कल की रात
थोड़ा सा और जोश आ जाता तो
या थोड़ा सा और होश खो जाता तो
निधड़क ही मैं कालिदास बन जाती
और उनके जैसा बहुत सारा तो नहीं
पर कम-से-कम एक काव्य तो
निश्चित ही लिख पाती....
झटके से उठकर मैं मंदिर भागी और
माँ के मुख पर थोड़ा कालिख लगा आई थी
रास्ते में मिले छोटे-बड़े झाड़ियों पर चढ़कर
दो-चार कोमल टहनियाँ भी गिरा आई थी
फिर घर के अखबार से लेकर बिल तक
हर कागजनुमा पदार्थ को सहला दिया था
मानती हूँ कि इस फिरे हुए सिर को
श्री कालिदास ने और भी फिरा दिया था....
मेरे आस-पास मेरी लेखनी थी , मसि थी
मेरी इच्छा की मुट्ठी भी सच में बहुत कसी थी
स्वर्णपत्र , ताम्रपत्र , भोजपत्र आदि का
अच्छा खासा लगा अम्बार था
और रत्न जड़ित पीठिका पर
उत्तेजित हर एक उच्चार था
एक कोने से पर्याप्त प्रकाश करता हुआ
मेरा दिया भी कितना सुकुमार था
शायद मुझसे ज्यादा उसको ' मुझ-रचित '
एक चिर जीवन्त काव्य का इन्तजार था.....
मेरी कल्पनाशीलता भी कुछ
दिव्य दिग्दर्शन करके शब्दातीत थी
और सर्वश्रेष्ठता के शिखर पर पालथी मारकर
बैठी मेरी चेतना भी कालातीत थी
ऊपर से मेरा ' सख्य-भाव ' सबसे मिलकर
अपनी श्रेष्ठ भूमिका का उल्लेख चाहता था
और एक उत्कट प्रकृति प्रदत्त प्रेम का
मुझसे उल्लिखित लेख चाहता था.....
प्रसंगों-उपाख्यानों का समन्वयन के लिए
विहंगम अवलोकन का स्थापित आधार था
और अलकापुरी से रामगिरि की यात्रा के लिए
मेरा बोरिया-बिस्तर भी तैयार था
जब पूरे राग-रंग में बुरी तरह से डूबा हुआ
अलकेश्वर का राज्य और दरबार था
और भोगी चाटुकारों के बीच रहते-रहते
कुछ ऐसा शाप देने से उन्हीं को इनकार था....
फिर यक्ष-यक्षिणी को भी तो अलकेश्वर का
कोई भी फरमान कहाँ स्वीकार था ?
और विरह-वियोग का पुराना चलन
अब उनके लिए भी बेकार था
पद-प्रमादवश गलतियां किससे नहीं होती ?
उनका यही सीधा सरल सवाल था
वैसे भी आज के उपद्रवों के बवंडर में
उनका तो बहुत छोटा सा बवाल था.....
साथ ही इस गुनगुनी-कुनकुनी ठण्ड में
मेरी बादलों से हुई सारी वार्ताएं विफल रही
और लपलपाती हुई लेखनी उन पत्रों को
बस छेड़छाड़ करने में ही सफल रही
फिर अपने काव्य में किसी नये चरित्र को
पात्र बनाती , मुझमें कहाँ इतना दम था?
और सच कहने में लाज या संकोच कैसा
कि मुझमें ही वो पानी कम था .....
अकस्मात ही मेरी स्मृति-पटल को सूझा
कि एक ही कालिदास हैं नास्ति दूजा
तब तो सौंदर्य-वियोग , वैराग्य-वेदना आदि का
स्व्प्न सा ही सही फैला हुआ वितान था
उनको थोड़ा-बहुत अनुभूत करने के लिए
मेरे पास उपलब्ध सारा अनुमान था
पर मेरी भाषा में कहाँ उतना प्राण था ?
न ही देववाणी संस्कृत का ही मुझे ज्ञान था.....
