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Tuesday, February 16, 2021

बसंत ने मुझे फिर से बहका दिया ! ...

बड़ी मुश्किल से , मैंने हवाओं से 

होड़म-होड़ करना छोड़ा था

फिरी हुई सिर लेकर , सबसे यूँ ही

बिन बात के भी , टकराना छोड़ा था

अपने बौड़मपन को , बड़े प्यार से 

समझा-बुझाकर , बहला-फुसलाकर

शांत , गूढ़ और गंभीर बनाया था

पर ये क्या ? किसने मुझे भरमा दिया ?

या शायद बसंत ने मुझे फिर से बहका दिया !


अल्हड़ , नवयौवना , रूप-गर्विता बनकर

मैं इधर-उधर , यूँ ही इतराने लगी हूँ

अपने सौंदर्य में ही केसर , कुमकुम , चंदन

घोल-घोल कर , सबपर लुटाने लगी हूँ

मेरी आंखें क्यों हो रही है नशीली ?

और बातें भी क्यों हो रही है रसीली ?

क्या मुझे मत्त मदिरा पिला , मदकी बना दिया ?

या शायद बसंत ने मुझे फिर से बहका दिया !


सुबह ने मेरे माथे को , चूम-चूम कर ऐसे जगाया

और अंगड़ाईयों से मुझे , खींच जैसे-तैसे छुड़ाया

मैं भी अलस नयनों की , बेसुध खुमारियों को

गरम-गरम चुसकियों से , जगाए जा रही थी

कि सूरज की उतावली किरणों ने हरहराकर

मुझे ही , हर कोने-कोने तक , बिखरा दिया

या शायद बसंत ने मुझे फिर से बहका दिया !


यूँ ही टहलते हुए , झील पर , पंछियों से 

अपने को , हँसना-बोलना , सिखा रही थी

पिघलती हुई पहाड़ियों के , नरम-नरम ओंठो पर

अपनी मन बांसुरिया को , रख कर बजा रही थी

कि आप ही आप , मधुरतम मिलन का स्वर

गा-गा कर मुझे , सब दिशाओं में , गूंजा दिया

या शायद बसंत ने मुझे फिर से बहका दिया !


फिर मैं तो , खेल-खेल में ही , ऊंगलियों को

अपने लटों से , उलझा-पुलझा रही थी

जानबूझकर उधेड़-बुन में पड़ी हुई

कुछ पहेलियों को , समझा-बुझा रही थी

कि हजारों फूलों की सुगंधि , आलिंगन में भर कर

यहाँ-वहाँ , जहाँ-तहाँ , मुझे ही बिखेरकर , महका दिया

या शायद बसंत ने मुझे फिर से बहका दिया !


दौड़ते-भागते , गिरते-पड़ते ,  दिन को रोक कर

सोचा कि , थोड़ा आंचल का छांव दे दूँ , इसलिए

दादी-नानी वाली , बात-बात पर टोकारा से , टोक कर

कहा कि दम भर सुस्ता ले , थोड़ा पांव दबवा ले

उससे कलेऊ का  , बियालु का , आग्रह कर रही थी 

कि मुझे ही कंधे पर बिठा कर , सब छोर घुमा दिया

या शायद बसंत ने मुझे फिर से बहका दिया !


ठिठोली में ही , साँझ की बड़री कजरारी , आंखों को 

करपचिया काजलिया से , आंज कर मैं सजा रही थी

झीनी-झीनी बदरिया की भी , भोली-भाली अलकों को

रोल-रोल कर , मुकुलित मुखड़े पर , छितरा रही थी

कि अचानक चारों ओर , शत-शत दीप जल गये

मुझे ही उजालों से भरकर , सारे जग में जगमगा दिया

या शायद बसंत ने मुझे फिर से बहका दिया !


