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Friday, October 22, 2010

दीवार

अपने भीतर खड़े
ऊँची - ऊँची दीवारों को
ढहाने के लिए
मैंने बनाया
अपने विचारों का
एक बहुत बड़ा
मजबूत हथौड़ा
जब तब करती रही
प्रहार पर प्रहार
हर प्रहार के बाद
चकनाचूर होकर
गिर जाता मेरा ही
एक व्यर्थ विचार
अब जो शेष है
वो है केवल अनुभवों का
समग्र सार
और मैं निर्विचार
या मैं ही हूँ
कोई सत्य की दीवार .

7 comments:

  1. bhitar aur bahar ka dvandv
    tum ko hi dega aghaat
    isliye hoga behtar
    ki tum prayog karo vicharo
    ke hathauro ka
    bahar ko badalne ka prayaas

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  2. अमृता जी, आपकी कविता पढ़ी तो लगा अरे, यही तो दृष्टा करता है, व्यर्थ विचारों के जाल से मुक्त होकर कुछ सार्थक रचने का प्रयास ही तो कविधर्म है, इतनी सुंदर रचना के लिये बधाई ! मेरे ब्लॉग पर आपका स्वागत है .

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  3. समग्र सार
    और मैं निर्विचार
    या मैं ही हूँ
    कोई सत्य की दीवार

    katu satya

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  4. समग्र सार
    और मैं निर्विचार
    या मैं ही हूँ
    कोई सत्य की दीवार.. well written, keep it up..

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  5. aapke blog per aaj pehli baar aye hoon sabhi rachnayein pari sunder bhav hai

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  6. या मैं ही हूँ
    -----------------
    एकदम दुरुस्त ...

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  7. और मैं निर्विचार! आपकी गहरी आध्यात्मिकता भरी रचनाएँ पढ़कर चित्त शांत सा होने लगता है ..

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