Social:

Sunday, September 1, 2013

तब-तब मैं पढ़ ली जाऊँगी ...

जब-जब
ओस की बूँदें बेचैन होंगी
घास के मुरझाये पत्तों पर ढरकने को
धीरे से धरती भी छलक कर उड़ेल देगी
भींगा-भींगा सा अपना आशीर्वाद
और बूँदों के रोम-रोम से
घास का पोर-पोर रच जाएगा
हरियाली की कविता से
तब-तब मैं पढ़ ली जाऊँगी
उन तृप्ति की तारों में

जब-जब
आखिरी किरणों से
सफ़ेद बदलियों पर बुना जाएगा
रंग-बिरंगा ताना-बाना
उसमें घुलकर फ़ैल जाएगा
कुछ और , कुछ और रंग
हौले से आकाश भी उतरकर
मिला देगा अपनी सुगंध
उन रंगों की कविता में
तब-तब मैं पढ़ ली जाऊँगी
हर किरण की कतारों में

जब-जब
आनंद की ओर
उचक-उचक कर झाँकते
किसी की प्रतीक्षा में खड़े दो नयन
अपनी सारी धूलिकण को बहाकर
तारों से आती आशा के सन्देश को
कोने-कोने की किलकारी बनायेंगे
और एक प्रार्थना बिखरने लगेगी
कण-कण की कविता से
तब-तब मैं पढ़ ली जाऊँगी
हर आश्चर्य की पुकारों में

जब-जब
हवाओं की छन्दों को
छू-छू कर बेसुध राग फूटेंगे
जिसपर जग-साँसें गीत गायेंगी
थिरक उठेगा ये जीवन
अपने ही उल्लास से भरकर
एक लय की कविता में
तब-तब मैं पढ़ ली जाऊँगी
निर्झर-सी झनकारों में

इस धरती से उस आकाश तक
मैं ही लिखी जाती हूँ
और मैं ही पढ़ी जाती हूँ....
इस छोर से उस छोर तक की
एक उन्मुक्त उद्गारा हूँ मैं
हाँ! कल-कल-कल-कल करती हुई
अनंत की अनवरत काव्य-धारा हूँ मैं .

35 comments:

  1. आकाश की किरण, प्रार्थना की किलकारी, हवा का राग, उन्‍मुक्‍त उद्गारा यह अनन्‍त अनवरत् काव्‍यधारा............लगता है पाठक इस में जल बन बह रहा है शान्‍त-सुशील।

    ReplyDelete
  2. कविता की सर्वव्य्पकता, कण कण में रची बसी कविता , प्रकृति के हर रूप में हर स्वरूप में ,जितनी तारीफ की जाए कम है ...हार्दिक बधाई के साथ

    ReplyDelete
  3. इस छोर से उस छोर तक की
    एक उन्मुक्त उद्गारा हूँ मैं
    हाँ! कल-कल-कल-कल करती हुई
    अनंत की अनवरत काव्य-धारा हूँ मैं,,,

    बहुत उम्दा प्रस्तुति,,,

    RECENT POST : फूल बिछा न सको

    ReplyDelete
  4. सृजन के स्वर सदा ही पूजे जाते हैं।

    ReplyDelete
  5. SO NICE LINES WITH GREAT AND DEEP EMOTIONS BLENDED WITH NATURAL LAW

    ReplyDelete
  6. इस धरती से उस आकाश तक
    मैं ही लिखी जाती हूँ
    और मैं ही पढ़ी जाती हूँ....
    इस छोर से उस छोर तक की
    एक उन्मुक्त उद्गारा हूँ मैं
    हाँ! कल-कल-कल-कल करती हुई
    अनंत की अनवरत काव्य-धारा हूँ मैं .

    बहुत ही प्रभावशाली रचना, शुभकामनाएं.

    रामराम.

    ReplyDelete
  7. कविता आपसे वैसे ही मिलती है,
    जैसे ख्वाब देखने के बाद
    जिन्दगी को हकीकत मिलती है ..

    ReplyDelete
  8. अमृता जी बहुत बढ़िया रचना...

