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Monday, October 25, 2010

वरदान

क्यों मैं डालूं तुम्हारे पैरों में
अपनी कल्पनाओं की बेड़ियाँ
क्यों मैं बांध लूँ तुम्हें
अपने इन्द्रधनुषी सपनों में
क्यों मैं घेर लूँ तुम्हें
अपनी बांहों के घेरे में
क्यों मैं बनाऊं तुम्हारे लिए
अपनी सीमाओं का लक्ष्मण रेखा
क्यों मैं खींचती रहूँ तुम्हें
अपने तन मन के आकर्षण में
मेरे लिए तुम्हारा भावस्पर्श ही
अद्भुत वरदान है
जिससे मैं पाषाण से बन गयी
जीती जागती इन्सान
परिपक्व चेतना युक्त
और तुम्हारे असीम सीमा में
हो गयी अवस्थित
साक्षी भाव में तन्मय
तुममे तन्मय .

7 comments:

  1. अभिव्यक्ति का यह अंदाज निराला है. आनंद आया पढ़कर.
    कभी 'आदत.. मुस्कुराने की' पर भी पधारें !!
    new post par
    .............मेरी प्यारी बहना ?

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  2. साक्षी भाव.. यही तो कठिन है।

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  3. one of your finest poetry i have ever read. thanks for such beautiful lines.

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  4. aapki ye rachna mujhe bhut acchhi lagi amrita ji...bhut gehri baahw....

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  5. वाह! अद्भुत .. सारगर्भित, आध्यात्मिक!

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