मैं तो बड़ी मीठी , कुनकुनी , अपनी ही नींद को

हाथों के हिंडोले में , हिला कर सुला रही थी 

किसी उस अनजाने को भी , सपनों में बुला रही थी 

कि रात ने आकर , बड़े प्यार से , ऐसे जगाया और

मुझे ही अपनी गोद में उठा , बाहर ले जाकर 

चांद-तारों के , अछूते सौंदर्य से , पूरा नहला दिया

या शायद बसंत ने मुझे फिर से बहका दिया !


अब मेरे बचाव में , बसंत को ही , कुछ कहना पड़ेगा

सारे करतबी करतूतों का , भंडाफोड़ भी , करना पड़ेगा

कि बड़ी मुश्किल से , कैसे अपने को , संभाले हुई थी

और रटा-रटा कर , शालीनता का पाठ , पढ़ाए हुई थी

मैं इतना ही कह सकती हूँ , इसमें मेरा कोई दोष नहीं है

सच में ! किसी ने मुझपर , काला जादू चलवा दिया

या शायद बसंत ने ही मुझे फिर से बहका दिया ! 

*** बसंत पंचमी की हार्दिक शुभकामनाएँ ***

24 comments:




  1. अब मेरे बचाव में , बसंत को ही , कुछ कहना पड़ेगा

    सारे करतबी करतूतों का , भंडाफोड़ भी , करना पड़ेगा

    कि बड़ी मुश्किल से , कैसे अपने को , संभाले हुई थी

    और रटा-रटा कर , शालीनता का पाठ , पढ़ाए हुई थी

    मैं इतना ही कह सकती हूँ , इसमें मेरा कोई दोष नहीं है

    सच में ! किसी ने मुझपर , काला जादू चलवा दिया

    या शायद बसंत ने ही मुझे फिर से बहका दिया !...
    ...वाह वाह अमृता जी,
    आपने इस रूमानी कविता से मन को रंगीन बना दिया..
    साथ ही साथ बसंत से सुंदर परिचय करा दिया..
    ..बसंत पंचमी की हार्दिक शुभकामनायें..

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  2. बसंत ने मुझको फिर बहका दिया..
    भूले हुए थे क्या कुछ, क्या कुछ नहीं याद दिला दिया..

    बहुत सुंदर रचना..

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  3. वासंती मौसम का जादू सिर चढ़ कर बोल रहा है
    कौन है जो आपके माध्यम से अपने राज खोल रहा है

    वही जो ऋतुओं का राजा है !!
    अति सुंदर मनभावन रचना क लिए बधाई !

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  4. ये बसंत का काला जादू ही न हो ... वो भी तो बहका देता है ... मन को वो सब कुछ करवाता है ज्यों बहका हुआ इंसान ... बहुत भावपूर्ण रचना है ...

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  5. बिल्कुल सही , ये बसन्त ऐसा ही नाटकबाज है , लौट लौट कर आता है । बहुत मनभावन रचना ।

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  6. बहुत बहुत सुन्दर सराहनीय रचना |

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  7. अब मेरे बचाव में , बसंत को ही , कुछ कहना पड़ेगा

    सारे करतबी करतूतों का , भंडाफोड़ भी , करना पड़ेगा

    कि बड़ी मुश्किल से , कैसे अपने को , संभाले हुई थी

    और रटा-रटा कर , शालीनता का पाठ , पढ़ाए हुई थी

    मैं इतना ही कह सकती हूँ , इसमें मेरा कोई दोष नहीं है

    सच में ! किसी ने मुझपर , काला जादू चलवा दिया

    या शायद बसंत ने ही मुझे फिर से बहका दिया !..वाह!लाजवाब सृजन।
    कुछ कहना बैमानी होगी।बस मुग्ध हूँ।
    सादर

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  8. ये वासंती जादू है सखि ! इसने हम सबको भी बहका दिया ... अद्भुत रचना रच दी आपने ... बधाई हो वसंतागमन की

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  9. बसंत की अद्भुत रचना
    वाह

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  10. मंत्रमुग्ध करती हुई इस वासंती रचना के लिए हार्दिक बधाई। शब्दों और कल्पनाओं का ऐसा संगम कभी कभी ही हो पाता है।
    ये मौसम का जादू है मितवा....

