अदृश्य श्वासों का आना-जाना
अदम्य विचारों का ताना-बाना
अव्यक्त भावों का अकुलाना
बस इसको ही जीवन माना
जब जग से कुछ कहना चाहा
क्वारीं चुप्पियों के बोल न फूटे
बस घिघियाते ही रहे सारे स्वर
और विद्रोही बीज अंतर न टूटे
सुख-सपनों की नीलामी में
बिकती रही धीरज की पूंजी
जनम-जनम की जमा बिकी
और जुग-जुग की खोई कुंजी
खुशियों के बाजारों में बस
आंसुओं का व्यवसाय हुआ
उभरते रहे नासूर समय के
औ' दर्द बेबस असहाय हुआ
अब तो शाम है ढ़लने वाली
धुंधली-धुंधली सी छाया है
किंतु जीर्ण-जगत से फिर भी
क्यों नहीं छूटता माया है ?
अमरता की कैसी अभिलाषा ?
तिक्त सत्य क्यों झूठा लगता?
अनंत कामनाओं में ही जीना
क्यों बड़ा प्रीतिकर है लगता?
क्यों इतना अब रोना-गाना ?
क्या है वो जिसे खोना-पाना?
भूल-भुलैया में ऐसे भरमाना
बस हमने यही जीवन जाना .
दार्शनिक भाव लिए अति उत्तम सृजन प्रिय अमृता जी।
ReplyDeleteजीवन की रहस्यमयी पहेलियां अक्सर उलझाती हैं..
जीवन-मरण है सत्य शाश्वत
नश्वर जग,काया-माया छलना
जीव सूक्ष्म कठपुतली ब्रह्म के
हम जाने क्यूँ जीते जाते है?
.....
सस्नेह।
जब तक जाना जीवन जाना अब है जाना | लाजवाब |
ReplyDeleteऔर अमृता जी आपने तो पूरा का पूरा अंतर्मन कह डाला....
ReplyDeleteजब जग से कुछ कहना चाहा
क्वारीं चुप्पियों के बोल न फूटे
बस घिघियाते ही रहे सारे स्वर
और विद्रोही बीज अंतर न टूटे...वाह
आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 19-08-2021को चर्चा – 4,161 में दिया गया है।
ReplyDeleteआपकी उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ाएगी।
धन्यवाद सहित
दिलबागसिंह विर्क
जब जग से कुछ कहना चाहा
ReplyDeleteक्वारीं चुप्पियों के बोल न फूटे
बस घिघियाते ही रहे सारे स्वर
और विद्रोही बीज अंतर न टूटे...मन के किसी कोने में बैठे अपने से भाव लगे।
मुग्ध करता लाजवाब सृजन।
सादर
बहुत सुन्दर!
ReplyDeleteहर बन्द में जीवन की परिभाषाएँ मिलीं!
अब तो शाम है ढ़लने वाली धुंधली-धुंधली सी छाया है,
ReplyDeleteकिंतु जीर्ण-जगत से फिर भी क्यों नहीं छूटती माया है ?
:
यही प्रभु की लीला है !
अद्भुत है यह माया!
ReplyDeleteपता है जाना ही है यहाँ से,
पर चाहत है सत्ता यूं फैले कि
लगे बस सदा का ठिकाना है ।
बहुत सुंदर दर्शन शाश्वत सा।
यही तो जीवन है, तभी तो कवि कह गए हैं, माया महा ठगिनी हम जानी !
ReplyDelete
ReplyDeleteजी नमस्ते,
आपकी लिखी रचना शुक्रवार २० अगस्त २०२१ के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं।
सादर
धन्यवाद।
उम्दा भावाभिव्यक्ति
ReplyDeleteक्यों इतना अब रोना-गाना ?
ReplyDeleteक्या है वो जिसे खोना-पाना?
भूल-भुलैया में ऐसे भरमाना
बस हमने यही जीवन जाना .
विचारणीय .....
क्या रखा इस रोने गाने में
जीना तो है साँसों के आने जाने में
चुप्पी तोड़ भी दें तो कौन सुनने वाला
वक़्त बिताते मन को बहलाने में ।।
क्यों इतना अब रोना-गाना ?
ReplyDeleteक्या है वो जिसे खोना-पाना?
भूल-भुलैया में ऐसे भरमाना
बस हमने यही जीवन जाना .---जीवन पर दर्शन के भाव से लिखी गई रचना...। बहुत खूब। बधाई आपको।
शाश्वत चित्रण जीवन यात्रा का..मंत्रमुग्ध कर देती हैं आप सृजन में बहुआयामी रंगों की छटा बिखेर कर ।
ReplyDeleteसुख-सपनों की नीलामी में
ReplyDeleteबिकती रही धीरज की पूंजी
जनम-जनम की जमा बिकी
और जुग-जुग की खोई कुंजी
....जीवन की सच्चाई का सटीक चित्रण।
अब तो शाम है ढ़लने वाली
ReplyDeleteधुंधली-धुंधली सी छाया है
किंतु जीर्ण-जगत से फिर भी
क्यों नहीं छूटता माया है ?
जब माया को ही जीवन समझ बैठे हैं तो अब जीते जी माया का मोह छूटे कैसे...?
दार्शनिक भाव लिए बहुत ही लाजवाब सृजन।
बहुत अच्छी कविता।
ReplyDeleteजीवन का चित्र खड़ा कर दिया और फिर भी ये की जीवन है माया ...?
ReplyDeleteमाया तो हम हैं, सोच है, साँसें हैं, काया है ... आँखें बन्द तो टूटी माया फिर किसने क्या पाया ...