हे ! शिशिर-यामिनी
न जाने किस गुप्त ग्रास से
या किसी त्रपित त्रास से
या विरक्त हो अपने विलास से
कहो , तू फिर चली आई
क्यों प्रिय के बाहुपाश से ?
हे ! कंजाभी कामिनी
यदि आ ही गयी तो तुम्हें
अपने अभिसार-पथ पर
सूक्ष्म-संकेत नहीं छोड़ना चाहिए
व सबके सामने अंगराई ले-लेकर
अंग-अंग नहीं तोड़ना चाहिए.....
रुको , हे ! रम्य रागिनी
अपने प्रणयी पलकों को
अब ऐसे मत खोलो
व श्लथित श्वासों में समा कर
शीत-तरंगों को भी न घोलो...
अरी ! मृदुल मानिनी
मणियों-सा ये ओस-कण है
या तू ही लज्जा से पानी-पानी है
चल हट , कुछ कह या न कह
हर पात-पात पर तो
बस तेरी ही कहानी है.......
हे ! अखंड अभिमानिनी
यूँ अलक लटों को बिखरा कर
किसके लिए तुम मनहर सा
क्रीड़ा-मंडप सजा रही हो ?
व खद्योतों के मद्धम-मद्धम जोत से
मंजुल मंजिर बजा रही हो ?
हे ! सौम्य साक्षिणी
सुन ! तू तो है
अपने कर-कंकण की ताल पर
मोर-मनों को नचाने वाली
और गात-गात को गलबहियाँ दे कर
एक मदिर क्लेश भर जाने वाली......
जरा ठहर , हे ! भद्रा भामिनी
बस उन ठिठुरती कमलिनियों को
किंकणी धुन दे कर ऐसे ही मत जगाना
और कमल तो ठहरे कमल हैं
वे तो यूँ ही किंजल उड़ाते रहते हैं
उन्हें छेड़कर और मत उकसाना
नहीं तो तेरी चुनरी चेष्टातुर हो कर भी
उन्हें आवृत न कर पाएगी
और असफल किन्तु प्रिय प्रयास पर
तू खुद ही अनायास मुस्कायेगी......
अरी ओ ! शरत शालिनी
तू अब वहाँ जा जहाँ तेरे लिए
मिलन के मधुर-गान से
चहुँओर मंगल-असीस मंत्रित हो
जितना चाहे तू अंक फैलाकर उसे भर
पर उससे पहले तू वहाँ जा जहाँ
वियोगवश दुबलाई काया
दुसह्य दुःख से विदग्ध हैं
उस दुःख को जितना संभव हो सके
अपने कोमल स्पर्श से कम कर ....
हे ! शिशिर-यामिनी .
न जाने किस गुप्त ग्रास से
या किसी त्रपित त्रास से
या विरक्त हो अपने विलास से
कहो , तू फिर चली आई
क्यों प्रिय के बाहुपाश से ?
हे ! कंजाभी कामिनी
यदि आ ही गयी तो तुम्हें
अपने अभिसार-पथ पर
सूक्ष्म-संकेत नहीं छोड़ना चाहिए
व सबके सामने अंगराई ले-लेकर
अंग-अंग नहीं तोड़ना चाहिए.....
रुको , हे ! रम्य रागिनी
अपने प्रणयी पलकों को
अब ऐसे मत खोलो
व श्लथित श्वासों में समा कर
शीत-तरंगों को भी न घोलो...
अरी ! मृदुल मानिनी
मणियों-सा ये ओस-कण है
या तू ही लज्जा से पानी-पानी है
चल हट , कुछ कह या न कह
हर पात-पात पर तो
बस तेरी ही कहानी है.......
हे ! अखंड अभिमानिनी
यूँ अलक लटों को बिखरा कर
किसके लिए तुम मनहर सा
क्रीड़ा-मंडप सजा रही हो ?
व खद्योतों के मद्धम-मद्धम जोत से
मंजुल मंजिर बजा रही हो ?
हे ! सौम्य साक्षिणी
सुन ! तू तो है
अपने कर-कंकण की ताल पर
मोर-मनों को नचाने वाली
और गात-गात को गलबहियाँ दे कर
एक मदिर क्लेश भर जाने वाली......
जरा ठहर , हे ! भद्रा भामिनी
बस उन ठिठुरती कमलिनियों को
किंकणी धुन दे कर ऐसे ही मत जगाना
और कमल तो ठहरे कमल हैं
वे तो यूँ ही किंजल उड़ाते रहते हैं
उन्हें छेड़कर और मत उकसाना
नहीं तो तेरी चुनरी चेष्टातुर हो कर भी
उन्हें आवृत न कर पाएगी
और असफल किन्तु प्रिय प्रयास पर
तू खुद ही अनायास मुस्कायेगी......
अरी ओ ! शरत शालिनी
तू अब वहाँ जा जहाँ तेरे लिए
मिलन के मधुर-गान से
चहुँओर मंगल-असीस मंत्रित हो
जितना चाहे तू अंक फैलाकर उसे भर
पर उससे पहले तू वहाँ जा जहाँ
वियोगवश दुबलाई काया
दुसह्य दुःख से विदग्ध हैं
उस दुःख को जितना संभव हो सके
अपने कोमल स्पर्श से कम कर ....
हे ! शिशिर-यामिनी .