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  11. जो भी इस कविता के रास्ते से ग़ुज़रेगा वो वसंत के रंगों से भीग कर निकलेगा. आंचलिक शब्दों की रंग-छटाएँ (जो पहली नज़र में अनजानी लगीं) एकदम पहचान देने लगीं. मंत्रमुग्ध कर देने वाली रचना है. पाठक के भीतर बासंती भाव अनायास खिलने लगते हैं. बसंत इतना प्रभावी हो जाता है कि कवि हृदय कह उठा है-
    अल्हड़ , नवयौवना, रूप-गर्विता बनकर
    मैं इधर-उधर, यूँ ही इतराने लगी हूँ
    अपने सौंदर्य में ही केसर, कुमकुम , चंदन
    घोल-घोल कर, सब पर लुटाने लगी हूँ
    कविता ऐसे नूतन और सहज बिंब विधानों से भरी है जो भाव-दर-भाव बसंत की महक लिए चलते हैं. कवियित्री ने वसंत में जागृत हुए अपने सभी हावों-भावों का चित्रण ऐसे किया है कि लगता है उसने एक पूरी ऋतु का व्यक्तिकरण नहीं बल्कि नितांत निजीकरण कर लिया है.

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  12. सच में ! किसी ने मुझपर , काला जादू चलवा दिया
    या शायद बसंत ने ही मुझे फिर से बहका दिया !
    बासन्ती बयार का जादू शब्द शब्द झर रहा है रचना से। बहुत सुन्दर।

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  13. बसन्त की फाल्गुनी, तुमको नमस्कार, तुम्हारे नख रंजन के लिए सेमल पलाश रंग लाये है, तुम्हारे महावर के लिए गुलाब रंग बटोर रहा है,तुम्हारी केश सज्जा के लिए उपवन में माल्य रचना चालू है और तुम्हारे अंगराग के लिए प्रकृति केशर जुटा रही है। मधुर रसराज की शोभा,रूप गन्ध गान को आपने साकार कर दिया है। औऱ हाँ, बियालु शब्द बहुत बर्षों बाद पढ़ने को मिला।

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  14. बेहतरीन रचना, आप बहुत ही अच्छा लिखती है , बेमिसाल, बसंत ऋतु पर लिखी गई अद्भुत रचना , आपको नमन और ढेरों बधाई हो

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  15. बहुत सुंदर रचना।

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  16. कोमल भावनाओं से ओतप्रोत बहुत सुंदर रचना... 🌹🙏🌹

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  17. कि सूरज की उतावली किरणों ने हरहराकर

    मुझे ही , हर कोने-कोने तक , बिखरा दिया
    या शायद बसंत ने ही मुझे फिर से बहका दिया !.

    बसंत को तो आप जैसे कवियों ने ही जिन्दा रखा है वरना आम जीवन में तो वो कही दीखता नहीं।
    आपकी रचना की जितनी प्रशंसा करे कम है,बसंत की गलियों में खूब घुमाया और उसके होने का भी एहसास कराया।
    ये बहकाव हर एक के जीवन में एक बार तो आता ही है,लाज़बाब सृजन अमृता जी

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  18. 'या शायद बसंत ने मुझे फिर से बहका दिया!'
    -यह मुखड़ा-पंक्ति तो इस सुन्दर, मनहरण कविता की प्राण-वायु प्रतीत हुई मुझे! निहायत ही उम्दा कृतित्व अमृता जी!

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  19. संयोग श्रृंगार का छलकता सागर, इंद्रजाल सा अनुभूति पर छाता हुआ , अद्भुत, अभिराम, अभिनव, कृतित्व।
    निशब्द!!

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  20. बसंत की खुमारी... अहा, दिलचस्प...

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  21. वाह वाह ! बासंती अनुभूतियों को जीवंत करता प्रभावी सृजन | वाह और सिर्फ वाह अमृता जी | बहुत धैर्य के साथ अनुभूतियों को बाँधा है आपने |

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