    ReplyDelete
  9. कविता का पूरा मूड सुकून से भरा है, एक सुकून भरी दुनिया में ले जाने वाली कविता

    ReplyDelete
  10. रचनाओं की मौलिकता, भाव त्वरण, शब्द युग्मों की मनभावन लड़ियाँ और उससे भी ज्यादा उनका विस्तृत फलक कुछ ऐसी चीजें है जो आपकी कविताओं में अनूठापन प्रदान करती हैं. निस्संदेह समय साक्षी होगा आपको बार-बार पढ़े जाने का. बहुत-बहुत धन्यवाद और शुभकामनयें आपकी रचनाओं के लिए.

    ReplyDelete
  11. बहुत सुन्दर प्रस्तुति.. आपको सूचित करते हुए हर्ष हो रहा है कि आपकी पोस्ट हिंदी ब्लॉग समूह में सामिल की गयी और आप की इस प्रविष्टि की चर्चा - सोमवार -02/09/2013 को
    मैंने तो अपनी भाषा को प्यार किया है - हिंदी ब्लॉग समूह चर्चा-अंकः11 पर लिंक की गयी है , ताकि अधिक से अधिक लोग आपकी रचना पढ़ सकें . कृपया आप भी पधारें, सादर .... Darshan jangra




    ReplyDelete
  12. तारों से आती आशा के सन्देश को
    कोने-कोने की किलकारी बनायेंगे
    और एक प्रार्थना बिखरने लगेगी
    कण-कण की कविता से
    तब-तब मैं पढ़ ली जाऊँगी

    बहुत सुन्दर हमेशा की तरह

    ReplyDelete
  13. जब-जब
    हवाओं की छन्दों को
    छू-छू कर बेसुध राग फूटेंगे
    जिसपर जग-साँसें गीत गायेंगी
    थिरक उठेगा ये जीवन
    अपने ही उल्लास से भरकर
    एक लय की कविता में
    तब-तब मैं पढ़ ली जाऊँगी
    निर्झर-सी झनकारों में

    वाह बहुत सुंदर ,

    ReplyDelete
  14. सच कहा तुमने और इसीलिए नहीं रहता यह ध्यान -

    सत्य ही रहता नहीं ये ध्यान ,

    तुम कविता ,कुसुम या कामिनी हो।

    इस धरती से उस आकाश तक
    मैं ही लिखी जाती हूँ
    और मैं ही पढ़ी जाती हूँ....
    इस छोर से उस छोर तक की
    एक उन्मुक्त उद्गारा हूँ मैं
    हाँ! कल-कल-कल-कल करती हुई
    अनंत की अनवरत काव्य-धारा हूँ मैं .

    ReplyDelete
  15. कितना सुन्दर चित्रण है उस चिन्मयता का जो प्रकृति की ताल और लय में व्यक्त होती और काव्य में मुखर हो उठती है !

    ReplyDelete
  16. इस धरती से उस आकाश तक
    मैं ही लिखी जाती हूँ
    और मैं ही पढ़ी जाती हूँ....
    इस छोर से उस छोर तक की
    एक उन्मुक्त उद्गारा हूँ मैं
    हाँ! कल-कल-कल-कल करती हुई
    अनंत की अनवरत काव्य-धारा हूँ मैं .
    बहुत सुन्दर.
    कोलाज जिन्दगी के : अगर हम जिन्दगी को गौर से देखें तो यह एक कोलाज की तरह ही है. अच्छे -बुरे लोगों का साथ ,खुशनुमा और दुखभरे समय के रंग,और भी बहुत कुछ जो सब एक साथ ही चलता रहता है.
    http://dehatrkj.blogspot.in/2013/09/blog-post.html

    ReplyDelete
  17. कण कण में व्याप्त कविता ... बहुत सुंदर

    ReplyDelete
  18. असाधारण बिंबों के माध्यम से कही गई अनंत काव्य-धारा की सुरीली कथा.

