एक छोटी-सी
कोठरी का अँधेरा
देखो कैसे
बाहर निकल आया है
जैसे ही
कोई जलता दीया
इस बुझे दीये के
बेहद करीब आया है ...
एक गहरे-काले
घोल की-सी रात
दहककर
पिघलने लगी है
जिसमें
एक स्वप्नातीत
स्वरुपातीत-सी
गहरी नींद
स्तब्धता में भी
जगने लगी है
और
एक चिर-संचित
सुशोभित,सुसज्जित
मेरी प्रतिमा सी-ही
मुझमें ही कुछ
ऐसे ढहने लगी है ...
मानो
सहसा हाथ बढ़ाकर
कोई खींच लिया है
गले लगाकर मुझे
कसकर भींच लिया है ...
वही
लावा-सा बहकर
मेरे शिराओं में
ऐसे भीग रहा है ...
देखो न मुझे
मेरा रोम-रोम भी
उसी में
कैसे सीझ रहा है .
देखो न
ReplyDeleteदूब की हथेलियों पर
आकाशगंगा उमड़ रहा है
उसी में घुप अँधेरा
पिघल रहा है .....
जीवन के कृष्ण पक्ष से शुक्ल पक्ष की ओर ,अन्धकार से प्रकाश की ओर .......विचार और भाव की सशक्त रूपकात्मक अभिव्यक्ति हुई है इस रचना में .आपकी ताज़ा टिपण्णी के लिए आभार .
ReplyDeleteआपकी इस कविता की भावनाओं से मई भी सहमत हूँ .मै जितना भी ब्लॉग की कविताओं को देखा है मुझे लगता है की जिस अध्यात्मिक स्तर की चित्रण अमृता जी कर रही है वह पुरे मानव समाज की एक अनबुझ भूख जो लगातार ही स्थूल को माध्यम बना कर सूक्ष्म की ओर अग्रसर होना चाहती है उसका सटीक निर्देश करती प्रतीत होती है..मानव मन की भूख ही आनंद पाने की है.और सिर्फ स्थूल की चाहत तो दुःख ही सृजन करती है.
Deleteकविता मन को छू गयी है..
ReplyDeleteकविता बहुत ही मर्मस्पर्शी और सुन्दर है |आभार
ReplyDeleteनिःशब्द !
ReplyDeleteAmrita,
ReplyDeleteKISI CHAHAT PAANE PAR MAN MEIN GOOMTHE VICHAAR SAHI KAHE.
Take care
आपकी इस उत्कृष्ट पोस्ट की चर्चा बुधवार (23-01-13) के चर्चा मंच पर भी है | अवश्य पधारें |
ReplyDeleteसूचनार्थ |
बहुत सुन्दर भाव..
ReplyDeleteकविता एक से अधिक बार पढ़ गया .. अच्छी लगी।
ReplyDeleteसहसा हाथ बढ़ाकर
ReplyDeleteकोई खींच लिया है
गले लगाकर मुझे
कसकर भींच लिया है ...
वही
लावा-सा बहकर
मेरे शिराओं में
ऐसे भीग रहा है ...
देखो न मुझे
मेरा रोम-रोम भी
उसी में
कैसे सीझ रहा है
सुंदर भाव
अच्छी रचना
गहरी बात ....... हृदयस्पर्शी
ReplyDeleteबहुत सुन्दर भावप्रणव प्रस्तुति!
ReplyDeleteअति सुन्दर , शब्द नहीं मिलते अब .
ReplyDeleteअमृताजी आपकी हर रचना ...एक जीवन दर्शन लगती है ...करीब से देखा हुआ.....छुआ हुआ ....साभार ..!
ReplyDeleteबहुत गहन भाव लिए सुन्दर पोस्ट।
ReplyDeleteवाह बहुत खूब
ReplyDeleteएक स्वप्नातीत
ReplyDeleteस्वरुपातीत-सी
गहरी नींद
स्तब्धता में भी
जगने लगी है
और
एक चिर-संचित
सुशोभित,सुसज्जित
मेरी प्रतिमा सी-ही
मुझमें ही कुछ
ऐसे ढहने लगी है ...
सचमुच तारीफ के लिए शब्द नहीं हैं अमृता जी... लाज़वाब
बहुत सुंदर अमृता जी..किसी के जले हुए दीप से ही भीतर प्रकाश होता है..
ReplyDeleteकोमल और हृदयगम्य प्रस्तुति..
ReplyDeleteसदैव की तरह एक गहन और उत्कृष्ट रचना...
ReplyDeleteएक छोटी-सी
ReplyDeleteकोठरी का अँधेरा
देखो कैसे
बाहर निकल आया है
जैसे ही
कोई जलता दीया
इस बुझे दीये के
बेहद करीब आया है ...
bahut khoob
निशब्द करती लाजबाब अभिव्यक्ति,,,,अमृता जी,,,
ReplyDeleterecent post: गुलामी का असर,,,
आतंरिक सेरिनेड सी सुन्दर रचना।
ReplyDeleteबहुत दिनो बाद पढ़ रहा आपकी रचना...कुछ भी नहीं पढ़ पाया इस बीच में...किसी की भी नहीं .....आपकी लेखनी जीवंत होती हैं...और लगातार ऐसी सुंदर चीवन्त और समयानुकूल रचनाओ की प्रखरता आपके कृतित्व को उद्भाषित करती हैं....परिकल्पनाएँ जहां सजीव हो जाती....वहीं से कलम लेखनी को ले जीवित हो उठता है....तारीफ के शब्द शायद मिल नहीं रहे....पर इतना ही कह सकता हिन हूँ...की निःशब्द हूँ....बेहद सुंदर और प्रभावी लेखन....
ReplyDeletekya kahun di..awesome!
ReplyDeleteवाह सुंदर
ReplyDeletesunder prastuti.
ReplyDeleteलावा-सा बहकर
ReplyDeleteमेरे शिराओं में
ऐसे भीग रहा है ...
देखो न मुझे
मेरा रोम-रोम भी
उसी में
कैसे सीझ रहा है .
सशक्त रचना.
६४ वें गणतंत्र दिवस पर बधाइयाँ और शुभकामनायें.
बेहद सुन्दर।
ReplyDeleteबहुत सुन्दर भावों की सशक्त रचना
ReplyDeleteप्रिय अमृता,
ReplyDeleteआप का ब्लोग AmritaTanmay.blogspot.co.uk पढा अच्छा लगा। अगर आप को कहानियाँ और लेख पढ़ना अच्छा लगता हो तो जरा मेरे ब्लोग 'Unwarat .com पर जाइये।आप को अच्छा लगेगा। मैने कई साल तक हिन्दी की अध्यक्षा के रूप में काम किया। इसी लिये आप के नाम के नीचे पटना लिखा देख कर मेरी कुछ पुरानी यादे उजागर हो गईं। सच में अध्यापन कार्य का अपना ही मजा है।लेख व कहानियाँ पढ़ने के अपने विचार अवश्य लिखना
विन्नी,