Social:

Friday, October 25, 2013

अहं की व्यापारी हूँ ....

अहं की व्यापारी हूँ
आंतरिक संघर्ष से हारी हूँ
अत्यंत महत्वाकांक्षी हूँ
बस सम्मान की आकांक्षी हूँ ...

आस-पास के लोगों को
अपने हिसाब से गढ़ लेती हूँ
व उनकी असहमतियों को भी
सहमति की भाषा में पढ़ लेती हूँ...
कभी कुछ ऊँचे लोग दिखते हैं तो
उन्हें कुछ ही आदर दे देती हूँ
पर बराबरी वालों से बस
तुच्छतागर्भित सहिष्णुता बरत लेती हूँ
और निचले दर्जे की बात करने से ही
अपने-आप में अपमान अनुभव करती हूँ
वैसे भी उनकी औकात या बिसात क्या
कि उन्हें लोगों में भी गिनती करूँ
उनपर कभी गलती से जो
मामूली नजर भी पड़ जाती है तो
बहुत घृणा से भर जाती हूँ ....

बड़ी दुखकारी हूँ
उथली धूर्तता से खारी हूँ
अत्यंत असहनशील हूँ
सबसे ज्वलनशील हूँ ...

अबतक जो सिर मिलता रहा
उसी पर चढ़ कर चली हूँ
किसी भी तरह अपना कद बढ़ता रहे
इसी में जी-जान से लगी हूँ....
हर समय फन उठाये रहती हूँ
पूँछ से भी बिना कारण जहर छोड़ती हूँ...
जो मुझे गलती से भी दुःख पहुंचाते हैं
उनका तो जी दुखाने में
एक विचित्र सुख मिलता है
और पहुँच के बाहर वालों से
बस बदले का भाव पलता है.....
यदि किसी से मन मिल जाए तो
उनको जानबूझ कर सताती हूँ
कभी वे मुझसे निष्ठुरता बरते तो
उन्हें सुधरने का मौक़ा दिए बिना
उन्हीं के घर का रास्ता बताती हूँ ...

दम्भी और इच्छाचारी हूँ
बलात सबपर भारी हूँ
अत्यंत विध्वंसक हूँ
पर बड़ी आत्मप्रशंसक हूँ ....

सब दोषों की अजूबा दस्तकारी हूँ
इसलिए तो अहं की व्यापारी हूँ.

26 comments:

  1. मन मन की उलझन ...

    ReplyDelete
  2. सब कुछ समझकर कुछ न समझे .... मन की गति भी न्यारी है

    ReplyDelete
  3. दम्भी और इच्छाचारी हूँ
    बलात सबपर भारी हूँ
    अत्यंत विध्वंसक हूँ
    पर बड़ी आत्मप्रशंसक हूँ ....------

    मन के भीतर पलती अनकही बात----
    बहुत सही कहा है-----
    उत्कृष्ट प्रस्तुति
    सादर-----

    आग्रह है---
    करवा चौथ का चाँद ------

    ReplyDelete
  4. सब दोषों की अजूबा दस्तकारी हूँ
    इसलिए तो अहं की व्यापारी हूँ.,,

    बहुत सुन्दर पंक्तियाँ ,,,!

    RECENT POST -: हमने कितना प्यार किया था.

    ReplyDelete
  5. मन को गहरे जाने कौन,
    मन के भाव उभारे कौन।

    ReplyDelete
  6. ऐसे भाव मन पर लगी गहरी चोट से उपजते हैं .... मन की गति कौन समझ पाया है ।

    ReplyDelete
  7. अच्छी कविता. लगता है कि कोई किरदार मिल गया है. जिसकी व्याख्या कविता के रूप में प्रवाहित हो रही है.

    ReplyDelete
  8. 'अपर स्ट्रेटा' के जिस चरित्र का चित्र आपने खींचा है आजकल उनकी संख्या काफी बढ़ गयी है समाज में. शहरों में भी और गाँवों में भी. बहुत अच्छा लगा रचना को ये रूप देना.

