कुछ कह नहीं सकती यह कि
ह्रदय की जीत है या हार है
ये पीड़ा है मुझे बड़ी प्रिय
जो प्रेम का ही आभार है
आभार इतना कि हर भार से
अतिगत ही जैसे अछूती हूँ
अछूती-अछूती ही हरपल
प्रिय को ऐसे मैं छूती हूँ
वह अलबेला कितना अनछुआ
छू-छू कर अब मैंने जाना है
पाया-पाया सा है लगता
पर उतना ही उसे पाना है
कुछ कह नहीं सकती यह कि
पाकर भी उसे पा ही लूँगी
जो पा भी लिया उसे तो
सबसे मैं तो छिपा ही दूँगी
उस अनजाने-अनपहचाने को
अनजाने में ऐसे जान लिया है
प्रीति लगी बस उस नाम की
जो इतना मैंने नाम लिया है
अब वही नाम इक गीत बन
इन साँसों से बस टकराता रहे
और उखड़ी-उखड़ी धड़कन को
इक विरह-धुन पकड़ाता रहे
कुछ कह नहीं सकती यह कि
यही धुन उसने भी गाया होगा
मतवाली-मतवाली फिरती देख
मुझपर उसका मन आया होगा
अभी उसे तो देखा भी नहीं है
जो मिले भी तो मैं पहचानूँ ना
बस प्रीति लगी है उस नाम की
कैसे लगी यह भी मैं जानूँ ना
बस जानने से जी भरता नहीं
जान-जान कर मैंने जाना है
वह अनजान रहे तब भी उसे
इन साँसों का अर्घ चढ़ाना है
कुछ कह नहीं सकती यह कि
ये अर्घ है या अलख प्रतिकार है
ये पीड़ा है मुझे बड़ी प्रिय
जो प्रेम का ही आभार है .
कुछ कह नहीं सकती यह कि
ReplyDeleteयही धुन उसने भी गाया होगा
संशयात्मा को सुख नहीं -यह गीता में श्रीकृष्ण ने कहा है :-)
भगवन श्री कृष्णा ने मोहविस्ट अर्जुन को कर्म और अकर्म में की विवेचना करते हुए क्षत्रिय धर्म की पालन की आज्ञा देते हुए संसय से मुक्त होने की उपदेश देते है.पर आप जैसे बिद्वान लोगों से ऐसी ब्याख्या अटपटी सी लगी .कविता की आत्मा प्रेम और समर्पण की है .यंहा संसय तो होता नहीं होता है समर्पण और विरह की बेदन.होती है .इतनी गहरे भावों को तो सिर्फ बिम्बित ही किया जा सकता है .अनुभूट किया जा सकता है.शब्द तो सिर्फ इंगित करते है.आप के द्वरा संसय जैसे शब्द हम पाठकों को संसय में ही डाल देते है.सोचने पर विवश होना पड़ता है की संसय किसे है.
Deleteदिल को छू हर एक पंक्ति....
ReplyDeleteबहुत खूबसूरत कविता. प्रेमसिक्त शब्द.
ReplyDeleteबढ़िया है आदरेया -
ReplyDeleteशुभकामनायें ।।
शब्द में घुलता शब्द ...
ReplyDeleteबहुत सुंदर प्रेम गीत ...
ReplyDeleteप्रेम की पीड़ा भी विशेष है..
ReplyDeleteAmrita,
ReplyDeleteSACHE PREM KI KOI SEEMA NAHIN AUR NAA HI KOI BANDISH.
Take care
बहुत सुन्दर गीत अमृता जी...
ReplyDeleteवह अलबेला कितना अनछुआ
छू-छू कर अब मैंने जाना है
पाया-पाया सा है लगता
पर उतना ही उसे पाना है...
मन प्रसन्न हुआ...
अनु
बस जानने से जी भरता नहीं
ReplyDeleteजान-जान कर मैंने जाना है
वह अनजान रहे तब भी उसे
इन साँसों का अर्घ चढ़ाना है
कुछ कह नहीं सकती यह कि
ये अर्घ है या अलख प्रतिकार है
ये पीड़ा है मुझे बड़ी प्रिय
जो प्रेम का ही आभार है .
दिल की गहराई तक जाती पंक्तियाँ
ये पीड़ा है मुझे बड़ी प्रिय
ReplyDeleteजो प्रेम का ही आभार है
प्रेम में मिली पीड़ा भी अनमोल..... बहुत सुंदर
सच्चे प्रेम के लिए कोई बंधन नहीं,न ही कोई सीमा होती है,,,
ReplyDeleterecent post: कैसा,यह गणतंत्र हमारा,
वाह!
ReplyDeleteआपकी यह प्रविष्टि आज दिनांक 28-01-2013 को चर्चामंच-1138 पर लिंक की जा रही है। सादर सूचनार्थ
मैं नीर भरी दुख की बदली !
