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Saturday, September 22, 2012

परितप्ता मैं ...


तुमसे है
मेरा स्वाभिमान
जो सबको
अभिमान सा दिखता है
और मुझे
अभिमानी दिखने पर
अभिमान सा हो जाता है...
जबकि मैं जानती हूँ कि
तुम किसी बच्चे की तरह
या किसी पूर्व नियोजित
आघातक झटका की तरह
मेरे स्वाभिमान को भी
एकदम से तोड़ देते हो...
जब वह
किसी मदमायी कली से
गदराया फूल बनने को
आतुर होता है ...
क्या लगता है तुम्हें ?
कि अपनी सुगंध में
मैं ही बहक जाउँगी
तुम्हें ही भरमा कर
और भड़क जाऊँगी ...
आह ! राग का ऐसा विरूपण
यंत्रणा का ऐसा निपीड़न
अभिमान का तो अंत: अनुपतन
पर स्वाभिमान का सतत सुबकन....
ये तुम्हें भाता होगा , मुझे नहीं ...
हाँ ! मैंने कब तुम्हें मना किया
कि अपने तपौनी में
मुझे इतना मत तपाओ
मेरे हर उद्यम से
उभरते छल को
मुझे ही मत दिखाओ
और अनजाने में उठते
किसी भी अभिमान को तोड़कर
मुझे मत जगाओ...
पर
तुमसे जो है
मेरा स्वाभिमान
उसकी तो
हरसंभव लाज बचाओ...
आखिर
तेरी ही परितप्ता मैं
मुझे विचुम्बित करके
गहरी वापिका में भी
हाथ को थामकर
वार पार तो कराओ . 


37 comments:

  1. नारी की सहज भावनाओं को सशक्त शब्द दिये हैं .... विशेष रूप से ये पंक्तियाँ -
    आह ! राग का ऐसा विरूपण
    यंत्रणा का ऐसा निपीड़न
    अभिमान का तो अंत: अनुपतन
    पर स्वाभिमान का सतत सुबकन....
    ये तुम्हें भाता होगा , मुझे नहीं ...
    हाँ ! मैंने कब तुम्हें मना किया
    कि अपने तपौनी में
    मुझे इतना मत तपाओ

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  2. तुमसे जो है
    मेरा स्वाभिमान
    उसकी तो
    हरसंभव लाज बचाओ...

    भावनाओं की सशक्त अभिव्यक्ति,,,,के लिये बधाई,,,
    RECENT P0ST ,,,,, फिर मिलने का

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  3. अभिमान और स्वाभिमान के मनोविज्ञान को आपने बखूबी उकेरा है अपनी कविता में। प्रारब्ध और अंत दोनों के प्रति सजगता जीवन की गहरी समझ को प्रतिध्वनित करती है। बेहतरीन कविता। स्वागत है।

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  4. आह ! राग का ऐसा विरूपण
    यंत्रणा का ऐसा निपीड़न
    अभिमान का तो अंत: अनुपतन
    पर स्वाभिमान का सतत सुबकन....
    ये तुम्हें भाता होगा , मुझे नहीं ...
    हाँ ! मैंने कब तुम्हें मना किया
    कि अपने तपौनी में
    मुझे इतना मत तपाओ
    मेरे हर उद्यम से
    उभरते छल को
    मुझे ही मत दिखाओ
    और अनजाने में उठते
    किसी भी अभिमान को तोड़कर
    मुझे मत जगाओ...
    पर
    तुमसे जो है
    मेरा स्वाभिमान
    उसकी तो
    हरसंभव लाज बचाओ...

    अत्यधिक सुन्दर ...प्रबलता लिए हुए ...बहुत गहन अभिव्यक्ति ...!!आपकी सोच ..समझ ..काव्यशैली ...अनुपम है ...अमृता जी ...!!
    बहुत सुन्दर रचना ...!!

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  5. आह ! राग का ऐसा विरूपण
    यंत्रणा का ऐसा निपीड़न....
    ..............................................
    आह........ क्या कहूं

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  6. अद्भुत भाव बहाते शब्द..

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  7. राग, अनुराग और विराग की महीन लहरियों पर हिचकोले खाता स्वाभिमान कितनी आशाएँ पाले है. बहुत ही सुंदर कविता.

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  8. बहुत सुंदर भाव लहरी..अमृता जी, वह ऐसा ही है...स्व की तो छाया भी नहीं पसंद है उसे...

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  9. बहुत गहन अभिव्यक्ति ..अद्भुत भाव.!!

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  10. पर
    तुमसे जो है
    मेरा स्वाभिमान
    उसकी तो
    हरसंभव लाज बचाओ...
    आखिर
    तेरी ही परितप्ता मैं
    मुझे विचुम्बित करके
    गहरी वापिका में भी
    हाथ को थामकर
    वार पार तो कराओ ... गहन भावों का सम्प्रेषण

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  11. जरूर करायेंगे वो प्रभु क्योंकि यही तो उनका काम है अभिमान के बीज को नष्ट करना और खरा सोना बनाना और खरा सोना बनने के लिये तपना तो पडेगा ही।

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  12. मुझे इतना मत तपाओ
    मेरे हर उद्यम से
    उभरते छल को
    मुझे ही मत दिखाओ
    और अनजाने में उठते
    किसी भी अभिमान को तोड़कर
    मुझे मत जगाओ...

    नारी शक्ति का सहज सरल प्रकटीकरण . बहुत सुन्दर और उदार भाव से कही बातें

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  13. खुद को थाम कर चलने की एक जिद्द अपनी भी हैं ..

