उसके उन्मद में ऊभ-चूभ हूँ या कि
सचमुच ये तन-मन दहा जा रहा है
देखो न ! इस लघुपात्र के ऊपर से ही
कैसे सब कुछ हाय! बहा जा रहा है
उखड़ी-पुखड़ी साँसों से लगता है कि
मेरा कोई संयोगी सजन आ रहा है
पर कौन है वो जो इसतरह से मुझे
किसलिए और कहाँ लिए जा रहा है
मैं भरी हूँ या यूँ ही उलट दी गयी हूँ
मुझसे कुछ भी , न कहा जा रहा है
उपहास-उपराग रोक , टोके तब भी
अपने उपसरण में न सुना जा रहा है
हाय! कितना अंगड़-खंगड़ था बांधा
एक- एक करके सब छूटा जा रहा है
और हीरा जान जिसे जतन से गांठा
वह भी तो अब देखो! लुटा जा रहा है
ऐसे लुट- पीट कर ही तो , मैंने जाना
वो लूटेरा , मुझमें ही भरा जा रहा है
इस भराव से इतनी हलकी हो गयी कि
ये उपल- सा हिया उड़ा ही जा रहा है
मैं सिक्ता....उसको संचय करूँ कैसे ?
यूँ बरस कर जो भिगाए जा रहा है या
कितना उलाहना दूँ अपने पात्र को ही
जो मुझे लघुताबोध कराये जा रहा है
देखो न ! इस लघुपात्र के ऊपर से ही
कैसे सब कुछ हाय! बहा जा रहा है
मैं भरी हूँ या यूँ ही उलट दी गयी हूँ
मुझसे कुछ भी , न कहा जा रहा है .
अद्भुत ....अद्भुत ....कितना ईश्वरीय है ये एहसास ....
ReplyDeleteबहुत ही सुन्दर रचना अमृता जी ....
लाजवाब ....
मैं सिक्ता....उसको संचय करूँ कैसे ?
ReplyDeleteयूँ बरस कर जो भिगाए जा रहा है या
कितना उलाहना दूँ अपने पात्र को ही
जो मुझे लघुताबोध कराये जा रहा है
बहुत सुन्दर भाव
कविता आरंभ से धीरे- धीरे ऊपर उठने लगती है। उसमें एक कसाव और खिंचाव है। लगता है जो भाव लिखने नहीं चाहिए वह लिखे जा रहे हैं। वैसे फिलहाल दुनिया और विश्व साहित्य श्लिलता और अश्लिलता के परे जा चुका है इसीलिए प्रकटिकरण पर किसी को कोई रोक नहीं और अभिव्यक्ति तो होनी ही चाहिए। पर कविता के अंतिम दो परिच्छेद पाठकों की आरंभिक मानसिकता को बिल्कुल झूठ साबित करते है।
ReplyDelete'मैं सिक्ता....उसको संचय करूं कैसे ?
यूं बरस कर जो भिगाए जा रहा है या
कितना उलाहना दूं अपने पात्र को ही
जो मुझे लघुताबोध कराए जा रहा है
देखो न ! इस लघुपात्र के ऊपर से ही
कैसे सब कुछ हाय! बहा जा रहा है
मैं भरी हूं या यूं ही उलट दी गयी हूं
मुझसे कुछ भी , न कहा जा रहा है।'
इन पक्तियों में अपने लघुता की बात को कहा है। अर्थात् हमेशा इंसान ताकतों के बलबूते पर अपने आपको कर्ता-धर्ता साबित करने की कोशिश करता है, वहां आपकी यह पंक्तियां अपनी लघुता का एहसास करवाके देती है। आपके 'मैं' में प्रत्येक व्यक्ति समाते जा रहा है यह कविता की विशेषता है। एक तरफ प्राकृतिक अद्भुत ताकतें और एक तरफ इंसान। प्राकृतिक तौर पर उसे भरपूर मिल रहा है, वह प्यास लगे इंसान की तरह सोख भी रहा है। और अंततः लघुपात्र भर कर बहने का वर्णन भी अलौकिकता का ही संदेश दे रहा है। आपकी कविता में अलौकिक भावों की भरमार है। अमरिता जी आपने लेखन किस मानसिकता में किया पता नहीं पर एक बेहतरिन रचना को जन्म दिया है।
मैं सिक्ता....उसको संचय करूँ कैसे ?
ReplyDeleteयूँ बरस कर जो भिगाए जा रहा है या
कितना उलाहना दूँ अपने पात्र को ही
जो मुझे लघुताबोध कराये जा रहा है
लघुता के बोध का एहसास ही ऊपर उठाने की प्रेरणा है .... बहुत सुंदर रचना
अरे वाह! बहुत सुन्दर
ReplyDeleteउसके उन्मद में ऊभ-चूभ हूँ या कि
ReplyDeleteसचमुच ये तन-मन दहा जा रहा है
देखो न ! इस लघुपात्र के ऊपर से ही
कैसे सब कुछ हाय! बहा जा रहा है...
