प्रेम कलह के इस रुत में
मधुर , तिक्त , अगन अहुत में
नियति ने ही जलाया है तो
मेरे प्यारे परदेशी पिया !
भलमानसता से , नेम निष्ठा से
मिलन रुत आने तक
निजदेशी हो , परदेश ही रहना
हाँ ! वर्णज्वर मैं सहती हूँ
वर्णज्वर तुम भी सहना !
आते भी तो , दीर्घ कचोट कलह से
जानी-बूझी , सोची-समझी , अलह से
तुमसे न बोलती-बतियाती
अनदेखा कर के , सारा प्रणय उपक्रम
भीतर ही रिझती , सिझती और तुम्हें खीझाती
पर न तुम्हारा , कोई पुचकारी पतियाती
मुँह फुलाये , भौं चढ़ाए , लट बिखराये
सोई रहती , उस ऊँची अटारी
और तुम , लाख मान-मनौव्वल , करके न थकते
किंतु ! मैं कल कलही , रार ठानकर
प्रेम मिलन के , उस रुत में भी , खोलती नहीं
अपने रंग महल का , कोई किवाड़ी
प्रेम कलह के इस रुत में
पल-पल , कलकल , लगन आयुत में
हास-उपहास , राग-उपराग हुआ है
कल्प कलेवरों का , खेल-खिलौना
जैसे कनखी ही कनखी में
हो रहा हो , कोई नेही टोटका-टोना
या चहुंओर एक-दूजे का , हो खुला आमंत्रण
या मोहन-सम्मोहन का , हो जंतर-मंतर
या कि कर गया हो कोई , विवश-सा वशीकरण
मुझ पर भी , छाया भरम या कि खुमारी है
या कि बहकी-बहकी बातें , मेरी लाचारी है
जबसे पिया तुम परदेशी हुए
तबसे क्यों लगता है मुझको ?
कि नित प्रात से , लड़ती रहती रात है
हो न हो , कहीं मेरी ही कोई बात हो
तब तो पपीहों का , यूँ बदला-सा गान है
चिड़ियों की चहचहाहट भी , मेरे उलाहनों का तान है
संभवतः प्रेम कलह से ही , आकाश से अवनी भी है रूठी
क्यों प्रेम और विरह की , हर कथा है अनूठी
पर परदेशी पिया ! तुम भी हो अनूठे , पर हो झूठे
क्या जानूं कि , मैं हूँ रूठी , या कि तुम हो रूठे
जो भी हो , बस समझो , जो हृदय की बात है
इस रुत पर , बड़ा भारी , विरही आघात है
प्रेम कलह के इस रुत में
हर पल रहती हूँ , तेरे ही युत में
तुमसे मैं भी लड़ती , मन ही मन में
क्या कहूँ ? तेरे बिना , कुछ नहीं है जीवन में
मेरे प्राणप्यारे परदेशी पिया !
जितनी जल्दी हो सके , तुम आना
अपनी सौं , कोई कलह न करूं मैं तुमसे
बस , मिलन रुत संग लिए आना .
बहुत सुंदर सृजन।🌻👌
ReplyDeleteलाजवाब
ReplyDeleteबेहतरीन लेखन..
ReplyDeleteसादर प्रणाम
जी नमस्ते,
ReplyDeleteआपकी लिखी रचना आज शुक्रवार 5 फरवरी 2021 को साझा की गई है......... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन " पर आप भी सादर आमंत्रित हैं ....धन्यवाद! ,
प्रेम कलह के इस रुत में
ReplyDeleteहर पल रहती हूँ , तेरे ही युत में
तुमसे मैं भी लड़ती , मन ही मन में
क्या कहूँ ? तेरे बिना , कुछ नहीं है जीवन में
मेरे प्राणप्यारे परदेशी पिया !
जितनी जल्दी हो सके , तुम आना
अपनी सौं , कोई कलह न करूं मैं तुमसे
बस , मिलन रुत संग लिए आना .
..वाह !! अमृता जी नारी मन के प्रेम प्रणय पीड़ा व्यथा को बहुत ही सादगी से निरूपित कर दिया आपने..सुंदर अति सुंदर..
जी नमस्ते ,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (०५-०२-२०२१) को 'स्वागत करो नव बसंत को' (चर्चा अंक- ३९६९) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है।
--
अनीता सैनी
व्वाहहह..
ReplyDeleteजितनी जल्दी हो सके , तुम आना
अपनी सौं , कोई कलह न करूं मैं तुमसे
बस , मिलन रुत संग लिए आना .
सादर।.
प्रेम में पगी लाजवाब रचना।
ReplyDeleteआने वाले वसन्त की माधवी को नमन।
ReplyDeleteबस , मिलन रुत संग लिए आना .
ReplyDeleteवाह👌👌👌 आकंठ अनुरागरत मन की मधुर मनुहार्!!!!
जितनी जल्दी हो सके , तुम आना
ReplyDeleteअपनी सौं , कोई कलह न करूं मैं तुमसे
बस , मिलन रुत संग लिए आना .
वाह!!!
मधुरतम रचना !!!
साधुवाद अमृता जी 🌹🙏🌹
अति सुंदर,स्त्री मन के भावों का सटीक चित्रण,सादर
ReplyDeleteप्रेम कलह के इस रुत में
ReplyDeleteहर पल रहती हूँ ,तेरे ही युत में
तुमसे मैं भी लड़ती , मन ही मन में
क्या कहूँ ? तेरे बिना , कुछ नहीं है जीवन में
बहुत सुंदर सृजन, अमृता दी।
प्रेम कलह वो भी बसंत में...वाह अमृता जी, क्या खूब लिखा... प्रेम कलह के इस रुत में
ReplyDeleteपल-पल , कलकल , लगन आयुत में
हास-उपहास , राग-उपराग हुआ है
कल्प कलेवरों का , खेल-खिलौना
जैसे कनखी ही कनखी में
हो रहा हो , कोई नेही टोटका-टोना...वाह
विरह, पीड़ा, उपालंभ, चिरोरी सब एक साथ एक रचना में बहुत सुंदर विरह श्रृंगार सृजन।
ReplyDeleteभावों की जादूगरी से भरी गागर से उपालम्भ भाव का पक्ष खूबसूरती से मुखरित हुआ है ।
ReplyDeleteविरह और प्रेम को प्रखर रूप से प्रस्तुत करती सुंदर रचना। बहुत-बहुत शुभकामनाएँ। ।।।
ReplyDeleteसुंदर बहुत ही सुंदर रचना, अति उत्तम नमन
ReplyDeleteकोमल शब्दों के प्रवाह से साथ विरह और प्रेम की अंतर्धाराएँ कितने ही रंगों के साथ चली आई हैं. 'चिड़ियों की चहचहाहट,उलाहनों की तान हो गई है.' इसे पढ़ कर लगता है कि प्रेमी मन खिड़की पर खड़ा है.
ReplyDeleteबहुत सुंदर.
बहुत अच्छी प्रस्तुति
ReplyDeleteमन के भावों का सटीक चित्रण
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