इछुड़े - बिछुड़े से मेरे शब्द हैं सारे
अटक -भटक कर फिरे मारे -मारे
ना कोई ठौर है , रहे किसके सहारे ?
भड़क - फड़क कर बहे भाव भी हारे
कितनी ही कविता हर क्षण गाती हैं
मेरी व्याकुलता को ही बस बढ़ाती हैं
और मुझमें ही ऐसे क्यों खो जाती हैं ?
जो शब्दों को तनिक छू नहीं पाती हैं
बड़ा असमंजस है , क्यों ह्रदय है रोता ?
वही अस्फुट गूँज है ,ओ' नयन न सोता
हर सुबह सांवली साँझ में पुनः है खोता
पर कभी कविता से मेरा साक्षात न होता
छंद की बहु-श्रृंखंलाएं ऐसे क्यों हैं टूटी ?
ज्यों कि गगरिया चाक पर ही हो फूटी
ज्यों कि विरहिणी से लगन ही हो रूठी
ज्यों कि चातकी से रटन ही हो यूँ छूटी
जबसे मेरी कविता ने मुझसे है मुँह फेरा
अनंत सा बन गया है सब द्वंद्व ये मेरा
हाँ सीमित होकर मैंने ही है स्वयं को घेरा
हाय! कहाँ गया वो मदिर -मधुमय डेरा ?
तब तो कोंपल से कसक के कुम्हलाती हूँ
विहगों के विहसन से विकल हो जाती हूँ
क्यों विमूर्छित मन को मैं न समझाती हूँ ?
और बसंत के गंध को भी यूँ ही लौटाती हूँ
संभवत: कह रहा हो बसंत कि गंध को अब मत लौटाओ
मंजरियों के संग महक कर , मंद -मंद ही मगर मुस्काओ
कितने दिन हैं बीते , स्वयं बन कर एक प्रारम्भ फिर आओ
ओ' कल-कल करती कविता न सही 'कल -कविता' ही गाओ .
अटक -भटक कर फिरे मारे -मारे
ना कोई ठौर है , रहे किसके सहारे ?
भड़क - फड़क कर बहे भाव भी हारे
कितनी ही कविता हर क्षण गाती हैं
मेरी व्याकुलता को ही बस बढ़ाती हैं
और मुझमें ही ऐसे क्यों खो जाती हैं ?
जो शब्दों को तनिक छू नहीं पाती हैं
बड़ा असमंजस है , क्यों ह्रदय है रोता ?
वही अस्फुट गूँज है ,ओ' नयन न सोता
हर सुबह सांवली साँझ में पुनः है खोता
पर कभी कविता से मेरा साक्षात न होता
छंद की बहु-श्रृंखंलाएं ऐसे क्यों हैं टूटी ?
ज्यों कि गगरिया चाक पर ही हो फूटी
ज्यों कि विरहिणी से लगन ही हो रूठी
ज्यों कि चातकी से रटन ही हो यूँ छूटी
जबसे मेरी कविता ने मुझसे है मुँह फेरा
अनंत सा बन गया है सब द्वंद्व ये मेरा
हाँ सीमित होकर मैंने ही है स्वयं को घेरा
हाय! कहाँ गया वो मदिर -मधुमय डेरा ?
तब तो कोंपल से कसक के कुम्हलाती हूँ
विहगों के विहसन से विकल हो जाती हूँ
क्यों विमूर्छित मन को मैं न समझाती हूँ ?
और बसंत के गंध को भी यूँ ही लौटाती हूँ
संभवत: कह रहा हो बसंत कि गंध को अब मत लौटाओ
मंजरियों के संग महक कर , मंद -मंद ही मगर मुस्काओ
कितने दिन हैं बीते , स्वयं बन कर एक प्रारम्भ फिर आओ
ओ' कल-कल करती कविता न सही 'कल -कविता' ही गाओ .
सुन्दर रचना ।
ReplyDeleteसुन्दर रचना ।
ReplyDeleteबहुत दिनों बाद आपको पढ़कर अच्छा लग रहा है..कविता तो अपनी मर्जी से आती है..दिल की गहराइयों में छुपी सही पल की प्रतीक्षा करती..सुंदर रचना !
ReplyDeleteहां यह तो होना ही है, जब मन इतने भावों-विचारों से भर-उबर रहा हो। तब भी इस भरन-उबरन को भ्ाी आपने कल-कविता बनाकर बहुत सुन्दर प्रतीति कराई।
ReplyDeleteदेखिये, वेदना हुयी तो कविता बही न!
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल शनिवार (30-01-2016) को "प्रेम-प्रीत का हो संसार" (चर्चा अंक-2237) पर भी होगी।
ReplyDelete--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
--
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
बड़ा असमंजस है , क्यों ह्रदय है रोता ?
ReplyDeleteवही अस्फुट गूँज है ,ओ' नयन न सोता
मर्मस्पर्शी ....बहुत गहरी पंक्तियाँ
Bahut sunder
ReplyDeleteगहन और अर्थपूर्ण काव्य रचना
ReplyDeleteअच्छा हुआ आपने सारी बात ख़ुद ही कह डाली. वरना शिकायत तो हम सभी को थी. :)
ReplyDeleteकुछ शब्दों के नए रूपों का प्रयोग आपकी कविताओं की प्रभावशीलता में वृद्धि करते हैं ।
ReplyDeleteवाह....बेहतरीन और कुछ अलग सा शब्द विन्यास....बहुत बहुत बधाई.....
ReplyDeleteसंभवत: कह रहा हो बसंत कि गंध को अब मत लौटाओ
ReplyDeleteमंजरियों के संग महक कर , मंद -मंद ही मगर मुस्काओ
कितने दिन हैं बीते , स्वयं बन कर एक प्रारम्भ फिर आओ
ओ' कल-कल करती कविता न सही 'कल -कविता' ही गाओ .
...रुक जाना मना है जिंदगी चलते रहने का नाम है ..
बहुत सुन्दर ...
बहुत ही सुंदर रचना ।
ReplyDeleteसच है इधार्र उधर भटक के कविता बुला ही लेती ही अपने पास ... सर्जन अपना आकर्षण खोने नहीं देता ... शायद जीवन भी ...
ReplyDeleteबड़ा असमंजस है भाई कविता पढ़ने में. अंदर में कुछ चटकने लगता है..
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