मेरे व्यक्तित्व के
विभिन्न पक्षों को
परस्पर
संतुलित करता है
मेरी आत्मा में
निहित न्याय
मेरी आवश्यकताएं
पूरक माध्यम ......
मेरी गतिशीलता
मेरी अकर्मण्यता
मेरी हिम्मत
मेरा साहस .....
मेरी चेतना में
अद्भुत समन्यवय
दुर्लभ सामंजस्य
जो मुझे बोध कराता है
मेरे कर्तव्य का
मेरे अस्तित्व का
फिर मैं
और क्या अपेक्षा करूँ
उस न्याय से
जो अन्य करते हैं
अपने हिसाब से
मेरे लिए .
अमृता जी,
ReplyDeleteकई बार मेरे पास शब्द नहीं होते कुछ कहने के लिए ..........
"जो मुझे बोध कराता है
मेरे कर्तव्य का
मेरे अस्तित्व का
फिर मैं
और क्या अपेक्षा करूँ
उस न्याय से
जो अन्य करते हैं
अपने हिसाब से
मेरे लिए "
इन शब्दों में ही आपने सब कुछ कह दिया.......अन्य जो करते हैं क्या वो सचमुच न्याय होता है?
फिर मैं
ReplyDeleteऔर क्या अपेक्षा करूँ
उस न्याय से
जो अन्य करते हैं
अपने हिसाब से
मेरे लिए .
सुन्दर मंथन ...
फिर मैं
ReplyDeleteऔर क्या अपेक्षा करूँ
उस न्याय से
जो अन्य करते हैं
अपने हिसाब से
मेरे लिए .
बहुत सही बात लिखी है ... ..अपना कर्तव्य करते रहना चाहिए ...प्रतिक्रिया की ज्यादा परवाह नहीं करना चाहिए ...!!
और क्या अपेक्षा करूँ?
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जब चेतना यूँ जगी हो तो बाहरी न्याय की आवश्यकता ही क्या!
ReplyDeleteबहुत सुन्दर रचना।