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  14. Amrita,

    KISI SE USKE KARAN GARV KI BHAVANAA KO NAA TODNE KAA ANURODH BAHUT ACHCHHA KAHAA HAI.

    Take care

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  15. 'तेरी ही परितप्ता मैं
    मुझे विचुम्बित करके
    गहरी वापिका में भी
    हाथ को थामकर
    वार पार तो कराओ .'
    - अश्रु वेदना को घोल के लिखेंगे ,
    एक बात जो कभी न हो पुरानी !

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  16. गहन भाव और अद्भुत सम्प्रेषण.

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  17. स्व से प्यार = स्वाभिमान .स्व यानि अपने होना .अपना अस्तित्वा या फिर सपूर्ण अस्तित्वा .समर्पण अभिमान का .और खोने तक विरह ब्यथा .भौतिक प्रतीकों का अत्यधिक भावपूर्ण चित्रण उस महाभाव के लिए.अद्भुत रचना .भाव को सिर्फ जिया ही जा सकता है .आपने शब्दों के देने की प्रयाश ,एक अमूर्त भाव को ब्यक्त करना .....इस कठिन प्रयाश के लिए शब्द तो नहीं पर आशीष तो अवश्य .

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  18. जबकि ऐसा अभिमान सिर तुम्हारे लिए है ... इसको तोड़ना अच्छा नहीं ... इसका मान रखना चाहिए ...
    यही तो प्रेम है ...

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  19. वाह!
    आपकी इस ख़ूबसूरत प्रविष्टि को कल दिनांक 24-09-2012 को सोमवारीय चर्चामंच-1012 पर लिंक किया जा रहा है। सादर सूचनार्थ

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  20. आपके पोस्ट पर जब भी आता हू। एक नए भाव से भरपूर कविता से परिचय होता है । आपकी कविता में जिस भाषिक मिजाज का दर्शन होता है,प्रशंसनीय है। मेरे नए पोस्ट 'प्रेम सरोवर' पर आपका इंतजार रहेगा। धन्यवाद।

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  21. बहुत ही सुन्दर कविता अमृता जी |

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  22. क्या लगता है तुम्हें ?
    कि अपनी सुगंध में
    मैं ही बहक जाउँगी
    तुम्हें ही भरमा कर
    और भड़क जाऊँगी ...

    तेरी ही परितप्ता मैं
    मुझे विचुम्बित करके
    गहरी वापिका में भी
    हाथ को थामकर
    वार पार तो कराओ .'

    अद्भुत है नारी मन के भावों का प्रस्तुतिकरण अमृता जी

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  23. तुमसे जो है
    मेरा स्वाभिमान
    उसकी तो
    हरसंभव लाज बचाओ...
    आखिर
    तेरी ही परितप्ता मैं
    मुझे विचुम्बित करके
    गहरी वापिका में भी
    हाथ को थामकर
    वार पार तो कराओ .

    स्वाभिमान समर्पण और अधिकार की त्रिवेणी अकेली नहीं हैं विरहणी.बढ़िया भाव व्यंजना .

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  24. तुमसे जो है
    मेरा स्वाभिमान
    उसकी तो
    हरसंभव लाज बचाओ...
    आखिर
    तेरी ही परितप्ता मैं
    मुझे विचुम्बित करके
    गहरी वापिका में भी
    हाथ को थामकर
    वार पार तो कराओ .

    स्वाभिमान समर्पण और अधिकार की त्रिवेणी अकेली नहीं हैं विरहणी.बढ़िया भाव व्यंजना .

    लिंक 15-
    परितप्ता मैं -अमृता तन्मय

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  25. तुमसे जो है मेरा स्वाभिमान !
    पूरी कविता इसमें ही सिमटी है !
    बहुत बढ़िया !

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  26. गहन भाव लिए उत्‍कृष्‍ट लेखन ।

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  27. मेरे स्वाभिमान को भी
    एकदम से तोड़ देते हो...
    जब वह
    किसी मदमायी कली से
    गदराया फूल बनने को
    आतुर होता है ........बहुत ही सुन्दर ।

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  28. बहुत ही सुंदर रचना है , बधाई |

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  29. गहरे भावों को व्यक्त करती
    बहुत ही बेहतरीन अभिव्यक्ति..
    :-)

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  30. गहन भावों की उत्कृष्ट अभिव्यक्ति..

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  31. भय की भांति ही साहस भी संक्रामक होता है। और परितप्ता होने के बावजूद उसके ही हाथों वापिका को पार करने का आह्वान संक्रामक है।

    संक्रामक इसलिए की उसके लाख प्रयत्नों के बाद भी जो ‘मैं’ है इस रचना का, उसके हाथों शिकस्त नहीं होता।

    हमें तब तक किसी अच्छे मौक़े का इल्म नहीं होता जब तक वह हमारे हाथों से निकल नहीं जाता। और इस रचना का ‘मैं’ उसे निकलने नहीं देना चाहता(ती)।

    अनुभूति की सघनता एवं संवेदना का संश्लिष्ट प्रभाव कविता की विशेषता है और यह विशेषता इसमें प्रयुक्त शब्दों के चयन से आई हैं जो प्रायः आज की कविताओं में देखने को नहीं मिलते।

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  32. भावनाओं की सशक्त अभिव्यक्ति के लिये बधाई,,, अमृता जी

    RECENT POST समय ठहर उस क्षण,है जाता,

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  33. सुन्दर भावाभिव्यक्ति.

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  34. मेरे अभिमान में तुम्हारे साथ होने का स्वाभिमान ही तो है | बहुत सुन्दर तरीके से संबंधों को आपस में पिरोती हुई रचना |

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  35. bahut hi bhavpurna abhivyakti..badhai

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