हमारी निजन निजता से नि:सृत
प्रीछित प्रीत की गाथाएँ हैं विस्तृत
उसे अब अनकहा ही मत रहने दो
यदि तुम कहो तो वो हो जाए अमृत
कह दो कि इन्द्रियों पर वश नहीं चलता
कह दो कि संयम ऐसे अधीर हो उठता
है बारहों मास तन-मन का रुत बसंती
मदमाया प्राण रह-रह कर है मचलता
कह दो हर क्षण बिना रंग का खेले होली
क्ह दो बिना भांग के ही बहकती है बोली
जो कहा न जाए वो सब भी कहलवाना
कहो कि कैसी होती है प्रीत की ठिठोली
कह दो कि मुझको आलिंगन में भर कर
कह दो कि मुझको चुंबनों से जकड़ कर
औचक ही चेतना भी क्यों चौंक जाती है ?
क्यों सुप्त चंचलता आ जाती है उभर कर ?
कैसे कल्प प्रयाग में हुआ है अनोखा संगम ?
कहो कैसे स्खलन हो गया कालजयी स्तंभन ?
कह भी दो कि प्रेम-यज्ञ में ही आहुत होकर
कैसे प्रेमिक कल्पवास को किया हृदयंगम ?
कह दो कि कौन करे अब किसी और की पूजा
कहो कैसे मुझमें डूबे कि अब रहा न कोई दूजा
वरदाई अभिगमन के भेद भरे सब राज खोलो
कह दो कि हमने जो जिया कितना है अदूजा
अब तो इन अधरों पर धर ही दो अधरों को
कहीं सब कह कर के कँपा न दे धराधरों को
क्या प्रीत की गरिमा इतनी होती है श्लाघी ?
या चुहल में यूँ ही चसकाती है सुधाधरों को ?
क्या हम पर प्रेम-भंग का असर हुआ है ?
या अभिसारी बसंत ही अभिसर हुआ है ?
या इस माघ-फागुनी प्रेमिक कल्पवास में
उधरा-उधरा कर परिमल ही प्रसर हुआ है ?
कह दो वो अनकहा ही कण-कण खिला है
कहो खुला देहबंध तो प्रेम-समाधि मिला है
जो तुम न कह पाओ तो श्वास-श्वास कहेगा
कि कल्पवासी बसंत कैसे बूँद-बूँद पिघला है .
जो तुम न कह पाओ तो श्वास-श्वास कहेगा
ReplyDeleteकि कल्पवासी बसंत कैसे बूँद-बूँद पिघला है .
बसंत ऋतु पर माधुर्य भाव से सुसज्जित मनमोहक भावाभिव्यक्ति । आपकी सृजन शैली मन्त्रमुग्ध और चमत्कृत करती है अमृता जी !
आज के समय में कल्पवास के बारे में कौन कहाँ सोचता है तो कल्पवासी बसंत कैसे समझेगा कोई ।सब कुछ अल्पवासी और अधीरता धारण किये रहते हैं । बारहों महीने देह बसंत में डूबी रहती है बिना फाग के भी रंगीनी बनी रहती है । अब तो हर बंधन खुल चुका है
ReplyDeleteकल्पवासी बसंत का तो पता नहीं लेकिन अल्पवासी बसंत तो बाढ़ के समान न जाने कितने रिश्तों को अपने साथ बहा कर ले जाता है ।।
आपकी रचना पढ़ते हुए न जाने मन मस्तिष्क क्या क्या सोच गया ,शायद कहीं उलझ गया है । ये अर्थ का अनर्थ भी हो सकता है । फिर आऊँगी दोबारा पढ़ने । 🙏🙏
बहुत ही सुंदर भाव
ReplyDelete
ReplyDeleteजी नमस्ते ,
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार (०४ -०२ -२०२२ ) को
'कह दो कि इन्द्रियों पर वश नहीं चलता'(चर्चा अंक -४३३१) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है।
सादर
अद्भुद
ReplyDeleteसराहनीय।
ReplyDeleteआया वसंत छाई बहार
ReplyDeleteसजती धरा कर नव सिंगार,
बिखरा मद मधुर नेह पाकर
कण-कण महका छाया निखार !
सजते अंतर के दिग-दिगंत
मोह-शीत का होता सु-अंत,
खिल जाते अनगिन भाव पुष्प
प्रियतम लाता सच्चा वसंत !
कैसे कल्प प्रयाग में हुआ है अनोखा संगम ?
ReplyDeleteकहो कैसे स्खलन हो गया कालजयी स्तंभन ?
कह भी दो कि प्रेम-यज्ञ में ही आहुत होकर
कैसे प्रेमिक कल्पवास को किया हृदयंगम ?
इसके ऊपर लिखी पँक्तियाँ मन को बासंती करती हुई , फिर ये प्रयाग का संगम ..... हकीकत को बयाँ करता हुआ .. कहीं प्रेम में लिप्त बसंत है तो कहीं मन की टीस में दिख रहा बसंत है ।।
मन की गहराई से लिखी रचना जिसमें मैं डूबना चाहती हूँ लेकिन गोते खा रही हूँ ।
वासन्ती जादू जब सिर चढ़ कर बोलने लगता है तो भाव और भाषा ऐसे ही संयमहीन-से ,उन्मत्त बिखर पड़ते हैं.
ReplyDeleteohhh! bahut dino baad aisa kuch padhne ko mila! thanks for this beautiful depiction! one of the best I've ever read of you! bahut shandaar!
ReplyDelete