कुर्सियां है तब तो
व्यवस्था की बातें हैं
व हर दरवाजे पर
जोर की दस्तक है ...
पस्त-परेशान-सा
पसीना है
वातानुकूलित कमरे के
फर्श-कगारों पर
कैट-वॉक करती
चहलकदमियाँ हैं
रूम-फ्रेशनर सा
खुशबूदार बदलाव है...
उबासियाँ-जम्हाइयां तो
विश्वविद्यालयों से
बड़ी डिग्री पाने की
जुगत में हैं
और झपकियाँ
घड़ी की सुइयों की
रसबतिया में बीजी है...
कुर्सियां हैं तब तो
पायों में छिपी-सी
अराजकता भी है
टांगों के पीछे-नीचे
कबड्डी खेलती हुई
जिसे देखकर
झाड़-फ़ानूस से
झूलता हुआ युग
कल्पनाओं में उड़ता है
स्पाइडरमैन की तरह
और कुर्सियों से
जुते घोड़ें
हिनहिनाना छोड़कर
उन कौओं को
खोज रहे हैं
जिनके पास हैं
गिरवी बतौर
उनके कान .
कुर्सियां है तब तो... तथाकथित बदलाव की बयार है ... कुर्सियां है तब तो ... तमाम जद्दोजहद का कोरा भ्रम है ...कुर्सियां है तब तो .. माया का खूबसूरत कोलाज है ...
ReplyDeleteकुर्सियां है तब तो
ReplyDeleteव्यवस्था की बातें हैं
व हर दरवाजे पर
जोर की दस्तक है ...बहुत सुन्दर रचना
बिलकुल निराले अंदाज की कविता |भाषा की सहजता भी सराहनीय |
ReplyDeleteसीधे सरल भाषा में सराहनीय अभिव्यक्ति,,,,
ReplyDeleterecent post: कैसा,यह गणतंत्र हमारा,
behtreen rachna....
ReplyDeleteकुर्सियां हैं तब तो
ReplyDeleteपायों में छिपी-सी
अराजकता भी है
टांगों के पीछे-नीचे
कबड्डी खेलती हुई
सटीक व सुन्दर ...
कुर्सियों के पाये में छिपी ताकत..अपना अस्तित्व उसके तले..क्या करें जो दिल जले।
ReplyDeleteAmrita,
ReplyDeleteMUJHE LAGTAA HAI KI YEH AAJ KI RAJNEETIK PRASTHITI PAR VYANG HAI. SAHI LAGTAA HAI.
Take care
दमदार अभिव्यक्ति |
ReplyDeleteविचार कविता की सांद्रता और अ -कविता सा बिखराव ,राजनीति की झर्बेरियाँ सब कुछ एक साथ है इस रचना में .अ -सम्बद्धता में तारतम्य सा है .
ReplyDeleteनि कुर्सिए .....
ReplyDeleteकुर्सियां हैं तब तो
ReplyDeleteपायों में छिपी-सी
अराजकता भी है
टांगों के पीछे-नीचे
कबड्डी खेलती हुई
वाह....
आपकी शब्दों की जादूगरी की कायल हूँ...
अनु
और कुर्सियों से
ReplyDeleteजुते घोड़ें
हिनहिनाना छोड़कर
उन कौओं को
खोज रहे हैं
जिनके पास हैं
गिरवी बतौर
उनके कान .
- बहुत सार्थक प्रयोग !
बहुत अच्छा लिखती हैं आप. शब्द ताज़ी हवा के झोंके की तरह मन ताज़ा कर देते हैं. रसबतिया प्रयोग बहुत अच्छा लगा.
ReplyDeleteवाह अमृताजी ,
ReplyDeleteआप की सोच और कल्पना को शब्दों का माध्यम बना कर हमेशा ही एक नए रूप में उतार पाने की आपका अंदाज ही निराला है .हर बार की तरह यह ब्यंग एक बार फिर से आज के समाज की विसंग तियो की ओरयात्रा कराती प्रतीत होती है.बधाई .
कटाक्ष,हास्य,दुःख से भरी परिस्थिति
ReplyDeleteउबासियाँ-जम्हाइयां तो
ReplyDeleteविश्वविद्यालयों से
बड़ी डिग्री पाने की
जुगत में हैं
और झपकियाँ
घड़ी की सुइयों की
रसबतिया में बीजी है...
वाह ...सुन्दर शब्द विन्यास ...बहुत सार्थक रचना ...बहुत बहुत बधाई स्वीकार करें।
कविता में सर्वथा नवीन प्रतीकों का प्रयोग उसके सौंदर्य में वृद्धि कर रहा है।
ReplyDeleteजिनके पास कुर्सियां नहीं हैं..वे उन्हें पाने की फ़िराक में हैं..
ReplyDeleteउबासियाँ-जम्हाइयां तो
ReplyDeleteविश्वविद्यालयों से
बड़ी डिग्री पाने की
जुगत में हैं
कितना सत्य ...और कितने प्रबल भाव ...
मानना पड़ेगा ...अमृता जी आपके व्यापक दृष्टिकोण को .....
कुर्सियां है तब तो
ReplyDeleteव्यवस्था की बातें हैं
व हर दरवाजे पर
जोर की दस्तक है ...
बहुत सही कहा आपने
दमदार अभिव्यक्ति
राजनितिक अव्यवस्था पर कटाछ करती
ReplyDeleteबेहतरीन रचना..परिस्थिति भी यही है...
सार्थक प्रयत्न से दमदार प्रस्तुति. आज की व्यवस्था पर बेहतरीन कटाक्ष.
ReplyDeleteजवाब नहीं आपके शब्दों का जादूगरी है... सटीक अभिव्यक्ति...
ReplyDeleteकुर्सियां हैं तब तो
ReplyDeleteपायों में छिपी-सी
अराजकता भी है
टांगों के पीछे-नीचे
कबड्डी खेलती हुई
ज़बरदस्त कटाक्ष ....
वातानुकूलित कमरे के
ReplyDeleteफर्श-कगारों पर
कैट-वॉक करती
चहलकदमियाँ हैं
रूम-फ्रेशनर सा
खुशबूदार बदलाव है...
सचमुच खुशबूदार बदलाव है
bahut sundar abhivyaktie, aam shabdon k vishesh vyanjanatmak prayog unhe alag mayne de rahe hain, kataksh bahut umda hai!
ReplyDelete:)
ReplyDeleteव्यवस्था का यह आलम और आपकी कविता ....!
ReplyDeleteएक बार और पढ़ूंगा, तब उपयुक्त टिप्पणी कर पाऊंगा। अभी तो इतना समझा कि परदे के पीछे भयंकर खेल हो रहे हैं।
ReplyDeleteसुन्दर अभिव्यक्ति .......
ReplyDeleteआज की राजनीति पे करार प्रहार ...
ReplyDeleteविश्वविद्यालयों से
ReplyDeleteबड़ी डिग्री पाने की
जुगत में हैं
और झपकियाँ
घड़ी की सुइयों की
रसबतिया में बीजी है...
कुर्सियां हैं तब तो
पायों में छिपी-सी
अराजकता भी है
टांगों के पीछे-नीचे
कबड्डी खेलती हुई
क्या बात है अमृता जी ...
सुन्दर अभिव्यक्ति
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