मुझे किसी ऊँचे मंच पर
यूँ ही खड़ा न कराओ
खड़ा कराओ भी तो चुप रहने के लिए
राजस्व से ही रिश्वत न धराओ ....
बड़ी मुश्किल में हूँ मैं
जबसे चींटियाँ लगातार
मेरी साँसों की सच्चाई पर संदेह कर रही है
मच्छड़ खून में ही विद्रोह ढूंढ़ रहे हैं
व मक्खियाँ मेरी आत्मा का पुचारा कर रही है
और कीड़े मेरी कट्टरता से पिल रहे हैं
तो भला चुप कैसे रहूँ ?
कैसे काले चश्मे की आड़ में
अपने अंधेपन को सार्वजनिक करूँ ?
या अपने होंठों को खींचकर
उस अहिंसक मुद्रा के नीचे
कैसे युद्धखोर भाषा को छिपा लूँ ?
अब मुझे किसी भी मंच से
कूटनीति के आदर्शों का
सुन्दर शब्दों में बचाव या समर्थन नहीं चाहिए
या हर मूढ़ता के मौके पर
बेवकूफी भरी हँसी नहीं चाहिए
बल्कि तंत्र-परम्परा के प्रभाव का
विश्लेष्ण करने की पूरी स्वतंत्रता चाहिए
केवल विश्लेष्ण ही नहीं
बल्कि परिवर्तन की पुकार चाहिए
और गुप्त-पेटियों से पुच्छल सरकार नहीं
बल्कि भीषण ललकार चाहिए ....
हाँ ! मुझे तो
दहाड़ता-चीग्घारता हुआ हरएक वोट चाहिए
या कहूँ तो केवल वोट ही नहीं
बल्कि हर मंच पर बदलाव का विस्फोट चाहिए
इसलिए मुझे तमाशा बनाकर
किसी मंच पर खड़ा न कराओ
यदि खड़ा कराओ भी तो
मूर्ति बने रहने के लिए रिश्वत न धराओ .
केवल विश्लेष्ण ही नहीं
ReplyDeleteबल्कि परिवर्तन की पुकार चाहिए
बेहद सशक्त भाव ....
आपकी इस प्रविष्टी की चर्चा शनिवार(18-5-2013) के चर्चा मंच पर भी है ।
ReplyDeleteसूचनार्थ!
सशक्त भाव से परिपूर्ण सार्थक रचना... ....
ReplyDeleteबहुत रोचक और प्रभावशील।
ReplyDeleteबल्कि हर मंच पर बदलाव का विस्फोट चाहिए....
ReplyDeleteअत्यंत प्रभावशाली ....!!अब reforms नहीं बल्कि revolution का समय आ गया है ....!!
everybody will agree with you,
Deleteप्रभावी ... परिवर्तन तो मांग रहा है वोटर आज ... रिश्वत नहीं मांग रहा ... जबकि जबरदस्ती उसे दी जा रही है रिश्वत ...
ReplyDeleteशाशक्त रचना..ऐसा लगा जैसे कविता नहीं ज्वालामुखी का लावा पढ़ रहा हूँ ..सादर बधायी
ReplyDeleteबढिया, बहुत सुंदर रचना
ReplyDeleteगुप्त-पेटियों से पुच्छल सरकार नहीं
ReplyDeleteबल्कि भीषण ललकार चाहिए ....सशक्त भावों द्वारा भावी सकारात्मक परिवर्तन हेतु प्रोत्साहित करती रचना।
you are abslutely correct,
DeleteYosu as poetess has done a marvelous work in infusing a hope for the sufferes.My ware to udm gratitude for your wonderful thoughts.
ReplyDeleteपरिवर्तन की पुकार हर कोने से उठ रही है..अब कुछ तो होने को है..इस बार लड़ाई निर्णायक होगी..
ReplyDeleteललकारती हुई जोशपूर्ण रचना ......अब तो कठपुतलियाँ बर्दाश्त नहीं होतीं.....
ReplyDeleteसार्थक और प्रभावशाली रचना...
ReplyDeleteअमृता जी आपकी प्रोफाइल में साफ़ तस्वीर देख बहुत अच्छा लगा ...!!कविताओं का सौंदर्य आपके चेहरे पर है ....!!
ReplyDelete...बल्कि भीषण ललकार चाहिए ...
ReplyDelete----------------------
प्रभावशाली, सशक्त व सार्थक पोस्ट ....
