अहं की व्यापारी हूँ
आंतरिक संघर्ष से हारी हूँ
अत्यंत महत्वाकांक्षी हूँ
बस सम्मान की आकांक्षी हूँ ...
आस-पास के लोगों को
अपने हिसाब से गढ़ लेती हूँ
व उनकी असहमतियों को भी
सहमति की भाषा में पढ़ लेती हूँ...
कभी कुछ ऊँचे लोग दिखते हैं तो
उन्हें कुछ ही आदर दे देती हूँ
पर बराबरी वालों से बस
तुच्छतागर्भित सहिष्णुता बरत लेती हूँ
और निचले दर्जे की बात करने से ही
अपने-आप में अपमान अनुभव करती हूँ
वैसे भी उनकी औकात या बिसात क्या
कि उन्हें लोगों में भी गिनती करूँ
उनपर कभी गलती से जो
मामूली नजर भी पड़ जाती है तो
बहुत घृणा से भर जाती हूँ ....
बड़ी दुखकारी हूँ
उथली धूर्तता से खारी हूँ
अत्यंत असहनशील हूँ
सबसे ज्वलनशील हूँ ...
अबतक जो सिर मिलता रहा
उसी पर चढ़ कर चली हूँ
किसी भी तरह अपना कद बढ़ता रहे
इसी में जी-जान से लगी हूँ....
हर समय फन उठाये रहती हूँ
पूँछ से भी बिना कारण जहर छोड़ती हूँ...
जो मुझे गलती से भी दुःख पहुंचाते हैं
उनका तो जी दुखाने में
एक विचित्र सुख मिलता है
और पहुँच के बाहर वालों से
बस बदले का भाव पलता है.....
यदि किसी से मन मिल जाए तो
उनको जानबूझ कर सताती हूँ
कभी वे मुझसे निष्ठुरता बरते तो
उन्हें सुधरने का मौक़ा दिए बिना
उन्हीं के घर का रास्ता बताती हूँ ...
दम्भी और इच्छाचारी हूँ
बलात सबपर भारी हूँ
अत्यंत विध्वंसक हूँ
पर बड़ी आत्मप्रशंसक हूँ ....
सब दोषों की अजूबा दस्तकारी हूँ
इसलिए तो अहं की व्यापारी हूँ.
आंतरिक संघर्ष से हारी हूँ
अत्यंत महत्वाकांक्षी हूँ
बस सम्मान की आकांक्षी हूँ ...
आस-पास के लोगों को
अपने हिसाब से गढ़ लेती हूँ
व उनकी असहमतियों को भी
सहमति की भाषा में पढ़ लेती हूँ...
कभी कुछ ऊँचे लोग दिखते हैं तो
उन्हें कुछ ही आदर दे देती हूँ
पर बराबरी वालों से बस
तुच्छतागर्भित सहिष्णुता बरत लेती हूँ
और निचले दर्जे की बात करने से ही
अपने-आप में अपमान अनुभव करती हूँ
वैसे भी उनकी औकात या बिसात क्या
कि उन्हें लोगों में भी गिनती करूँ
उनपर कभी गलती से जो
मामूली नजर भी पड़ जाती है तो
बहुत घृणा से भर जाती हूँ ....
बड़ी दुखकारी हूँ
उथली धूर्तता से खारी हूँ
अत्यंत असहनशील हूँ
सबसे ज्वलनशील हूँ ...
अबतक जो सिर मिलता रहा
उसी पर चढ़ कर चली हूँ
किसी भी तरह अपना कद बढ़ता रहे
इसी में जी-जान से लगी हूँ....
हर समय फन उठाये रहती हूँ
पूँछ से भी बिना कारण जहर छोड़ती हूँ...
जो मुझे गलती से भी दुःख पहुंचाते हैं
उनका तो जी दुखाने में
एक विचित्र सुख मिलता है
और पहुँच के बाहर वालों से
बस बदले का भाव पलता है.....
यदि किसी से मन मिल जाए तो
उनको जानबूझ कर सताती हूँ
कभी वे मुझसे निष्ठुरता बरते तो
उन्हें सुधरने का मौक़ा दिए बिना
उन्हीं के घर का रास्ता बताती हूँ ...
दम्भी और इच्छाचारी हूँ
बलात सबपर भारी हूँ
अत्यंत विध्वंसक हूँ
पर बड़ी आत्मप्रशंसक हूँ ....
सब दोषों की अजूबा दस्तकारी हूँ
इसलिए तो अहं की व्यापारी हूँ.
मन मन की उलझन ...