ReplyDeleteप्रेम के गहरे सागर में डूबने का अपना ही मज़ा है | बहुत सुन्दर रचना | एक एक पंक्ति अपने आप में प्रेम की पराकाष्ठा बयां करती है | आभार |
ReplyDeleteTamasha-E-Zindagi
Tamashaezindagi FB Page
सच्ची लगन और अद्भुत समर्पण भाव .....बहुत सुंदर कविता ...अमृता जी ...!!
ReplyDelete
ReplyDeleteप्रेम की पीर असली पीर होती है मीरा भाव लिए है रचना। एरी मैं तो प्रेम दीवानी ...अमूर्त प्रेम का सान्द्र रूप लिए है रचना .आभार .
प्रेम का आधार प्रेम का आभार - प्रेम है तो सबकुछ है
ReplyDeleteइतना ही कह सकती हूँ कि
ReplyDeleteह्रदय की हार में भी जीत है
मीठी - मीठी सी पीड़ा है
यही प्रेम का आधार है...लाजवाब अभिव्यक्ति...आभार...
कुछ कह नहीं सकती यह कि
ReplyDeleteये अर्घ है या अलख प्रतिकार है
waah..sundar abhivyakti...bahut khoob.
निरुपमा ...
ReplyDeleteकवि लिखता है तो कितने भावों को पिरो कर , पाठक आता है और एक सरसरी निगाह से देख कर निकल जाता है
ReplyDeleteकुछ कह नहीं सकती यह कि
ReplyDeleteयही धुन उसने भी गाया होगा
मतवाली-मतवाली फिरती देख
मुझपर उसका मन आया होगा।
मधुर भावों से सिंचित आपकी यह रचना बहुत ही अच्छी लगी। धन्यवाद।
कुछ मीरा की पीड़ा कुछ मिरा का प्रेम दिखा।
ReplyDeleteशुक्रिया आपकी अनमोल टिपण्णी का .
ReplyDeleteअमूर्त प्रेम का आधारीय आकर्षण आबिद्ध है इस रचना में .सुन्दर आकर्षक मोहक प्रस्तुति .
@
ReplyDeleteकुछ कह नहीं सकती यह कि
यही धुन उसने भी गाया होगा
मतवाली-मतवाली फिरती देख
मुझपर उसका मन आया होगा
वाह ....
बड़ी प्यारी रचना
meera ke priy shyam....! thik vaisee hi preet, vaisa hi prem vaisa hi vishvaas aur vaisa hi virah!! bahut sundar!!
ReplyDeleteआभार इतना कि हर भार से
ReplyDeleteअतिगत ही जैसे अछूती हूँ
अछूती-अछूती ही हरपल
प्रिय को ऐसे मैं छूती हूँ
वह सदा अनछुआ ही रह जाता है.. सुंदर शब्द..कोमल भाव..
वाह . बहुत सुन्दर . हार्दिक आभार आपका .
ReplyDeleteअभी उसे तो देखा भी नहीं है
ReplyDeleteजो मिले भी तो मैं पहचानूँ ना
बस प्रीति लगी है उस नाम की
कैसे लगी यह भी मैं जानूँ ना
Ati Sundar Kriti.. Badhai..
प्यारी रचना बहुत ही अच्छी लगी
ReplyDeleteये पीड़ा है मुझे बड़ी प्रिय
जो प्रेम का ही आभार है .
अंतस को छूते अहसास..बहुत सुन्दर
ReplyDeleteकुछ कह नहीं सकती यह कि
ReplyDeleteपाकर भी उसे पा ही लूँगी
जो पा भी लिया उसे तो
सबसे मैं तो छिपा ही दूँगी
तुम उसे यूँ छुपा न पाओगे......बड़ी दूर तक महक पहुँचती है उसकी :-)
पीड़ा है मुझे बड़ी प्रिय
ReplyDeleteजो प्रेम का ही आभार है ....वाह!
कुछ कह नहीं सकती यह कि
ReplyDeleteये अर्घ है या अलख प्रतिकार है
ये पीड़ा है मुझे बड़ी प्रिय
जो प्रेम का ही आभार है .
क्या बात है ... सच में कभी कभी समजना मुश्किल होता है ...
अभी उसे तो देखा भी नहीं है
ReplyDeleteजो मिले भी तो मैं पहचानूँ ना
बस प्रीति लगी है उस नाम की
कैसे लगी यह भी मैं जानूँ ना
कुछ कह नहीं सकती यह कि
ये अर्घ है या अलख प्रतिकार है
ये पीड़ा है मुझे बड़ी प्रिय
जो प्रेम का ही आभार है .
वाह बहुत बढ़िया