Social:

Monday, February 21, 2022

ऐ आदमी ! ........

ऐ आदमी !

नग्न हो कर

मुझ आदमी तक आओ !

जैसे मैं आती हूँ तुम तक

जबरन चिपकाए गए 

आदमीपन को खुरच कर

तो ही देख पाती हूँ

खुद को साफ-साफ

तुमको आर-पार देखते हुए....

जो पहन लोगे तुम

झीना-सा भी कुछ

तो नहीं देख पाओगे

मुझे भी, खुद को भी

आदमी हो कर

आदमी की तरह !

पर आदमीपन दिखाने के लिए भी

आदमी नहीं रहोगे और

बात-बात पर

निकालोगे अपना

खून लगा हुआ जीभ !

फँसी हड्डियों में

कटकटाता हुआ दाँत !

लोथड़े से सना नाखून !

छटपटाता हुआ पंजा !

सबकुछ नोच खाने के लिए.....

ऐ आदमी ! 

आदमी होने के लिए

ऐसे आदमीपन को

झटके से खसोट दो !

और वही हो जाओ 

जो तुम हो....

तोड़ दो रूढ़ियों को !

बदल दो परंपराओं को !

खोल दो बेड़ियों को !

छोड़ दो पूर्वाग्रहों को !

उतार दो आडंबरों को !

मुँह पर थप्पड़ मारो !

होश में आओ !

और फेंक दो 

अपनी सारी केंचुलियाँ

जो तुम्हारी नग्नता को

बलात् ढकने पर आमादा है....

जला दो उन पुरावशेषों को

जो तुम्हें पहनाती है

सभ्यता का पत्थरचटा लबादा !

भुला दो जो तुम्हें अबतक

बार-बार बताया गया है

जिसे गलती से भी भूलने पर

तुम्हारी भयावह भूल बता

तुम्हें हर बार पशु-सा

डराया गया है, सताया गया है....

फिर तुमपर थोपी हुई 

आदमीयत से भी

लात मारकर गिराया गया है !

ऐ आदमी !

आदमी होने के लिए

पूछो, चिल्ला कर पूछो !

उन सबसे पूछो

क्यों तुमको ढाँचे में ढाल

उनके पैमाने से तुम्हें

आदमी बनाया गया है?

आदमी, एक ऐसा आदमी !

जो देख नहीं सकता !

जो बोल नहीं सकता !

जो सुन नहीं सकता !

अपनी ही नग्नता को

अपने सामने भी 

खोल नहीं सकता !

कभी खोल जो दे तो

उन हैवानात के

जालिम आदमीयत से ही

जीते जी मारा जाता है !

शायद इसीलिए तो सबके लिए

सभ्य आदमी बन पाता है.....

लेकिन अपनी नग्नता को

नकारता हुआ, ढकता हुआ

शर्माया-सा सभ्य आदमी भी

अपने जिंदा-मुर्दा होने के

बीच के फर्क को भुलाकर

और क्या कर पाता है?

बस बेबस, बेचारा होकर

उन आदमखोर मछलियों के

स्वाद के हिसाब से

उनके ही कटिया में 

बुरी तरह से फँसा हुआ

लजीज चारा ही हो जाता है।


16 comments:

  1. राहबर आये हजारों इस जहाँ में
    आदमी फिर भी भटकता है यहाँ पर !

    बेवजह सी बात पर भौहें चढ़ाता
    राह तकता है भला बन शांति की फिर

    आदतों के जाल में जकड़ा हुआ पर
    किस्से मुक्ति के सुनाता जोश भर कर

    खुद ही गढ़ता बुत उन्हीं से मांगता
    जाने कितने स्वांग भरता भेष धर कर

    इस हिमाकत पर न सदके जाये कौन
    हर युद्ध करता शांति का नाम लेकर !

    उल्टे-सीधे काम भी सभी हो रहे
    है रात-दिन जब मौत का जारी कहर !

