अपने भीतर खड़े
ऊँची - ऊँची दीवारों को
ढहाने के लिए
मैंने बनाया
अपने विचारों का
एक बहुत बड़ा
मजबूत हथौड़ा
जब तब करती रही
प्रहार पर प्रहार
हर प्रहार के बाद
चकनाचूर होकर
गिर जाता मेरा ही
एक व्यर्थ विचार
अब जो शेष है
वो है केवल अनुभवों का
समग्र सार
और मैं निर्विचार
या मैं ही हूँ
कोई सत्य की दीवार .
bhitar aur bahar ka dvandv
ReplyDeletetum ko hi dega aghaat
isliye hoga behtar
ki tum prayog karo vicharo
ke hathauro ka
bahar ko badalne ka prayaas
अमृता जी, आपकी कविता पढ़ी तो लगा अरे, यही तो दृष्टा करता है, व्यर्थ विचारों के जाल से मुक्त होकर कुछ सार्थक रचने का प्रयास ही तो कविधर्म है, इतनी सुंदर रचना के लिये बधाई ! मेरे ब्लॉग पर आपका स्वागत है .
ReplyDeleteसमग्र सार
ReplyDeleteऔर मैं निर्विचार
या मैं ही हूँ
कोई सत्य की दीवार
katu satya
समग्र सार
ReplyDeleteऔर मैं निर्विचार
या मैं ही हूँ
कोई सत्य की दीवार.. well written, keep it up..
aapke blog per aaj pehli baar aye hoon sabhi rachnayein pari sunder bhav hai
ReplyDeleteया मैं ही हूँ
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एकदम दुरुस्त ...
और मैं निर्विचार! आपकी गहरी आध्यात्मिकता भरी रचनाएँ पढ़कर चित्त शांत सा होने लगता है ..
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