ReplyDeleteसब कुछ समझकर कुछ न समझे .... मन की गति भी न्यारी है
ReplyDeleteदम्भी और इच्छाचारी हूँ
ReplyDeleteबलात सबपर भारी हूँ
अत्यंत विध्वंसक हूँ
पर बड़ी आत्मप्रशंसक हूँ ....------
मन के भीतर पलती अनकही बात----
बहुत सही कहा है-----
उत्कृष्ट प्रस्तुति
सादर-----
आग्रह है---
करवा चौथ का चाँद ------
सब दोषों की अजूबा दस्तकारी हूँ
ReplyDeleteइसलिए तो अहं की व्यापारी हूँ.,,
बहुत सुन्दर पंक्तियाँ ,,,!
RECENT POST -: हमने कितना प्यार किया था.
मन को गहरे जाने कौन,
ReplyDeleteमन के भाव उभारे कौन।
ऐसे भाव मन पर लगी गहरी चोट से उपजते हैं .... मन की गति कौन समझ पाया है ।
ReplyDeleteअच्छी कविता. लगता है कि कोई किरदार मिल गया है. जिसकी व्याख्या कविता के रूप में प्रवाहित हो रही है.
ReplyDelete'अपर स्ट्रेटा' के जिस चरित्र का चित्र आपने खींचा है आजकल उनकी संख्या काफी बढ़ गयी है समाज में. शहरों में भी और गाँवों में भी. बहुत अच्छा लगा रचना को ये रूप देना.
ReplyDeleteसमझते हुए भी खुद को बदलना कितना मुश्किल होता है ।
ReplyDeleteइंसान की आत्मस्वीकृति। अपनी कमियों की स्वीकृति इंसान कभी देता नहीं। आपने बडे साहस के साथ कविता में एक व्यक्ति की स्वीकृतियों को बांधा है।
ReplyDeleteस्वीकार किया है सबकुछ
ReplyDeleteतो निःसंदेह दिल से प्यारी हूँ
सीधी सपाट बात
ReplyDeleteएक चेहरे पे अनेक चेहरे .....
ReplyDeleteगहन काव्य .....!!
भैया मैं सरकारी हूँ।
ReplyDeleteकहने को जन कल्याणी हूँ ,
अन्दर से सब पे भारी हूँ।
हर जगह मेरा ही बोलबाला है,
ReplyDeleteलगता जैसे कोई महामारी हूँ ...
लाज़वाब भाव दिए हैं अमृता जी
अहं की व्यापारी हैं...बहुत ही अच्छी बात है...पर कहीं स्वाभिमान की बात तो नहीं कर रही हैं आप?
ReplyDeleteहमारे मन की भी अजीब व निराली दुनिया है.. ये मन हर कदम हमारे जज्बे, जिद व जद्दोजेहद को परखता रहता है ...आखिर हम किस तरह अपने आप को जज्ब करते हैं... दरअसल इस तरह की कविता लिखने के लिए काफी हौसला चाहिए ...ये सबके बूते की चीज नहीं....
ReplyDeleteखुले दिल से आपकी लेखनी को सलाम करता हूँ .................
मन की दबी आकांक्षा की स्वीकरोक्ति भी ईमानदार शुरुआत होती है ...
ReplyDeleteगहन रचना ..
आप तो ऐसे न थे जैसे इस कविता में स्वयं को बता रहे हैं। और यदि आप ऐसे अपनी नजर में चढ़ते-उतरते रहते हैं तो कोई बात नहीं आपके मित्रों को आपका ये सच्च स्वीकारोक्ति भी अच्छी ही लगी। आपकी इस अंतस छटपटाहट पर आपके मित्रों को कम से कम इतनी संतुष्टि तो है ही कि यह सब कुछ 'आप' से ही जुड़ा हुआ है।
ReplyDeleteअति सुंदर, एक कविता ढेरो भाव
ReplyDeleteअहं की तुष्टि के लिये
ReplyDeleteस्वार्थ में घिरी रहती हूँ
अपनी कीमत आँकने को
बाज़ार में खड़ी रहती हूँ
हरेक के भीतर बसी बैठी हूँ
हाँ .....मैं अहं की व्यापारी हूँ
...आपकी रचना से प्रेरित चंद पंक्तियाँ
बहुत ही सशक्त भाव अभिव्यक्त किये आपने, शुभकामनाएं.
ReplyDeleteरामराम.
बेहतरीन और लाजवाब ।
ReplyDeleteअमृता जी लाजवाब मैं जानता हूँ "अहं" नाम कि चीज़ तो आपको छू तक के नहीं गई है परा इस कविता का मर्म बहुत ही शानदार लगा |
ये तो किसी इच्छाधारी नागिन का चरित्र चित्रण है
ReplyDeleteअहं के मारों का खूब वर्णन किया आपने ...खुद परखने की एक कसौटी दे दी
ReplyDeleteअहंभाव का सुंदर चित्रण जिसे हम अकसर ठीक से देख ही नहीं पाते. आपकी यह कविता उसे देखती है और दिखाती है.
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