कुछ न कुछ कचोटती-सी
ग्रथित गूँज जरूर रह गयी होगी
सुधि से एक गंध उठकर
संचारित साँसों से बह गयी होगी !
उन्हीं अभिभूत अनुस्मृतियों को
मैं अनंतक अभिसार दे रही हूँ
हाँ! जन्मों-जन्मों के बाद भी
तुम्हें फिर से पुकार दे रही हूँ !
यह जो निगूढ़ नाद है
न मालूम कबसे चल रहा है
हो-न-हो दो बिछुड़े शून्यों में
अश्लेष अर्थ-सा पल रहा है !
उन्हीं अर्थों को तबसे कितने ही
संभृत शब्दों में घोल रही हूँ
और तेरी स्मृति-मंजूषा को
मैं बोल-बोल कर खोल रही हूँ !
कहीं उन शंसित शब्दों की कौंध में
तुम्हें कुछ स्मरण आ जाए
और चिर-वंचित विस्मृतियाँ
अपने अवगुंठित अर्थों को पा जाए !
इस जीवन का अर्थ तुम्हीं से
औ' सौभाग्य का क्षण-क्षण प्रयोजन है
धूप-दीप , अर्चा , फूल , बंदनवार लिए
ह्रदय-महल का सजा ये सिंहासन है !
कितनी आकांक्षाओं-अभीप्साओं को ले
इस दुर्लभ जन्म को हमने पाया है
अब दिवस-रात निष्फल न बीते
इसलिए तो तुम्हें फिर से बुलाया है !
कुछ महत होने के है करीब आया
कोई विधि-विधान मत खोजो तुम
अनघट घटना ही घट रही है
सरस होकर उसे सहेजो तुम !
प्रेम को कौन कब समझ सका है
प्रयत प्रतीति है केवल खोने में
ये जन्मों-जन्मों की गंधवाही गूँज भी
सुन , कहती है हो जा मेरे होने में .
खुश हो गया मन अबूझ प्रेम की इस सुन्दर कविता को पढ़कर!!!
ReplyDeleteवाह!
कुछ महत होने के है करीब आया
ReplyDeleteकोई विधि-विधान मत खोजो तुम
अनघट घटना ही घट रही है
सरस होकर उसे सहेजो तुम !
सच्चे प्रेम की सुन्दर तस्वीर उकेरी है आपने
आभार !
आ हा हा......नि:शब्दता व्याप्त हो गई चहुं ओर।
ReplyDeleteकुछ महत होने के है करीब आया
ReplyDeleteकोई विधि-विधान मत खोजो तुम
अनघट घटना ही घट रही है
सरस होकर उसे सहेजो तुम !
बहुत गहन और सूफ़ियाना रचना, बहुत बहुत शुभकामनाएं.
रामराम.
आपकी उत्कृष्ट प्रस्तुति शनिवारीय चर्चा मंच पर ।।
ReplyDeleteमन प्रेम की अथक संभावनायें हर बार विचारने लगता है।
ReplyDeleteप्रेम को कौन कब समझ सका है
ReplyDeleteप्रयत प्रतीति है केवल खोने में
बहुत गहरे भाव से सजी रचना प्रीतिकर है अमृता जी - बधाई।
सादर
श्यामल सुमन
09955373288
मुश्किलों से भागने की अपनी फितरत है नहीं।
कोशिशें गर दिल से हो तो जल उठेगी खुद शमां।।
www.manoramsuman.blogspot.com
सच्चे प्रेम की सुन्दर अभिव्यक्ति प्रस्तुति की आपने....
ReplyDeleteउन्हीं अर्थों को तबसे कितने ही
ReplyDeleteसंभृत शब्दों में घोल रही हूँ
और तेरी स्मृति-मंजूषा को
मैं बोल-बोल कर खोल रही हूँ !
वाह बहुत खूब ,
अति सुन्दर रचना....
ReplyDelete:-)
'ये जन्मों-जन्मों की गंधवाही गूँज जब मन के द्वार दस्तक दे , चिर-वंचित विस्मृतियाँ अपने अवगुंठित अर्थों को गह पायें और यह दुर्लभ जन्म संचित आकांक्षाओं-अभीप्साओं के स्वस्ति-वाचन स्वर उठायें !
ReplyDeleteआनंदविभोर हो जाता है मन ऐसी रचनाओं को पढकर. जितनी अर्थ सबल पंक्तियाँ उतना ही अनुपम कृति शबलत्व.
ReplyDeleteउत्कृष्ट कविताई का नमूना है यह कविता. जिन अनुभवों को जानना तक कठिन होता है, उन्हें संप्रेषित करने का कार्य आपने किया है. जितनी प्रशंसा की जाए उतनी कम है.
ReplyDeleteयह जो निगूढ़ नाद है
ReplyDeleteन मालूम कबसे चल रहा है
हो-न-हो दो बिछुड़े शून्यों में
अश्लेष अर्थ-सा पल रहा है !
आत्मा और परमात्मा अलग रहे बहु -काल,……
यह जो निगूढ़ नाद है
ReplyDeleteन मालूम कबसे चल रहा है
हो-न-हो दो बिछुड़े शून्यों में
अश्लेष अर्थ-सा पल रहा है !
