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Wednesday, October 27, 2010

न्याय

मेरे व्यक्तित्व के
विभिन्न पक्षों को
परस्पर
संतुलित करता है
मेरी आत्मा में
निहित न्याय
मेरी आवश्यकताएं
पूरक माध्यम ......
मेरी गतिशीलता
मेरी अकर्मण्यता
मेरी हिम्मत
मेरा साहस .....
मेरी चेतना में
अद्भुत समन्यवय
दुर्लभ सामंजस्य
जो मुझे बोध कराता है
मेरे कर्तव्य का
मेरे अस्तित्व का
फिर मैं
और क्या अपेक्षा करूँ
उस न्याय से
जो अन्य करते हैं
अपने हिसाब से
मेरे लिए .

5 comments:

  1. अमृता जी,

    कई बार मेरे पास शब्द नहीं होते कुछ कहने के लिए ..........

    "जो मुझे बोध कराता है
    मेरे कर्तव्य का
    मेरे अस्तित्व का
    फिर मैं
    और क्या अपेक्षा करूँ
    उस न्याय से
    जो अन्य करते हैं
    अपने हिसाब से
    मेरे लिए "

    इन शब्दों में ही आपने सब कुछ कह दिया.......अन्य जो करते हैं क्या वो सचमुच न्याय होता है?

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  2. फिर मैं
    और क्या अपेक्षा करूँ
    उस न्याय से
    जो अन्य करते हैं
    अपने हिसाब से
    मेरे लिए .

    सुन्दर मंथन ...

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  3. फिर मैं
    और क्या अपेक्षा करूँ
    उस न्याय से
    जो अन्य करते हैं
    अपने हिसाब से
    मेरे लिए .

    बहुत सही बात लिखी है ... ..अपना कर्तव्य करते रहना चाहिए ...प्रतिक्रिया की ज्यादा परवाह नहीं करना चाहिए ...!!

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  4. और क्या अपेक्षा करूँ?
    -----------------------------

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  5. जब चेतना यूँ जगी हो तो बाहरी न्याय की आवश्यकता ही क्या!
    बहुत सुन्दर रचना।

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