    ReplyDelete
  9. समझते हुए भी खुद को बदलना कितना मुश्किल होता है ।

    ReplyDelete
  10. इंसान की आत्मस्वीकृति। अपनी कमियों की स्वीकृति इंसान कभी देता नहीं। आपने बडे साहस के साथ कविता में एक व्यक्ति की स्वीकृतियों को बांधा है।

    ReplyDelete
  11. स्वीकार किया है सबकुछ
    तो निःसंदेह दिल से प्यारी हूँ

    ReplyDelete
  12. एक चेहरे पे अनेक चेहरे .....
    गहन काव्य .....!!

    ReplyDelete
  13. भैया मैं सरकारी हूँ।

    कहने को जन कल्याणी हूँ ,

    अन्दर से सब पे भारी हूँ।

    ReplyDelete
  14. हर जगह मेरा ही बोलबाला है,
    लगता जैसे कोई महामारी हूँ ...
    लाज़वाब भाव दिए हैं अमृता जी

    ReplyDelete
  15. अहं की व्यापारी हैं...बहुत ही अच्छी बात है...पर कहीं स्वाभिमान की बात तो नहीं कर रही हैं आप?

    ReplyDelete
  16. हमारे मन की भी अजीब व निराली दुनिया है.. ये मन हर कदम हमारे जज्बे, जिद व जद्दोजेहद को परखता रहता है ...आखिर हम किस तरह अपने आप को जज्ब करते हैं... दरअसल इस तरह की कविता लिखने के लिए काफी हौसला चाहिए ...ये सबके बूते की चीज नहीं....
    खुले दिल से आपकी लेखनी को सलाम करता हूँ .................

    ReplyDelete
  17. मन की दबी आकांक्षा की स्वीकरोक्ति भी ईमानदार शुरुआत होती है ...
    गहन रचना ..

    ReplyDelete
  18. आप तो ऐसे न थे जैसे इस कविता में स्‍वयं को बता रहे हैं। और यदि आप ऐसे अपनी नजर में चढ़ते-उतरते रहते हैं तो कोई बात नहीं आपके मित्रों को आपका ये सच्‍च स्‍वीकारोक्ति भी अच्‍छी ही लगी। आपकी इस अंतस छटपटाहट पर आपके मित्रों को कम से कम इतनी संतुष्टि तो है ही कि यह सब कुछ 'आप' से ही जुड़ा हुआ है।

    ReplyDelete
  19. अति सुंदर, एक कविता ढेरो भाव

    ReplyDelete
  20. अहं की तुष्टि के लिये
    स्वार्थ में घिरी रहती हूँ
    अपनी कीमत आँकने को
    बाज़ार में खड़ी रहती हूँ
    हरेक के भीतर बसी बैठी हूँ
    हाँ .....मैं अहं की व्यापारी हूँ
    ...आपकी रचना से प्रेरित चंद पंक्तियाँ

    ReplyDelete
  21. बहुत ही सशक्त भाव अभिव्यक्त किये आपने, शुभकामनाएं.

    रामराम.

    ReplyDelete
  22. बेहतरीन और लाजवाब ।
    अमृता जी लाजवाब मैं जानता हूँ "अहं" नाम कि चीज़ तो आपको छू तक के नहीं गई है परा इस कविता का मर्म बहुत ही शानदार लगा |

    ReplyDelete
  23. ये तो किसी इच्छाधारी नागिन का चरित्र चित्रण है

    ReplyDelete
  24. अहं के मारों का खूब वर्णन किया आपने ...खुद परखने की एक कसौटी दे दी

    ReplyDelete
  25. अहंभाव का सुंदर चित्रण जिसे हम अकसर ठीक से देख ही नहीं पाते. आपकी यह कविता उसे देखती है और दिखाती है.

    ReplyDelete