अब इस दिन के उजाले में
आदरणीय कालिदास जी के आदरणीय भूत जी को
अति सम्मान के साथ भगा रही हूँ
और अंदर बैठे हीन भाव से ग्रस्त कवि को
ऐसी ही चलताऊ कविता के लिए जगा रही हूँ
और तो और आँख खोलकर इस साधना-स्थली को
किसी कबाड़खाना सा देख रही हूँ
और उन पत्रों की रद्दियों को
टोकड़ी में भर-भरकर बाहर फेंक रहीं हूँ
उनके साथ ही मेरा सारा शौक , सारा अरमान
ख़ुशी-ख़ुशी मुझे छोड़ कर जा रहा है
और श्री कालिदास जी मुझे कह रहे हैं कि
भई! चलताऊ कवि जी , हमें तो बड़ा मजा आ रहा है .
थोड़ा सा और जोश आ जाता तो
या थोड़ा सा और होश खो जाता तो
निधड़क ही मैं कालिदास बन जाती
और उनके जैसा बहुत सारा तो नहीं
पर कम-से-कम एक काव्य तो
निश्चित ही लिख पाती....
झटके से उठकर मैं मंदिर भागी और
माँ के मुख पर थोड़ा कालिख लगा आई थी
रास्ते में मिले छोटे-बड़े झाड़ियों पर चढ़कर
दो-चार कोमल टहनियाँ भी गिरा आई थी
फिर घर के अखबार से लेकर बिल तक
हर कागजनुमा पदार्थ को सहला दिया था
मानती हूँ कि इस फिरे हुए सिर को
श्री कालिदास ने और भी फिरा दिया था....
मेरे आस-पास मेरी लेखनी थी , मसि थी
मेरी इच्छा की मुट्ठी भी सच में बहुत कसी थी
स्वर्णपत्र , ताम्रपत्र , भोजपत्र आदि का
अच्छा खासा लगा अम्बार था
और रत्न जड़ित पीठिका पर
उत्तेजित हर एक उच्चार था
एक कोने से पर्याप्त प्रकाश करता हुआ
मेरा दिया भी कितना सुकुमार था
शायद मुझसे ज्यादा उसको ' मुझ-रचित '
एक चिर जीवन्त काव्य का इन्तजार था.....
मेरी कल्पनाशीलता भी कुछ
दिव्य दिग्दर्शन करके शब्दातीत थी
और सर्वश्रेष्ठता के शिखर पर पालथी मारकर
बैठी मेरी चेतना भी कालातीत थी
ऊपर से मेरा ' सख्य-भाव ' सबसे मिलकर
अपनी श्रेष्ठ भूमिका का उल्लेख चाहता था
और एक उत्कट प्रकृति प्रदत्त प्रेम का
मुझसे उल्लिखित लेख चाहता था.....
प्रसंगों-उपाख्यानों का समन्वयन के लिए
विहंगम अवलोकन का स्थापित आधार था
और अलकापुरी से रामगिरि की यात्रा के लिए
मेरा बोरिया-बिस्तर भी तैयार था
जब पूरे राग-रंग में बुरी तरह से डूबा हुआ
अलकेश्वर का राज्य और दरबार था
और भोगी चाटुकारों के बीच रहते-रहते
कुछ ऐसा शाप देने से उन्हीं को इनकार था....
फिर यक्ष-यक्षिणी को भी तो अलकेश्वर का
कोई भी फरमान कहाँ स्वीकार था ?
और विरह-वियोग का पुराना चलन
अब उनके लिए भी बेकार था
पद-प्रमादवश गलतियां किससे नहीं होती ?
उनका यही सीधा सरल सवाल था
वैसे भी आज के उपद्रवों के बवंडर में
उनका तो बहुत छोटा सा बवाल था.....
साथ ही इस गुनगुनी-कुनकुनी ठण्ड में
मेरी बादलों से हुई सारी वार्ताएं विफल रही
और लपलपाती हुई लेखनी उन पत्रों को
बस छेड़छाड़ करने में ही सफल रही
फिर अपने काव्य में किसी नये चरित्र को
पात्र बनाती , मुझमें कहाँ इतना दम था?