.....शायद इसी को प्रेम में आकंठ डूबना कहते हैं ...है न ....अद्भुत !
पहले समझने में कठिनाई हुई अमृता जी.....
ReplyDeleteऐसा सृजन करना आसान नहीं...
बहुत सुन्दर!!!
अनु
गंभीर सृजन ... शब्द ओर प्रेम का आत्मिक संयोजन ...
ReplyDeleteबेहद गहन ... भाव
ReplyDeleteअनुपम प्रस्तुति ... आभार
वाह ! लघुता का अहसास और अनंत का भराव..कितना अद्भुत है यह मिलन..बधाई, इस सुंदर रचना के लिए..अमृता जी.
ReplyDeleteबहुत सुन्दर।
ReplyDelete..और मन में क्या कुछ न हुआ जा रहा है ...तेरे इश्क नचायो ....
ReplyDeleteWords gravid with intense emotions!
ReplyDeleteअद्भुत.. अलौकिकता से लबालब ... बहुत सुन्दर भाव... शुभकामनायें
ReplyDeleteहाय! कितना अंगड़-खंगड़ था बांधा
ReplyDeleteएक- एक करके सब छूटा जा रहा है
और हीरा जान जिसे जतन से गांठा
वह भी तो अब देखो! लुटा जा रहा है
क्या कहूँ ,उबरू तो कुछ कहूँ ...
हार्दिक शुभकामनायें ..
बहुत सुंदर अमृता जी ......
ReplyDeleteमैं सिक्ता....उसको संचय करूँ कैसे ?
ReplyDeleteयूँ बरस कर जो भिगाए जा रहा है या
कितना उलाहना दूँ अपने पात्र को ही
जो मुझे लघुताबोध कराये जा रहा है
बहुत सुन्दर लिखा है अमृता जी!
गहरी अभिव्यक्ति.... पाठकों को बाँध लेती हैं रचनाएँ
ReplyDelete* ऐसी रचनाएँ
ReplyDeleteप्रेममय पंक्तियाँ. अद्भुत कृति. अपनी लघुता का एहसास सबको कहाँ पाता है.एक पहलू यह भी है कि अगर दूसरी तरफ प्रेम का सागर हो तो वहाँ अपना वजूद लघु ही रहता है.
ReplyDeletewahh... bahut sundar Rachna..
ReplyDeleteबहुधा लगता छलक रहा हूँ,
ReplyDeleteया पहले से अधिक भरा हूँ।
वाह बहुत खुबसूरत
ReplyDeleteतेरे मन में राम [श्री अनूप जलोटा ]
ReplyDeleteअमृताजी आपने कौनसी भाव मन में रखकर इस कविता की रचना की पता नहीं परन्तु यह संगम है विभिन्न भावों का -बहुत बढ़िया
latest post तुम अनन्त
अहसास अपनी जगह है, लेकिन ऐसी अभिव्यक्ति दुर्लभ मिलती है.
ReplyDeleteजब हम पूर्णतः रिक्त होकर पुनः भरते हैं तब यह भाव जगाता है खुबसूरत ही नहीं बहुत सुन्दर ...
ReplyDeleteबहुत खुबसूरत, भाव मन से छलक रहा है
ReplyDeleteभावनाओं को शब्दों में व्यक्त करने की अनुपम कला है आपके पास. बधाइयाँ.
ReplyDeleteयक़ीनन अद्वैत रचना।।।।
ReplyDeleteयक़ीनन अद्वैत रचना।।।।
ReplyDeleteजरा बात खुलकर तो समझाओं भाई- मैं हॅंू सीधा-सादा, मैं हॅू भोला-भाला ।
ReplyDeleteमैं कवि नहीं इसलिए.....
एक अर्थी कविता हैं तो
"सार्थक लेखन"
द्विअर्थी है तो
"साहसिक लेखन"
विजय जी की टिप्पणी के आलोक में इसे पढना एक अलौकिक जगत से पहचान करवाता है ! साधू !
ReplyDeleteऐसा कैसे लिख लेती हैं आप - कई बार पढ़ा तब थोडा समझ पायी-सुन्दर और लाजावाब
ReplyDeleteशून्य से अनंत की ऑर. अद्भुत काव्य .
ReplyDeleteऐसे लुट- पीट कर ही तो , मैंने जाना
ReplyDeleteवो लूटेरा , मुझमें ही भरा जा रहा है!!!!!
अहा!! इस अनुरागी मन की गति जाने नहीं कोय | अद्भुत !