बेजुबान लुटने वालों की
कुछ बात करूँ या कि
बेख़ौफ़ लूटने वालों की...
बेकुसूर नुचे खालों की या
बेरहमी से खाल नोचने वालों की...
बेदाम पर बिकने वालों की या
बेहुरमती बेचने वालों की...
लश्करे-जुल्म सहने वालों की या कि
जुल्म-दर-जुल्म बाँटने वालों की...
शीशों के दरकते कतारों की या फिर
उन पत्थर के दिलदारों की...
किसकी और कितनी बात करूँ ?
तबक-दर-तबक बात कर लेने से
ये सिलसिला जो थम जाता तो
बेहयाई से गम खिलाने वाले
ख़ामोशी से खुद ही गम खाते...
अपने खाल के दर्द को
जिस शिद्धत से वे पहचानते
हर खाल के दर्द को भी
उसी शिद्धत से मुजर्र्ब दर्द मानते...
पर इक साँस भी चलती है तो
तेज़ , तड़पती तलवार की तरह...
काफिर बलाएँ यहाँ बढ़ती हैं
खौफ़नाक आजार की तरह...
हवा में हरवक्त मौत है मंडराती
बेदर्दी से बेदाम खालों पर ही
पुरजोर आँधियाँ है बरसाती...
कौन किससे पूछे कि
हाय! ये क्या हो रहा है ?
कहकहा लगा कहर खुद बता रहा है...
अब तो हमारे हिस्से बस यही है
कि पीटे छाती , फाड़े गला
बस बचाते हुए अपना खाल
और निकालते रहें बातों से माल...
उसे खींच कर दूर तक ले जाएँ
मजमा लगाएँ , महफ़िल सजाएँ
कफ़न फाड़कर क़यामत को बुलाएँ...
खुद को ज़िंदा रखते हुए
या तो लुटने वालों में या फिर
लूटने वालों में शामिल हो जाएँ .
बहुत उम्दा सुंदर रचना,,,
ReplyDeleteRecent post : होली की हुडदंग कमेंट्स के संग
bahut hi uttam bhavpoorn rchnaa.
ReplyDeleteखुद को ज़िंदा रखते हुए
ReplyDeleteया तो लुटने वालों में या फिर
लूटने वालों में शामिल हो जाएँ .....
वाकई घोर असमंजस की स्थिति. सच में कई बार ऐसे हालत में कुछ सूझता नहीं. अच्छा, बुरा, सही या गलत. कैफ़ी साब का शेर याद रहा है-
बेलचे लाओ, खोलो ज़मीं की तहें
मैं कहाँ हूँ दफ़न कुछ पता तो चले
सटीक रेखांकन आज के दौर का .... बातें सारी विचारणीय हैं
ReplyDeleteकिसकी और कितनी बात करूँ ?
ReplyDeleteमौन हैं.....मूक दर्शक बने देख रहें हैं....बह रहे हैं धार में...
अनु
अब तो हमारे हिस्से बस यही है....
ReplyDeleteखारे रेगिस्तान .....तपता समंदर और चीत्कार करती अनकही वेदना ....
बढ़िया शीशा दिखाया है ..
ReplyDeleteबधाई !
कौन किससे पूछे कि
ReplyDeleteहाय! ये क्या हो रहा है ?
कहकहा लगा कहर खुद बता रहा है...
...वाकई.....!!!
मजमा लगाएँ , महफ़िल सजाएँ,,
ReplyDeleteकफ़न फाड़कर क़यामत को बुलाएँ...बहुत बेहतरीन पंक्तियाँ !!!
RECENT POST: जुल्म
बहुत ही सटीक प्रस्तुति,आभार.
ReplyDeletebhavpurn aur behtareen rachna, khaaskar, nishkarsh ke roop me likhi aakhiri panktiyan hum sabhi ke saamne ek prashn chhod deti hain! bahut khoob.
ReplyDeleteसामाजिक परिपेक्ष्य पर सटीक रचना ....
ReplyDeleteबहुत कठिन है इनमे शामिल ना होकर भी खुद को जिंदा रखना...गहन भाव... आभार
ReplyDeleteसच को प्रस्तुत करती सटीक अभिव्यक्ति
ReplyDeleteमार्मिक......आज तो आपने अवाक कर दिया......क्या कहूँ लफ्ज़ नहीं हैं बहुत बहुत बेहतरीन है ये रचना.........हैट्स ऑफ इसके लिए।
ReplyDeleteबहुत सुन्दर रचना |
ReplyDeleteकभी यहाँ भी पधारें और लेखन भाने पर अनुसरण अथवा टिपण्णी के रूप में स्नेह प्रकट करने की कृपा करें |
Tamasha-E-Zindagi
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निशब्द करती रचना
ReplyDeleteशुभकामनायें !!