ReplyDeleteकेवल विश्लेष्ण ही नहीं
बल्कि परिवर्तन की पुकार चाहिए
और गुप्त-पेटियों से पुच्छल सरकार नहीं
बल्कि भीषण ललकार चाहिए ....
....आज की पुकार..बहुत प्रभावी अभिव्यक्ति..
सशक्त भाव , प्रभावशाली अभिव्यक्ति.
ReplyDeleteयही तो घोर दुःख की बात है. जो सीधे चलना चाहते हैं उसे लोग सीधा नहीं चलने देते हैं.
ReplyDeleteUmda Rachna
ReplyDeletesadar.
बहुत सुन्दर प्रस्तुति!
ReplyDeleteसाझा करने के लिए आभार!
बदलाव आएगा...
ReplyDeleteशुभकामनायें !!
परिवर्तन वक़्त की मांग है... सशक्त रचना
ReplyDeleteसशक्त आह्वान
ReplyDeleteबडी मुश्किल से एक साईट नेट की गति कम होने के बावजूद खुली भी तो आपकी कविता दहाडती-चिंघाडती स्कीन पर उभरने लगी। आवाहन, आक्रोश, विडंबना, विद्रोह और न जाने क्या-क्या? ऐसी आग अगर प्रत्येक वोटर दिल में पालेगा तो वर्तमान राजनीति जल-भूनकर राख होगी। गर्मी के बाद आए तूफानी बारिश और आंधी से बहकर जाएगी। कल्पना तो बहुत अच्छी है, इन सारी आंधी-तूफानों के बाद साफ-सूथरा, सुहावना, सुंदर, धुला हुआ, सबेरे-सबेरे नवीन दुल्हन के नहाए खूबसूरत चेहरे जैसा देश पवित्र लगेगा; पर फिलहाल तो सपना और कल्पना है। कारण हमारे देश की बेईमान जनता (वोटर) कौडियों में बेची जा रही है। राजनीति के लिए हजारों गंदी गालियां होठों पर आ रही पर ना भाई प्रकट मत हो, लगाम लगानी पडती है। पर आशा है देश करवट ले रहा है जरूर कुछ अच्छा दिखेगा। ईमानदार देसवासियों के सपने सच होंगे। आपकी कविता के माध्यम से कई पहलुओं पर प्रकाश पड सकता है।
ReplyDeleteगुप्त-पेटियों से पुच्छल सरकार नहीं
ReplyDeleteबल्कि भीषण ललकार चाहिए ...
परिवर्तन की पुकार देश के हर कोने से आ रही है पर होगा क्या वही ढाक
के तीन पात ।
मन के आक्रोश को बखूबी लिखा है ।
हाँ ! मुझे तो
ReplyDeleteदहाड़ता-चीग्घारता हुआ हरएक वोट चाहिए
या कहूँ तो केवल वोट ही नहीं
बल्कि हर मंच पर बदलाव का विस्फोट चाहिए
इसलिए मुझे तमाशा बनाकर
किसी मंच पर खड़ा न कराओ
यदि खड़ा कराओ भी तो
मूर्ति बने रहने के लिए रिश्वत न धराओ .
श्लेशार्थ लिए बेहतरीन राजनीतिक तंज व्यवस्था पर .कृपया -चिंघाड़े /चिंघाड़ना /चिंघाड़ता कर लें .
ॐ शान्ति .
परिवर्तन की मांग करती सुन्दर रचना !
ReplyDeleteअनुशरण कर मेरे ब्लॉग को अनुभव करे मेरी अनुभूति को
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अत्यंत शक्तिशाली आह्वान कर दिया आपने । जबरदस्त ।
ReplyDeleteलगता है राजनीति के कीड़ानिधियों ,वृश्चिक पतियों को आपने चुन चुनके बींधा हैं निधिकरुणा से क्षमा सहित जिनके पास न निधि है न करूणा न समदर्शी नेत्र .
ReplyDeleteवर्तमान तो यही कहता है
ReplyDeleteसटीक और सार्थक प्रस्तुति
बधाई
आग्रह है पढ़ें "बूंद-"
http://jyoti-khare.blogspot.in
bahut sahi...bahut strong kavita hai didi....!!
ReplyDeleteबहुत सुन्दर रचना .बधाई
ReplyDeleteबहुत ही उत्कृष्ट रचना.. बहुत बधाई आपको..
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