आदमी में
इतनी अकल तो
जरूर है कि
जंगल होकर भी
आदमी की खाल
आसानी से
पहन सकता है
और अपनी
सभ्यता के बढ़ते
जंगली घास में
छोटा सा ही सही
बाड़ लगा सकता है
या इंसान बनकर
सभ्येतर दहाड़ों को
आगे बढ़कर खुद ही
पछाड़ लगा सकता है......
आदमी में
इतनी अकल तो
जरूर है कि
खून से सने
अपने जबड़ों को
कोमल पत्तियों से
बहला सकता है
और किसी
खरोंच की खोज में
झपटने को बेचैन
भीतर छिपे सारे
सांप-सियार
भेड़िया-गिद्ध को
किसी भी लोथड़े पर
यूँ ही टूट पड़ने से
बहुत हद तक
बचा सकता है.....
लगता तो है कि
आदमी में
इतनी अकल तो
जरूर है कि
वह स्वार्थ को
साधते हुए भी
पुरुषार्थ का खाल
आसानी से
पहन सकता है
और मन-ही-मन
अपना नाम
सिद्धार्थ रखकर
दिखावे के लिए
थोडा-बहुत ही सही
परमार्थ तो
जरूर कर सकता है
फिर अपने अनुसार
शब्दों का
शब्दार्थ भी
बदल सकता है........
तब आदमी क्या ?
और जंगल क्या ?
बस मौके-बे-मौके
पोल-पट्टी न खुले
इतनी उम्मीद तो
अब आदमी
अपने अकल से
जरूर लगा सकता है
और अपनी खाल में
पूरे जंगल को
किसी भी बाजार में
आसानी से
जरूर चला सकता है.......
आदमी में
इतनी अकल तो
जरूर है कि.......
इतनी अकल तो
जरूर है कि
जंगल होकर भी
आदमी की खाल
आसानी से
पहन सकता है
और अपनी
सभ्यता के बढ़ते
जंगली घास में
छोटा सा ही सही
बाड़ लगा सकता है
या इंसान बनकर
सभ्येतर दहाड़ों को
आगे बढ़कर खुद ही
पछाड़ लगा सकता है......
आदमी में
इतनी अकल तो
जरूर है कि
खून से सने
अपने जबड़ों को
कोमल पत्तियों से
बहला सकता है
और किसी
खरोंच की खोज में
झपटने को बेचैन
भीतर छिपे सारे
सांप-सियार
भेड़िया-गिद्ध को
किसी भी लोथड़े पर
यूँ ही टूट पड़ने से
बहुत हद तक
बचा सकता है.....
लगता तो है कि
आदमी में
इतनी अकल तो
जरूर है कि
वह स्वार्थ को
साधते हुए भी
पुरुषार्थ का खाल
आसानी से
पहन सकता है
और मन-ही-मन
अपना नाम
सिद्धार्थ रखकर
दिखावे के लिए
थोडा-बहुत ही सही
परमार्थ तो
जरूर कर सकता है
फिर अपने अनुसार
शब्दों का
शब्दार्थ भी
बदल सकता है........
तब आदमी क्या ?
और जंगल क्या ?
बस मौके-बे-मौके
पोल-पट्टी न खुले
इतनी उम्मीद तो
अब आदमी
अपने अकल से
जरूर लगा सकता है
और अपनी खाल में
पूरे जंगल को
किसी भी बाजार में
आसानी से
जरूर चला सकता है.......
आदमी में
इतनी अकल तो
जरूर है कि.......
हाँ इतनी अकाल तो ज़रूर है...पर क्या इसकी वाकई ज़रूरत है...
ReplyDeleteसच है, इतनी अकल तो है आदमी में जो प्रकृति में विकृति उत्पन्न कर सकता है।
ReplyDeleteआदमी में बहुत अकल है उस सब को बहुत करने की जो नहीं होना चाहिये कहीं !
ReplyDeleteबहुत सुंदर.
ReplyDeleteव्यंग्य की पैनी धार। आदमी के आदमी हेने पर प्रश्नचिन्ह। अज्ञेय जी के 'सांप' कविता की याद आई।
ReplyDeleteपोलपट्टी भले ही न खुले सबके सामने पर आदमी को एक और अदालत में भी जाना पड़ता है...अब आदमी है तो कैसा न कैसा दिल तो उसके पास है ही, उसी दिल की अदालत में जहां धरे रह जाते हैं सारे उपाय...
