किसी की
आँखों में उंगलियाँ डालने का
कोई इरादा नहीं है
कानों पर जमें पहाड़ों को
सरकाने का भी कोई इरादा नहीं है
नाकों में उगे घने जंगलों की
छंटाई का भी कोई इरादा नहीं है
मरे हुए चमड़ों को बहते खून तक
खुरचने का भी कोई इरादा नहीं है
और लपलपाते जीभ से टपकते जहर को
बुझाने का भी कोई इरादा नहीं है
कोई इरादा नहीं है कि
मृतप्राय जीवाश्मों-सा
कोई भी अन्य लोलुप इन्द्रियाँ
मुझे देखे , सुने , सूंघे या छुए
मेरी इजाजत के बगैर
क्योंकि मेरा होना , हँसना , बोलना
किसी प्रमापक पर आश्रित नहीं है
उन आश्रितों पर तो
हरगिज आश्रित नहीं है
जो खुद अभिशप्त हैं
अमृत को ही जहर को बनाने के लिए
और प्रतिगत जहर ही पाने के लिए
जिन्हें ये भी पता नहीं चलता है कि
वे अपनी जीवन दायिनी को भी
उसी जहर से विषाक्त कर देते हैं
फिर भी उन्हें क्षमा दान मिलता रहता है .
लाजवाब सृजन।
ReplyDeleteजी नमस्ते ,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (१३-०२-२०२१) को 'वक्त के निशाँ' (चर्चा अंक- ३९७६) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है।
--
अनीता सैनी
बहुत गहरी अभिव्यक्ति अमृता जी ❗🙏❗
ReplyDeleteजी नमस्ते,
ReplyDeleteआपकी लिखी रचना आज शनिवार 13 जनवरी 2021 को साझा की गई है......... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी सादर आमंत्रित हैं आइएगा....धन्यवाद! ,
This comment has been removed by the author.
ReplyDeleteसुंदर अभिव्यक्ति
ReplyDeleteचिंतन से परिपूर्ण आपकी रचना काबिले तारीफ है..आप यूं ही लिखती रहें..शुभ दिवस
ReplyDeleteकवित्व भरी चेतावनी...ललकार..क्या कुछ नहीं है इन पंक्तियों में..वाह ..उन आश्रितों पर तो
ReplyDeleteहरगिज आश्रित नहीं है
जो खुद अभिशप्त हैं..बहुत खूब
उन आश्रितों पर तो
ReplyDeleteहरगिज आश्रित नहीं है
जो खुद अभिशप्त हैं
एक-एक शब्द में दुःख-दर्द के साथ-साथ एक ललकार भी
बहुत सुंदर ही अभिव्यक्ति,अमृता जी
Spice Money Login Says thank You.
ReplyDelete9curry Says thank You So Much.
amcallinone Says thank You very much for best content. i really like your website.
सोच रहा हूँ अच्छी कविता लिखकर निकल लूँ लेकिन ऐसा हो नही पाया। कविता क्रोध, व्यंग और आर्तनाद को समष्टिगत अनुभव बन गई है। स्वर्णपीत वासुकियों,नील हरित कर्कोटकों, और रक्त वर्ण तक्षकों को संबोधित करती अद्भुत रचना।
ReplyDeleteघायल निजता माफ़ भले कर दे लेकिन भूलती हरगिज़ नहीं है. कविता पूरी बात कह गई है.
ReplyDeleteबहुत सुन्दर व अलहदा सृजन।
ReplyDeleteबहुत बढ़िया।
ReplyDeleteक्योंकि मेरा होना , हँसना , बोलना
ReplyDeleteकिसी प्रमापक पर आश्रित नहीं है
उन आश्रितों पर तो
हरगिज आश्रित नहीं है
जो खुद अभिशप्त हैं----
बहुत गहरी कविता...। बहुत गहरे और चुभते शब्द। बधाई आपको।
जो खुद अभिशप्त हैं
ReplyDeleteअमृत को ही जहर को बनाने के लिए
और प्रतिगत जहर ही पाने के लिए
जिन्हें ये भी पता नहीं चलता है कि
वे अपनी जीवन दायिनी को भी
उसी जहर से विषाक्त कर देते हैं
फिर भी उन्हें क्षमा दान मिलता रहता .... सारगर्भित और गूढ़ प्रश्न उठाती बेहतरीन रचना..
लाजवाब बेहतरीन
ReplyDeleteअति संवेदनशील रचना। ।।।।।
ReplyDeleteविचारणीय प्रस्तुति हेतु बधाई आदरणीया।
बसंतोत्सव की हार्दिक शुभकामनाएँ। ।।।
चिंतनशील ... प्रतीक और बिम्ब के माध्यम से गहरी बात कही है ...
ReplyDeleteकृपया एक बार मेरे ब्लॉग को देख लीजिए और अपनी राय व्यक्त की की अति कृपया होगी🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏
Deleteबहुत बहुत सुन्दर
ReplyDeleteकृपया एक बार मेरे ब्लॉग को देख लीजिए और अपनी राय व्यक्त की की अति कृपया होगी🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏
Deleteअति उत्तम, बहुत ही सुंदर
ReplyDeleteकृपया एक बार मेरे ब्लॉग को देख लीजिए और अपनी राय व्यक्त की की अति कृपया होगी🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏
Deleteबहुत सुंदर अंदाज़ में लिखी बेहतरीन रचना
ReplyDeleteThis comment has been removed by the author.
Deleteबहुत ही उमदा
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