आत्मा और परमात्मा अलग रहे बहु -काल,……
प्रेम में खोना ही पाना है।
तू मुझमें है मैं तुझमे हूँ।
ReplyDeleteयह जो निगूढ़ नाद है
न मालूम कबसे चल रहा है
हो-न-हो दो बिछुड़े शून्यों में
अश्लेष अर्थ-सा पल रहा है !
बहुत गहन अव्यक्त अनुभूति को व्यक्त करती बहुत सुन्दर रचना
latest post आभार !
latest post देश किधर जा रहा है ?
This comment has been removed by the author.
ReplyDeleteप्रेम की गहनता को और कोई जान पाया है या नहीं आपने खूब समझा है और बहुत ही प्रीतिकर ढेंग से उसे अन्य सभी को समझाने का प्रयास भी किया है ! प्रबल भाव एवँ सशक्त सबल अभिव्यक्ति के लिये मेरी बधाई स्वीकार कीजिये ! अनुपम रचना है यह !
ReplyDeleteprem me bahti hui... behtareen rachna..
ReplyDeletebahut shandaar abhivayakti hai aapki :)
प्रेम पर सुन्दर काव्य रचना की बधाई !
ReplyDeleteप्रेम को कौन कब समझ सका है...........????????????
ReplyDeleteबस इतना सा ही अफसाना है...
न कोई समझा है.....
न कोई जाना है.......!!
Very nice
ReplyDeleteसुंदर और संवेदनाओं की अभिव्यक्ति करने वाली कविता। अंत में एक शाश्वत सत्य सम्मुख रखती है, प्रेम को कोई समझ नही सका और निष्कर्षतः बता देती है कि प्रेम समझने की नहीं उसमें डूबने की बात है।
ReplyDelete
ReplyDeleteप्रेम को कौन कब समझ सका है
प्रयत प्रतीति है केवल खोने में
ये जन्मों-जन्मों की गंधवाही गूँज भी
सुन , कहती है हो जा मेरे होने में ...गूढ़ अर्थ समेटे , दार्शनिकता से ओतप्रोत शसक्त रचना , प्रेम के बिना क्या है वाकई ....आप प्रेम पर प्रेम से लिखती रहिये सुधी जन प्रेम को प्रेम से पढ़ते रहेंगे ...पुनः ढेरो बधाई के साथ .सादर
कितनी आकांक्षाओं-अभीप्साओं को ले
ReplyDeleteइस दुर्लभ जन्म को हमने पाया है
अब दिवस-रात निष्फल न बीते
इसलिए तो तुम्हें फिर से बुलाया है !
प्रेम को कौन कब समझ सका है
प्रयत प्रतीति है केवल खोने में
ये जन्मों-जन्मों की गंधवाही गूँज भी
सुन , कहती है हो जा मेरे होने में
उच्च स्तरीय दर्शन और लाजवाब रचना
प्रेम को कौन कब समझ सका है
ReplyDeleteप्रयत प्रतीति है केवल खोने में
ये जन्मों-जन्मों की गंधवाही गूँज भी
सुन , कहती है हो जा मेरे होने में .
बहुत सुन्दर पंक्तियाँ .
प्रेम ना बाड़ी ऊपजै......
ReplyDeleteप्रेम को समझना बहुत दुरूह है । अमृता, अद्भुत लिखती हैं आप ।
बहुत बढ़िया ...
ReplyDeleteये जन्मों-जन्मों की गंधवाही गूँज भी
ReplyDeleteसुन , कहती है हो जा मेरे होने में .
अद्भुत ! अमृता जी, इस कविया में एक शाश्वत संवाद घट रहा है..बधाई !
saayed mere liye.......
ReplyDeleteप्रेम - न समझा जा सकता है
ReplyDeleteन समझ से परे है
न बाँधा जा सकता है
न बंधन से परे है
प्रेम - अमृत भी,विष भी
पर है सिर्फ अमरत्व
भले ही विष पीना क्यूँ न पड़े !!!
शानदार शब्द सामर्थ्य है ..
ReplyDeleteबधाई !
ममता, मोह और प्रेम से लिखा गया पवित्र ह्रदय का भाव.......
ReplyDeleteरेम को कौन कब समझ सका है
ReplyDeleteप्रयत प्रतीति है केवल खोने में
ये जन्मों-जन्मों की गंधवाही गूँज भी
सुन , कहती है हो जा मेरे होने में .
भावनाओं को शब्द देने में आप की लेखनी नि:शब्द कर देती है
निशब्द...........
ReplyDeleteअजब प्रेम की गजब कहानी ...........
प्रेम को कौन कब समझ सका है
ReplyDeleteप्रयत प्रतीति है केवल खोने में
ये जन्मों-जन्मों की गंधवाही गूँज भी
सुन , कहती है हो जा मेरे होने में ..
यही तो शाश्वत प्रेम है ... मेरा हो जाने में ही तो जीवन है ...
bahut khoob............prem ko kaun samajh ska hai..!
ReplyDeletevisit here also ..
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