विभिन्न विधियों से
चलती रहती है
मेरी चरित्र-योजना ...
मैं अपनी अस्मिता को
निजता तथा विशिष्टा के
लचीले अनुपातों को
घटा-बढ़ा कर
समायोजित करती रहती हूँ
जिसके प्रभावगत प्रस्तुति से
निर्धारित भी करती हूँ कि
किस स्तर पर
अथवा किस सीमा तक
तादात्म्य स्थापित करना है ....
अनेक शैलियों में
ये चरित्र रचना-विधान
ढूंढ़ती रहती है
अपनी अभिव्यक्ति
जैसे कि -
विशेषताओं के लिए
वर्णात्मक शैली
चित्त-वृतियों के लिए
आत्मकथनात्मक शैली
आपको आकृष्ट करने के लिए
संवादात्मक शैली
वाग्जाल में क्रीड़ा हेतु
प्रसाद अथवा समास शैली
आदि-आदि
पर सच कहूँ तो
मुझे तो यही लगता है कि
मेरे अति विशिष्ट यथार्थ के
प्रभावी प्रक्षेपण के लिए
अथवा आचरण-व्यवहार के
विश्वसनीय संयोजन के लिए
केवल और केवल
अति नाटकीय शैली ही
जीवंत सम्प्रेषण का
माध्यम रह जता है
और मैं
अपनी नाटकीय मुस्कराहट की
जटिलता से आक्रांत हूँ .
कटु सत्य! बेहद प्रभावी और उम्दा रचना।
ReplyDelete~ मधुरेश
sundar abhivyakti
ReplyDeleteबहुत ही भावपूर्ण प्रभावी रचना,आभार.
ReplyDeleteachha hai, parantu gadyatamak hai. aapki pahle padhi rachnayen isase bahut behtar thi.
ReplyDeleteऔर मैं
ReplyDeleteअपनी नाटकीय मुस्कराहट की
जटिलता से आक्रांत हूँ .
बेहद गहन भाव ...
This comment has been removed by the author.
ReplyDeleteबहुत ही सुन्दर.....
ReplyDeleteकुछ मजबूरियां ऐसी भी हैं ज़माने में ...वरना मजबूरियां न कहलातीं ......बहुत सुन्दर !!!
ReplyDelete'मैं अपनी अस्मिता को
ReplyDeleteनिजता तथा विशिष्टा के
लचीले अनुपातों को
घटा-बढ़ा कर
समायोजित करती रहती हूँ
और मैं
...
अपनी नाटकीय मुस्कराहट की
जटिलता से आक्रांत हूं।'
इन वाक्यों को लेकर कवि के भावों का मूल्यांकनः
अमरिता जी आपको बता देता हूं आप भी अनुभव करें। इंसान अपने जिंदगी में जब भी मुड कर पिछे देखता है, अपने जीवन को दुबारा आंकने की कोशिश करता है तब उसे लगता है कि मैं बचपन में मुर्ख था, बावला था। बहुत दूर का ही नहीं तो कल परसों के व्यवहार भी उसे गलत ओर नाटकीय लगते हैं। कारण वर्तमान में वह अपने आपको बहुत शहाना(होशियार)समझता है। असल बात यह है कि उसके जीने के तरिके सही होते हैं। नाटकीय जीना, नाटक करना और वह भी हमेशा करना कभी भी संभव नहीं होता। मन का भ्रम होता है कि मैं नाटकीय जीवन जी रहा हूं।
अपने नाटकीय मुस्कुराहट का इजहार करने वाला आक्रांत हो सकता है पर उसका आक्रांत होना तो नाटकीय नहीं? उसका स्वीकारना तो नाटकीय नहीं ना? जहां स्वीकार हो रहा है वहां नाटकीयता भी खत्म होती है और अपराध भाव भी।
drvtshinde.blogspot.com
उसका आक्रांत होना तो नाटकीय नहीं? उसका स्वीकारना तो नाटकीय नहीं ना? जहां स्वीकार हो रहा है वहां नाटकीयता भी खत्म होती है और अपराध भाव भी....................आपकी कविता की बहुत अच्छी समालोचना की है विजय शिंदे ने। ऐसा ही कुछ मैं भी कहना चाहता था। मेरी बात उन्होंने सहजता से कह दी, इस हेतु उनका आभार। कविता ह्रदय को हिलानेवाली है।
Deleteमैं भी सहमत हूँ ...लेकिन रचनाकार की मनः स्थिथि को रचनाकार ही बेहद समझ सकता है बिजय जी का तर्क लाजबाब है