और सच कहने में लाज या संकोच कैसा
कि मुझमें ही वो पानी कम था .....
अकस्मात ही मेरी स्मृति-पटल को सूझा
कि एक ही कालिदास हैं नास्ति दूजा
तब तो सौंदर्य-वियोग , वैराग्य-वेदना आदि का
स्व्प्न सा ही सही फैला हुआ वितान था
उनको थोड़ा-बहुत अनुभूत करने के लिए
मेरे पास उपलब्ध सारा अनुमान था
पर मेरी भाषा में कहाँ उतना प्राण था ?
न ही देववाणी संस्कृत का ही मुझे ज्ञान था.....
अब इस दिन के उजाले में
आदरणीय कालिदास जी के आदरणीय भूत जी को
अति सम्मान के साथ भगा रही हूँ
और अंदर बैठे हीन भाव से ग्रस्त कवि को
ऐसी ही चलताऊ कविता के लिए जगा रही हूँ
और तो और आँख खोलकर इस साधना-स्थली को
किसी कबाड़खाना सा देख रही हूँ
और उन पत्रों की रद्दियों को
टोकड़ी में भर-भरकर बाहर फेंक रहीं हूँ
उनके साथ ही मेरा सारा शौक , सारा अरमान
ख़ुशी-ख़ुशी मुझे छोड़ कर जा रहा है
और श्री कालिदास जी मुझे कह रहे हैं कि
भई! चलताऊ कवि जी , हमें तो बड़ा मजा आ रहा है .
अब इस दिन के उजाले में
ReplyDeleteआदरणीय कालिदास जी के आदरणीय भूत जी को
अति सम्मान के साथ भगा रही हूँ
और अंदर बैठे हीन भाव से ग्रस्त कवि को
ऐसी ही चलताऊ कविता के लिए जगा रही हूँ
बहुत ही सशक्त रचना, शुभकामनाएं.
रामराम.
वाह वाह वाह-
ReplyDeleteक्या बात है -
मजबूती से बंधी कथा-
शुभकामनायें आदरेया-
waah waah bahut khoob kaha
ReplyDeleteससक्त रचना..... पढ़ने में सच मजा आ गया ..
ReplyDeleteबहुत ही लाजवाब ... हास्य के साथ संवेदनशीलता लिए ...
ReplyDeleteकालिदास कालिदास है, उनकी बराबरी कोई नहीं कर सकता। पर कई लेखनकर्ता अपने आपको कालिदास की परंपरा और कतार में देखना पसंद करते हैं। उस परंपराप्रिय लेखकों-कवियों पर करारा व्यंग्य। सार्थक कविता। परंपरा का निर्वाहन कोई बुरी बात नहीं, माने भी कि मैं उस परंपरा में आ रहा हूं। परंतु ध्यान रहे कि उसका घमंड न हो। बस चलताऊ कवि भी लेखन का बडा आनंद ले सकता है।
ReplyDeleteबहुत सुंदर उत्कृष्ट सशक्त रचना ....!
ReplyDelete==================
नई पोस्ट-: चुनाव आया...
और अंदर बैठे हीन भाव से ग्रस्त कवि को
ReplyDeleteऐसी ही चलताऊ कविता के लिए जगा रही हूँ..
कविता अति उत्तम ...पर यह ख्याल एकदम गलत ...चलताऊ कविता और आप ......!!!!!!
तथ्यपरक है...दिलचस्प है...मजेदार है...शानदार है ..सदाबहार है...और भी बहुत कुछ......
ReplyDeleteजी बिलकुल, हमें तो बड़ा मज़ा अरहा है। ऐसे ही लिखते रहिए शुभकामनायें :)
ReplyDeleteचाह वही थी, राह मिली क्या?