खुद को ज़िंदा रखते हुए
ReplyDeleteया तो लुटने वालों में या फिर
लूटने वालों में शामिल हो जाएँ ....बहुत सुन्दर रचना |
शीशों के दरकते कतारों की या फिर
ReplyDeleteउन पत्थर के दिलदारों की......इसके अलावा क्या टिप्पणी करुं।
खुद को ज़िंदा रखते हुए
या तो लुटने वालों में या फिर
लूटने वालों में शामिल हो जाएँ .......इन में सब कुछ है क्या कहूं।
कुटिल त्रासदियों पर उल्ल्ोखनीय कवितामय प्रहार। अंत:करण का ज्वालामुखी विद्रूपताओं, समस्याओं से तप कर फूट पड़ा है जैसे।
Deleteकौन किससे पूछे कि
ReplyDeleteहाय! ये क्या हो रहा है ?
कहकहा लगा कहर खुद बता रहा है...
बहुत सही
.... अनुपम भाव लिये बेहतरीन प्रस्तुति
एक तीसरा मार्ग भी है...और उस मार्ग पर चलना सीखना ही होगा..यथार्थवादी चित्रण !
ReplyDeleteअमरिता जी वर्तमान वास्तविकताओं का बारिकी से बडे आक्रोश के साथ वर्णन किया है। यह आक्रोश समाज के प्रत्येक का है, अतः आपकी कविता सबकी भावनाओं का वर्णन करने में सक्षम है।
ReplyDelete'अब तो हमारे हिस्से बस यही है
कि पीटे छाती , फाड़े गला
बस बचाते हुए अपना खाल
और निकालते रहें बातों से माल...' यह पंक्तियां आपके वाणी के पैनेपन को दिखाती है।
सुन्दर भाव लिये बेहतरीन प्रस्तुति
ReplyDeleteतुम्हे जो पसंद हो वही बात करेगें ,बस
ReplyDeleteबाकी तो बकवास है :-)
किसकी और कितनी बात करू....यदि सोचने बैठे तो ..बस ऐसे ही चलता है सब अनुत्तरित
ReplyDeleteसुन्दर और सटीक चित्रण .........समाज के हर तबके से सवाल करती और उत्तर देती रचना
ReplyDeleteकौन किससे पूछे?
ReplyDeleteउत्तर किसी के पास नहीं और तटस्थ रहना भी मुश्किल !
खुद को ज़िंदा रखते हुए
ReplyDeleteया तो लुटने वालों में या फिर
लूटने वालों में शामिल हो जाएँ .
यथार्थवादी चित्रण करती सुंदर कविता.
आपकी इस प्रविष्टी की चर्चा आज रविवार (07-04-2013) के चर्चा मंच 1207 पर लिंक की गई है कृपया पधारें. सूचनार्थ
ReplyDeleteबहुत सुंदर रचना...
ReplyDeleteउम्दा
ReplyDeleteलूटने ओर लूटने वालों में कोई खास फर्क नहीं है आज ... समय देख के मुखौटा बदलते रहते हैं ...
ReplyDeleteउम्दा रचना है ...
बेहतर है चुप रहें मन के कपाट खोल दें - समाधान ऊपरवाला देता ही देता है
ReplyDeletesaral va ispasht- ***
ReplyDeleteशुक्रिया शुक्रिया शुक्रिया .आपके टिपियाने का बेबसी का यथास्थितिवाद से बंद रास्तों का सुन्दर बयान है यह रचना .
ReplyDeleteअब तो हमारे हिस्से बस यही है
ReplyDeleteकि पीटे छाती , फाड़े गला
बस बचाते हुए अपना खाल
और निकालते रहें बातों से माल...
उसे खींच कर दूर तक ले जाएँ
मजमा लगाएँ , महफ़िल सजाएँ
कफ़न फाड़कर क़यामत को बुलाएँ...
खुद को ज़िंदा रखते हुए
या तो लुटने वालों में या फिर
लूटने वालों में शामिल हो जाएँ .
निःशब्द करते जीवन की सच्चाई को बयां करते .....
वर्तमान जीवन की कशमकश को सुंदरता से उकेरा है, वाह् !!!!
ReplyDeleteकहकहा लगा कर कहर खुद बता रहा है ...
ReplyDeleteसकारात्मक बातों के बीच भी जो हो रहा हो आसपास , उसे नजरंदाज कब तक किया जाए , चुपके से तहरीरों में उतर जाता है !
सहनशक्ति की परीक्षा न हो..तभी तक सहन है।
ReplyDeleteबहुत सुन्दर रचना |
ReplyDeleteखुद को ज़िंदा रखते हुए
ReplyDeleteया तो लुटने वालों में या फिर
लूटने वालों में शामिल हो जाएँ .
यही जीवन रह गया है