    ReplyDelete
  2. आदमी को आदमी से आदमी की तरह आदमी बन कर मिलना मिलाना ... पर सच में आज आदमी है वो मुखौटा ...

    ReplyDelete
  3. जी नमस्ते ,
    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार(२५ -०२ -२०२२ ) को
    'खलिश मन की ..'(चर्चा अंक-४३५१)
    पर भी होगी।
    आप भी सादर आमंत्रित है।
    सादर

    ReplyDelete
  4. जी नमस्ते,
    आपकी लिखी रचना शुक्रवार २५ फरवरी २०२२ के लिए साझा की गयी है
    पांच लिंकों का आनंद पर...
    आप भी सादर आमंत्रित हैं।
    सादर
    धन्यवाद।

    ReplyDelete
  5. समाज की बेड़ियों में जकड़ा आदमी खुद की आदमियत कहाँ देख पाता है और न ही दिखा पाता है । कभी असली चेहरा दिख भी जाये तो खुद को ही न पहचान पायेगा ।
    आदमी को संबोधित करते हुए वास्तविकता से अवगत कराती रचना ।

    ReplyDelete
  6. क्या कहूँ..
    प्रलय के बाद ही शायद आदमी से भेंट हो सके
    अद्धभुत रचना

    ReplyDelete
  7. आदमी के वास्तविक रूप को परिभाषित करना बड़ा कठिन है । अद्भुत सृजन ।

    ReplyDelete
  8. जबरदस्त ! गज़ब कहानी है आदमियत की , बहुत गहन शानदार प्रस्तुति।, आपकी प्रस्तुति के साथ कुछ यूं भी...

    इल्ज़ाम ढूँढ़ते हो !

    ये क्या कि पत्थरों के शहर में
    शीशे का आशियाना ढू़ँढ़ते हो!

    आदमियत का पता तक नही
    गज़ब करते हो इन्सान ढूँढ़ते हो !

    यहाँ पता नही किसी नियत का
    ये क्या कि आप ईमान ढूँढ़ते हो !

    आईनों में भी दगा भर गया यहाँ
    अब क्यों सही पहचान ढूँढ़ते हो !

    जहाँ बालपन भी बुड्ढा हो गया
    वहाँ मासुमियत की पनाह ढूँढ़ते हो !

    भगवान तक अब महलों में सज़ के रह गये
    क्यों गलियों में उन्हें सरे आम ढूँढ़ते हो।

    कुसुम कोठारी "प्रज्ञा "

    ReplyDelete
  9. अपनी दुनिया को
    आग लगाता है
    नित नये नागाशाकी
    और हिरोशिमा बनाता है
    सृजनशीलता के
    नित नये कीर्तिमान बनाते हुए
    सर्वशक्तिमान के भ्रम में
    हिंसक वेश धरकर
    बस्तियों में घूमता
    अपनी असलियत भूलकर
    पशु होता जाता है
    आदमी...।
    ---
    धारदार अभिव्यक्ति
    सादर।

    ReplyDelete
  10. पहले सृजन करता है और फिर अपनी ही सृष्टि का विनाश ! आदमी स्वयं को त्रिदेव समझने लगा है। मेरे विचार से तो पाषाण युग का ही आदमी अच्छा था जो पशुवत जीता था, आदमी होने का नाटक तो नहीं करता था। अब तो समझ ही नहीं पाते कि कौन आदमी है कौन पशु ? अपने मन के आक्रोश को सटीक, तीखे शब्दों में व्यक्त करती सशक्त रचना।

    ReplyDelete
  11. बहुत सुन्दर भाव , अच्छा कटाक्ष , आदमी जितना भी विकसित हो जाये आदमी को अपनी सभ्यता संस्कृति को याद कर अच्छाई को आत्मसात करना चाहिए , आँखे खोलने को विवश करती अच्छी रचना !

    ReplyDelete

  12. ओह,एक और चोट!

    ReplyDelete