ReplyDeleteआपकी उत्कृष्ट प्रस्तुति बुधवारीय चर्चा मंच पर ।।
ReplyDeleteअब इस दिन के उजाले में
ReplyDeleteआदरणीय कालिदास जी के आदरणीय भूत जी को
अति सम्मान के साथ भगा रही हूँ
यही भूत तो जाने क्या क्या लिखवा देता है …। ऐसा भूत सवार ही रहे तो अच्छा है .... !!:))
आपका सन्देश मिला। …कई दिनों से भ्रमण पर हूँ। …अब शीघ्र ही डालती हूँ कुछ लिखकर !!
GAJAB KI CHAHAT
ReplyDeleteकल्पना की उड़ान ,व्यंग का समावेश रचना को जिवंत और रोचक बना दिया है -मजा है !
ReplyDeleteनई पोस्ट वो दूल्हा....
लेटेस्ट हाइगा नॉ. २
खूब.... अपने ही भीतर छुपे हर भाव को उकेरती रचना .....
ReplyDeleteअमृता जी, हास्य-व्यंग्य का बघार लगी इस सुंदर रचना के लिए बधाई..हो सकता है युगों बाद किसी कवि को आपका भूत भी सताने लगे...क्योंकि जैसे कालिदास दूसरा नहीं वैसा अमृता तन्मय नाम का जीव भी भगवान ने एक ही बनाया है...
ReplyDeleteभई वाह , बहुत सुंदर ! अनूठी रचना के लिए बधाई
ReplyDeleteसौंदर्य-वियोग, वैराग्य-वेदना आदि का स्व्प्न सा ही सही फैला हुआ यह वितान भोर होने पर बेशक आपको कालिदास प्रसंग का भूत लगे, पर भूत के संसर्ग से निकला आपका भूत-सन्दर्भित काव्य अत्यन्त रचनात्मक है। आपकी रचनात्मकता दिन-रात्रि ऐसे ही अग्रसर होती रहे, यही शुभकामना है।
ReplyDeleteहर बार कुछ नया रंग कुछ नया ढंग । आप क्या किसी से कम है क्या ज़रूरत है "कुछ" बनने की । आपने व्यंग्य में भी झंडे गाड़ दिए हैं जी । आजकल तो क़हर ढा रखा है आपने । ये ही धार बनी रहे तो एक दिन आपकी भी ऐसे ही नक़ल करने कि कोशिशें शुरू हो जाएँगी |
ReplyDeleteबेहद उत्कृष्ट प्रस्तुति.सुन्दर
ReplyDeleteफिर यक्ष-यक्षिणी को भी तो अलकेश्वर का
ReplyDeleteकोई भी फरमान कहाँ स्वीकार था ?
और विरह-वियोग का पुराना चलन
अब उनके लिए भी बेकार था
पद-प्रमादवश गलतियां किससे नहीं होती ?
उनका यही सीधा सरल सवाल था
वैसे भी आज के उपद्रवों के बवंडर में
उनका तो बहुत छोटा सा बवाल था.....
महादेवी (वर्मा )को कालिदास बनने की ज़रुरत क्या है। विरह के अपने नैजिक रंग होतें हैं। 'अमृता' का अपना रंग है। सशक्त लम्बी रचना।
आपकी कलम स्वयं सक्षम है कालजयी रचनाओं के निर्माण के लिए. इसे यथारूप सतत प्रवाहमान रहने दीजिये और हमें आनंद देने दीजिये. अनंत शुभकामनायें.
ReplyDeleteएक कोने से पर्याप्त प्रकाश करता हुआ
ReplyDeleteमेरा दिया भी कितना सुकुमार था
शायद मुझसे ज्यादा उसको ' मुझ-रचित '
एक चिर जीवन्त काव्य का इन्तजार था.....
शीघ्र ही इस दीप की मनोकामना पूर्ण हो !!!!
कालीदास बनाने के लिए सिर्फ लिखती जाइये...हिन्दी भाषा को भी एक अदद कालीदास की ज़रूरत है...
ReplyDeleteक्या बात है अमृता जी | आज फिर कर रही हूँ यायावरी आपके ब्लॉग की | निशब्द हूँ | माँ शारदे आपकी लेखनी को बुरी नज़र से बचाए | ढेरों शुभकामनाएं और प्यार |
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