ReplyDeleteआदमी में इतनी अकल तो जरुर है.. पर कुछ में अकल का अकाल हमेशा रहता है...
ReplyDeleteआपने एकदम सही कहा..
इसी अकल में तो आदमी सबसे खतरनाक होता है
ReplyDeleteजानवर भी उसकी चाल से खौफ खाता है
अकाल सिर्फ आदमी में ही है ... वो सबको पछाड़ रहा है ... पर क्या प्राकृति से लड़ पायेगा ... अंत क्या होने वाला है ये सोच कर प्राकृति मुस्कुरा रही है ... क्या वो देख पा रहा है ...
ReplyDeleteहां इतनी तो है ही कि खुद के मनुष्य नहीं रहने पर भी मनुष्येतर होने का ढोंग किए जा रहे हैं और कम से कम सूत का व्यापार बढ़ाने में तो सहायक बन ही रहे हैं।
ReplyDeleteअजी इतनी उतनी क्या आदमी में अकल तो बहुत है मगर उसका सही इस्तेमाल करे तब न कुछ बात बने...वरना एसी अकल से तो बेअक्ल ही अच्छे...
ReplyDeleteआदमी को मयस्सर नहीं इंसा होना .....यही कहावत याद आ रही है ...काश इस ऊर्जा का हम सकारात्मक प्रयोग कर पाते तो अपनी धरा को स्वर्ग बनाते ...!!
ReplyDeleteआपकी इस उत्कृष्ट प्रविष्टि की चर्चा कल मंगलवार २४/१२/१३ को राजेश कुमारी द्वारा चर्चा मंच पर की जायेगी,आपका वहाँ हार्दिक स्वागत है।
ReplyDeleteजरूरी है और है भी आदमी में इतनी अकल ! प्रकृति सब देखती है मगर !
ReplyDeleteबाकी पढ़ते चकराये बहुत !
अकल है उसमे तो कुछ उम्मीद तो की ही जा सकती है इस इंसान से... सटीक अभिव्यक्ति...
ReplyDeleteबहुरूप है आदमी में और आदमी में बहुरूपिया. देखकर जिनके रूप, कर्म, मिलता है जीवन दर्शन. अति सुन्दर.
ReplyDeleteकि ...दोहन में जुटा रहे बस..... एकदम सटीक ..
ReplyDeleteअपना नाम
ReplyDeleteसिद्धार्थ रखकर
दिखावे के लिए
थोडा-बहुत ही सही
परमार्थ तो
जरूर कर सकता है बहुत सुंदर ..... गहन अभिव्यक्ति .....
क्या बात वाह! बहुत ख़ूब!
ReplyDeleteअरे! मैं कैसे नहीं हूँ ख़ास?
सही कहा आपने
ReplyDeletebehad khoobsurat ! andar ke asli jaanwar ko chupakar rakhne ke liye aadmi ki khaal pehan rakhi hai aaj ke aadmi nein, kitna akalmand hai
ReplyDeleteकुछ नहीं कहने को आजकल तो बस मंत्रमुग्ध सा पढ़ जाता हूँ आपको । व्यंग्य भी है सच्चाई भी है । हैट्स ऑफ इसके लिए |
ReplyDeletebahut hi umda likha hai aapne.. badhaai..
ReplyDeletePlease visit my site and share your views... Thanks
आदमी में अक्ल तो है मगर उसे स्वार्थ सिद्धि में झोंक कर बुद्धिमान समझ बैठा है खुद को .... तीखा वार
ReplyDeleteसो तो है ...
ReplyDeleteआदमी की सारी उम्र गुज़र जाती है और वह ऐसी अक्ल में ही उलझा रह जाता है.
ReplyDeleteबहुत बढ़िया प्रस्तुति...आप को मेरी ओर से नववर्ष की हार्दिक शुभकामनाएं...
ReplyDeleteनयी पोस्ट@एक प्यार भरा नग़मा:-तुमसे कोई गिला नहीं है