बेहद उम्दा प्रस्तुति
ReplyDeleteशिशिर यामिनी और कवयित्री का सख्यपन कई भावों को उकेर रहा है :-)
ReplyDeleteबहुत खूब लिखा है आपने |
ReplyDelete"झारखण्ड की सैर"
वाह बहुत ही उत्कृष्ट रचना
ReplyDeleteवाह बहुत उम्दा प्रस्तुति
ReplyDeleteशिशिर-यामिनी का अभिसार !
ReplyDeleteशब्द-शब्द ज्यों भावागार !!
कविता रीतिकालीन स्वप्निल गलियों में आधुनिक स्वच्छंदता के साथ विचरण करती है । आपने बिल्कुल शरद पूर्णिमा के भाव को कविता में ढाल दिया ।
ReplyDeleteमौसम ...सब कुछ इतना ही तो है....हर शब्द में सन्देश .....चिट्टी लिखने का नायाब अंदाज .....
ReplyDeleteवाह...हिंदी में संस्कृत भाषा का आनन्द दिलाती मनहर रचना...बधाई !
ReplyDeleteबेहद सुंदर रचना लिखने के लिए बधाई !
ReplyDeleteRECENT POST : - एक जबाब माँगा था.
हे ! शिशिर-यामिनी .
ReplyDeleteअद्भुत रचना अमृता जी .....!!बहुत सुंदर .....
.इस अद्भुत रचना के लिए बधाई अमृता जी.... ...बहुत सुन्दर.
ReplyDeleteशिशिर यामिनी का असफल किन्तु प्रिय प्रयास कवयित्री की चाहनाओं को अवश्य पूर्ण करेगा एक पुन: नए प्रयास के साथ, क्योंकि कविता में उकेरी गई बहुविधि अभिकल्पनाएं आखिर शिशिर यामिनी ही तो पूर्ण करेगी।
ReplyDeleteतृषित कामनी का अस्फुट आलाप।
ReplyDeleteशिशिर-यामिनी का अनुपम वर्णन … मनोहारी भाव व शब्द संयोजन … बधाई अमृता जी
ReplyDeleteइस लाजवाब शिल्प और कथ्य का क्या कहना. पर यामिनी से जरूर कहूँगा शीघ्र आये अनंत-भासिनी बनकर, अरिष्ट-हारिणी बनकर .
ReplyDeleteअनुपम ... मन तृप्त हो गया ... मेरे भी ब्लॉग पर दस्तक दें
ReplyDeleteअद्भुत रचना
ReplyDeleteबहुत ही सुन्दर, अलंकृत रचना। आपकी काव्य-शैली की जितनी प्रशंसा की जाय, कम है। मुझे बहुत अच्छा लगता है कि आज के इस दौर में भी इतनी सुन्दर रचना गढ़ने वाले लोग मौजूद हैं।
ReplyDeleteशिशिर यामिनी को कोमल भाव विभिन्न रूप ओर अध्बुध शब्द कौशल से लिखा है ... सुन्दर शब्द विन्यास रचना को नई ऊंचाई दे रहा है ...
ReplyDeleteतिमिर के आलोक की शब्द माधुरी सी लगी शिशिर-यामिनी ...|
ReplyDeleteसाधो आ. अमृता जी ...
अति सुन्दर कविता |
ReplyDeleteआदरणीय अमृता जी ..आपकी इस रचना में हिंदी के संस्कृत का प्रयोग बखूबी किया गया है ...आपसे निवेदन है की यदि आप तमाम कठिन शब्दों के मतलब जैसा उर्दू के शायर करते है कर दें तो जन मानस में हिंदी के प्रचार प्रसार और नए शब्दसंग्रह से बिचारों की अभ्व्यक्ति को एक नयी दिशा मिलेगी ..सुंदर भाव , सुंदर शब्द समायोजन , के साथ आपकी रचनाएँ चिंतन के लिए प्रेरित करती हैं ..आप इस ब्लॉग जगत से जुड़े तमाम साहित्यकारों की माला की एक बेमिशाल कड़ी हैं .इश्वर आपकी कलम को यूं ही रचनाधर्मिता का आशीर्वाद दे ..सादर
ReplyDeleteअद्भुत! शब्दों और भावों का बहुत ख़ूबसूरत संयोजन...
ReplyDeleteहे ! कंजाभी कामिनी
ReplyDeleteयदि आ ही गयी तो तुम्हें
अपने अभिसार-पथ पर
सूक्ष्म-संकेत नहीं छोड़ना चाहिए
व सबके सामने अंगराई ले-लेकर
अंग-अंग नहीं तोड़ना चाहिए....
कृष्ण का विलास तू है ,
गोपियाँ की आस तू है अरि ओ शिशिर यामिनी
सुंदर भाव और अर्थ की अन्विति समस्वरता लिए है यह रचना विरह विदग्ध तन भी।
अभिसार का क्रन्दन भी।
अहा, इसे कहते हैं पठनीयता और आनन्द का संमिश्रण। बहुत सुन्दर।
ReplyDeleteसुन्दर भाव सुन्दर शब्दावली .....!! :)
ReplyDeleteशिशिर यामिनी कविता आता शिशिर है जो अपना अहसास दे जाता है. उसका बहुत अच्छा भावायोजन आपने किया है.
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