4 comments:

  1. अमृता जी,

    ये रचना भी बहुत सुन्दर है ........ये पंक्तियाँ बहुत अच्छी लगीं -

    "पर मैं तो वही हूँ जो सबमें है
    वही कहती हूँ जो सबका ह्रदय कहता है
    हाँ मैं एक पुकार हूँ चेतना की
    अस्तित्व की आवाज हूँ मैं
    मैं गूंजती रहूंगी सभ्यता के बाद भी"

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  2. लाजवाब...प्रशंशा के लिए उपयुक्त कद्दावर शब्द कहीं से मिल गए तो दुबारा आता हूँ...अभी मेरी डिक्शनरी के सारे शब्द तो बौने लग रहे हैं...

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  3. fantastic. last lines are the soul of this poetry.

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  4. हाँ मैं एक पुकार हूँ चेतना की ......

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