    ReplyDelete
  19. जब-जब
    हवाओं की छन्दों को
    छू-छू कर बेसुध राग फूटेंगे
    जिसपर जग-साँसें गीत गायेंगी
    थिरक उठेगा ये जीवन
    अपने ही उल्लास से भरकर
    एक लय की कविता में
    तब-तब मैं पढ़ ली जाऊँगी
    निर्झर-सी झनकारों में

    अद्भुत अमृता जी, बहुत गहन और सुंदर भाव कुसुम..बधाई !

    ReplyDelete
  20. इस धरती से उस आकाश तक
    मैं ही लिखी जाती हूँ
    और मैं ही पढ़ी जाती हूँ....
    इस छोर से उस छोर तक की
    एक उन्मुक्त उद्गारा हूँ मैं
    हाँ! कल-कल-कल-कल करती हुई
    अनंत की अनवरत काव्य-धारा हूँ मैं .
    ..बहुत खुबसूरत भाव
    latest post नसीहत

    ReplyDelete
  21. इस धरती से उस आकाश तक
    मैं ही लिखी जाती हूँ
    और मैं ही पढ़ी जाती हूँ....
    इस छोर से उस छोर तक की
    एक उन्मुक्त उद्गारा हूँ मैं
    हाँ! कल-कल-कल-कल करती हुई
    अनंत की अनवरत काव्य-धारा हूँ मैं ...

    मैं प्राकृति हूं ... प्रेम हूं ... शब्द हूं ... नाद हूं ... मैं ही हूं वो माया जो साब ओर है ... अनुपम रचना ...

    ReplyDelete
  22. नमस्कार आपकी यह रचना कल मंगलवार (03-09-2013) को ब्लॉग प्रसारण पर लिंक की गई है कृपया पधारें.

    ReplyDelete
  23. सृजन महत्ता और सार्थकता बताती बेजोड़ अभिव्यक्ति....

    ReplyDelete
  24. अत्यन्त सुंदर ,रचना ,असीम अनंत दायरा ....अदभुत |
    नई पोस्ट-“जिम्मेदारियाँ..................... हैं ! तेरी मेहरबानियाँ....."

    ReplyDelete
  25. इस छोर से उस छोर तक की
    एक उन्मुक्त उद्गारा हूँ मैं
    हाँ! कल-कल-कल-कल करती हुई
    अनंत की अनवरत काव्य-धारा हूँ मैं,,,बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति....

    ReplyDelete
  26. इस धरती से उस आकाश तक
    मैं ही लिखी जाती हूँ
    और मैं ही पढ़ी जाती हूँ....
    इस छोर से उस छोर तक की
    एक उन्मुक्त उद्गारा हूँ मैं
    हाँ! कल-कल-कल-कल करती हुई
    अनंत की अनवरत काव्य-धारा हूँ मैं .

    एक-एक पंक्ति गहन भाव लिये हुए हैं
    और खुद के प्रति आदरांजलि अर्पित करती प्रतीत होती हैं।।।

    ReplyDelete
  27. एक लय की कविता में
    तब-तब मैं पढ़ ली जाऊँगी

    वाह ...

    ReplyDelete
  28. मन को सहलाती ...उन्मुक्त .....पहाड़ों से कल-कल करती नदी सी रचना
    .....बहुत ही प्यारी

    ReplyDelete
  29. प्रकृति की लय ताल से सम बैठाती एक सुकोमल अभिव्यक्ति

    ReplyDelete
  30. इस धरती से उस आकाश तक
    मैं ही लिखी जाती हूँ
    और मैं ही पढ़ी जाती हूँ....
    इस छोर से उस छोर तक की
    एक उन्मुक्त उद्गारा हूँ मैं
    हाँ! कल-कल-कल-कल करती हुई
    अनंत की अनवरत काव्य-धारा हूँ मैं .

    Waaaaaaaaah.

    ReplyDelete
  31. बेहतरीन काव्य-धारा के प्रवाह में समूची प्रकृति उतर आई है. दोहराव की सुंदर उपमा है....लिखे और पढ़े जाने के संदर्भ में.

    ReplyDelete
  32. kavita ka aapne bhut achha varnan kiya hai

    ReplyDelete