एक रंग में रंगे हैं गिरगिट
गला जोड़कर , गा रहे हैं गिटपिट-गिटपिट
एक रंग में रंगे हैं मकड़े
सफाई-पुताई को ही झाड़े , झाड़ू पकड़े
एक रंग में रंगे हैं छुछुंदर
कब किस छेद से बाहर , कब किस छेद के अंदर
एक रंग में रंगे हैं मेंढक
लोक-वाद लोककर , जाते हैं लुढक-पुढक
एक रंग में रंगे हैं साँप
जब-तब केंचुली झाड़कर , देते हैं झाँप
एक रंग में रंगे हैं घड़ियाल
घर-घर घुस जाते , लिए जाली जाल
एक रंग में रंगे हैं बगुले
गजर-बाँग लगा , लगते हैं बड़े भले
एक रंग में रंगे हैं गिद्ध
मुर्दा-मर्दन का अंत्येष्टि करके , हुए प्रसिद्ध
एक रंग में रंगे हैं लोमड़ी
मुँह से लहराकर , रसीले अंगूरों की लड़ी
एक रंग में रंगे हैं सियार
यार-बाज़ी के लिए , एकदम से तैयार
एक रंग में रंगे हैं हाथी
हथछुटी छोड़ , हों चींटियों के सच्चे साथी
एक रंग में रंगे हैं गधे
शेर की खाल ओढ़ने में , कितने हैं सधे
इसी एक रंग से रंगती हैं सरकार
रँगा-रँगाया , रंगबाज़ , रंगरसिया, रंगदार
जिनके हाथों के बीच के हम मच्छड़
जाने कब ताली पीट दे या दे रगड़
इनसे बचने का तो एक भी उपाय नहीं
हाँ! जी हाँ! हम मच्छड़ ही हैं कोई दुधारू गाय नहीं .
गला जोड़कर , गा रहे हैं गिटपिट-गिटपिट
एक रंग में रंगे हैं मकड़े
सफाई-पुताई को ही झाड़े , झाड़ू पकड़े
एक रंग में रंगे हैं छुछुंदर
कब किस छेद से बाहर , कब किस छेद के अंदर
एक रंग में रंगे हैं मेंढक
लोक-वाद लोककर , जाते हैं लुढक-पुढक
एक रंग में रंगे हैं साँप
जब-तब केंचुली झाड़कर , देते हैं झाँप
एक रंग में रंगे हैं घड़ियाल
घर-घर घुस जाते , लिए जाली जाल
एक रंग में रंगे हैं बगुले
गजर-बाँग लगा , लगते हैं बड़े भले
एक रंग में रंगे हैं गिद्ध
मुर्दा-मर्दन का अंत्येष्टि करके , हुए प्रसिद्ध
एक रंग में रंगे हैं लोमड़ी
मुँह से लहराकर , रसीले अंगूरों की लड़ी
एक रंग में रंगे हैं सियार
यार-बाज़ी के लिए , एकदम से तैयार
एक रंग में रंगे हैं हाथी
हथछुटी छोड़ , हों चींटियों के सच्चे साथी
एक रंग में रंगे हैं गधे
शेर की खाल ओढ़ने में , कितने हैं सधे
इसी एक रंग से रंगती हैं सरकार
रँगा-रँगाया , रंगबाज़ , रंगरसिया, रंगदार
जिनके हाथों के बीच के हम मच्छड़
जाने कब ताली पीट दे या दे रगड़
इनसे बचने का तो एक भी उपाय नहीं
हाँ! जी हाँ! हम मच्छड़ ही हैं कोई दुधारू गाय नहीं .
वाह....बेहतरीन और कुछ अलग सा अंदाज़
ReplyDeleteआज तो सारा चिड़ियाघर ही समा गया है कविता में..और अंतिम पंक्तियों का तो जवाब नहीं..वाकई आम आदमी की हैसियत ही क्या है..
ReplyDeleteइतने दिनों की अभिव्यक्ति का सूखा आपने इस एक रचना से लबालब भर दिया। गजब खींच के मारा है गधे-मच्छरों को।
ReplyDeleteआपकी इस प्रस्तुति का लिंक 04-02-2016 को चर्चा मंच पर चर्चा - 2242 में दिया जाएगा
ReplyDeleteधन्यवाद
भावपूर्ण ,शानदार .आपको बधाई.
ReplyDeleteसभी को लपेट लिया, हर जानवर को ... पर सरकार फिर भी सरकार ... बेबाक चित्रण ...
ReplyDeleteख़ूब .... बेहतरीन पंक्तियाँ हैं
ReplyDeleteसच में इनसे बचने के कोई आसार नहीं। बहुत ही सटीक अभिव्यक्ति।
ReplyDeleteसच में इनसे बचने के कोई आसार नहीं। बहुत ही सटीक अभिव्यक्ति।
ReplyDeleteबहुत सुन्दर, प्रभावी शैली और संवाद।
ReplyDeleteवाह सुंदर. सरल. प्रवाहमयी .
ReplyDeleteसुन्दर और भावपूर्ण कविता।
ReplyDeleteहर रंग सियासत का दरिंदों की देन है. मच्छर निरीह कीट-पतंगों से परिंदे.
ReplyDeleteबहुत बढ़िया तस्वीर आपने बनाई है.
बेहद मार्मिक। समसामयिक भी।
ReplyDeleteआपने लिखा...
ReplyDeleteकुछ लोगों ने ही पढ़ा...
हम चाहते हैं कि इसे सभी पढ़ें...
इस लिये आप की ये खूबसूरत रचना दिनांक 12/02/2016 को पांच लिंकों का आनंद के
अंक 210 पर लिंक की गयी है.... आप भी आयेगा.... प्रस्तुति पर टिप्पणियों का इंतजार रहेगा।
सच तो यही है....
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