Deleteअपने नाटकीय मुस्कुराहट का इजहार करने वाला आक्रांत हो सकता है पर उसका आक्रांत होना तो नाटकीय नहीं? यह भी बिलकुल सही है पर अमृता जी जहाँ तक मैं समझ रहा हूँ ये कहाँ मान रहीं हैं के ये आक्रान्त होना आखिरी बार है ..बार बार आक्रांत होना भी तो नाटकीयता ही लगता है ..लेकिन विजय जी की नजर से देखो तो वो भी सही लगते हैं .इस तरह की शानदार समीक्षा से हमारी सोच नित प्रति गहरी होगी ..सादर बधाई के साथ
अमरिता जी आपकी कविता 'आक्रांत हूं' के माध्यम से सार्थक चर्चा विकेश जी और डॉ.आशुतोश जी के साथ। पर मैं मुस्कुरा रहा हूं कारण अमरिता जी की कविता के साथ घसिटा जाने से। चलो भाई हमारे विचार मिल रहे हैं कहीं हमारा पुराना अनजाना रिश्ता जुड रहा है। ... मजाकिया चिकौटी - यह मेरी अभिव्यक्ति नाटकीय नहीं! अमरिता जी के साथ आज दुबार जुडकर ('शुरूआत' में थोडी देर पहले और अभी 'आक्रांत हूं' के बहाने) हंस रहा हूं।
Deleteयह नाटकीयता सच में अखरती है..... सबके मन सी लिखी है
ReplyDeleteनाटकीय मुस्कराहट की जटिलता : अब आचरण व्यवहार में विश्वसनीयता की अनिवार्य शर्त का पैमाना बदल गया है ....हम खुद की मुस्कान मिटाने पर आमादा हैं ...सहजता की तिलांजलि तो हमने पहले ही दे दी है .......
ReplyDelete---------------------
बेहद ही गहरी बात .....
गहन-दर्शन से भरी भावभीनी रचना अमृता जी .......
ReplyDeleteधन्यवाद.....
उम्दा,बहुत प्रभावशाली सुंदर प्रस्तुति !!!
ReplyDeleterecent post : भूल जाते है लोग,
अक्सर ज़िन्दगी की जटिल परिस्थियों में भी हम मुस्कान लिए ही रहते है. उसकी सच्चाई अपना जी जानता है. दूसरे रूप के लिए रहीम की नसीहतें हैं. यथार्थ को एक खूबसूरत नाटकीय रूप देना भी एक कला है. सब नहीं कर सकते ये . पर आक्रांत होना लाजिमी है.
ReplyDeleteबहुत बढिया
Deleteगहराई में उतर कर मोती निकाल लाईँ आप !
ReplyDeleteaapka samraddh shabd kosh aur gahan bhaavpurn abhivyaktie! behad khoob, baaki sab logon ki tippaniyan us par char chand lagati hain.
ReplyDeleteपर सच कहूँ तो
ReplyDeleteमुझे तो यही लगता है कि
मेरे अति विशिष्ट यथार्थ के
प्रभावी प्रक्षेपण के लिए
अथवा आचरण-व्यवहार के
विश्वसनीय संयोजन के लिए
केवल और केवल
अति नाटकीय शैली ही
जीवंत सम्प्रेषण का
माध्यम रह जता है
और मैं
अपनी नाटकीय मुस्कराहट की
जटिलता से आक्रांत हूँ .
बेबाक कथन दिल खोलकर
बहुत सुंदर रचना
ReplyDeleteक्या बात
सच कहा, जब दर्पण में अपना चेहरा जटिल लगता है तो दुख होता है।
ReplyDeleteनवसंवत्सर की शुभकामनायें
ReplyDeleteआपको आपके परिवार को हिन्दू नववर्ष
की मंगल कामनायें
बेहद ही गहरी बात लिखी है अपने...
ReplyDeleteआपकी अन्य रचनाये भी पढ़ी.. काफी गहराई है सब में समय अभाव के कारण सब पर अलग अलग टिप्पणी नहीं कर प् रहा हूँ.
लगभग हर कोई अपनी आत्म-दर्शन ईमानदारी पूर्वक करे तो पाएगा कि वह भी इस नाटक से कहीं न कहीं आक्रांत है
ReplyDeleteसुन्दर .....
साभार!
गहरी मोती है
ReplyDeleteकेवल और केवल
ReplyDeleteअति नाटकीय शैली ही
जीवंत सम्प्रेषण का
माध्यम रह जता है
...सच है
परिस्थिति अनुसार न जाने कितनी शैलियों को अपनाना पड़ता है ... गहन अभिव्यक्ति
ReplyDeleteआपको पढ़ना एक अलग दुनिया की सैर करना है ....
ReplyDeleteपढ़ कर आपको कुछ अपने आप से और करीब आ जाती हूँ ....
हलाकि दूरी बहुत है .....कुछ तो कम होती है ...
बहुत सार्थक रचना ...