न उसने मुझे
कभी पढ़ना चाहा
न ही उसे पढने की
मैंने कोशिश की...
इस फ़रक के दरम्यान
पनपती रही
हमारी ही
दीवारों की भाषा
जो देती रही
हमारे शहतीरों को
कुछ अलग-सा अर्थ
व चौखटों-दरवाजों को
मढ़ी हुई मजबूती...
बनाती रही
हमारे अहाते में
थोड़ी-सी जगह
धूप के लिए
और बिखेरती रही
अँधेरी गुफाओं से चुने
कुछ दाने
चिड़ियों के लिए...
दीवारों की भाषा
उपेक्षित कोनों में
बनते-बिगड़ते
अनपेक्षित दरारों में
उग आये
तिनका-पातों को
खुरच-खुरच कर देती रही
हद से ज्यादा हरापन
और फूंक-फूंककर
भरती रही अपनी ही
सिहरती साँसें
हमारे चुम्बकीय घेरे में
घुमती हवा के फेफड़ों में...
साथ ही आराम से
आदिम अगियारी को
घेरकर बैठी रात को
बताती रही
अपनी ही उत्पत्ति
फिर उधेड़े लिपियों के
उधेड़-बुन से रेशों से
खींचती रही रेखाचित्र....
दीवारों की भाषा
अब झूलते चित्रों को
नीचे की खाई में
झाँकने नहीं देती है
बस कुछ
उलझे समीकरणों के बीच
बराबर का लम्बा-सा
चिह्न देकर
खींचती जा रही है
अपने अनंत तक
ताकि
अब कोई भाषांतर न हो .
समीकरण में बराबर का चिन्ह बना रहे।
ReplyDeleteवेगवती धारा सी सशक्त अभिव्यक्ति भाव की अनुभाव की संबंधों की सीलन और दूरी की बुनावट की ,आहट की वैचारिक वैभिन्न्य की ....
Deleteउलझे समीकरणों के बीच
ReplyDeleteबराबर का लम्बा-सा
चिह्न देकर
खींचती जा रही है
अपने अनंत तक
ताकि
अब कोई भाषांतर न हो .
बहुत उम्दा अभिव्यक्ति ,आभार अमृता जी,,
Recent Post : अमन के लिए.
एक-दूसरे को पढ़ने-पढ़ाने की नाकाम कोशिश के बीच दीवारों की भाषा कुछ उलझे समीकरणों के वजूद को जरूर तलाशती रहती है ...भाषांतर मिट भी जाए, अनंत का अंत हो जाए ..तो भी .....
ReplyDeleteउत्कृष्ट व मिजाजी....
दीवारों की भाषा का उम्दा समीकरण
ReplyDeleteदीवारों की भाषा बहुत बढ़िया..
ReplyDeleteज़रूरी है यह संतुलन, सीख देती है आपकी रचना
ReplyDeleteदुखदायी भूलें....
ReplyDeleteभाषा तो अपनी ही थी, बस समझ पाने की कमी से दीवारें खड़ी हो गयीं ... और अब हरसूं गूंजती हैं ...
ReplyDeleteबेहद गहन, सुन्दर अभिव्यक्ति।
न उसने मुझे
ReplyDeleteकभी पढ़ना चाहा
न ही उसे पढने की
मैंने कोशिश की...
इस फ़रक के दरम्यान
पनपती रही
हमारी ही
दीवारों की भाषा............
बस कुछ
उलझे समीकरणों के बीच
बराबर का लम्बा-सा
चिह्न देकर
खींचती जा रही है
अपने अनंत तक
सामयिक और गहन चिंतन
दीवार तो फिर दीवार ठहरे. एक बार उठ क्या गए...
ReplyDeleteदीवारों की भाषा बिना भाषान्तर के..
ReplyDeleteसुंदर विचार, सुंदर कविता.
दीवारों की भाषा को समझने का सार्थक प्रयास। उसके भीतर बाहर चल रहे कुछ हलचलों को सही ढंग से पाठकों के सामने रखा है।
ReplyDeleteनवरात्रों की बहुत बहुत शुभकामनाये
ReplyDeleteआपके ब्लाग पर बहुत दिनों के बाद आने के लिए माफ़ी चाहता हूँ
बहुत खूब बेह्तरीन अभिव्यक्ति!शुभकामनायें
आज की मेरी नई रचना आपके विचारो के इंतजार में
मेरी मांग
दीवारों की भाषा का संदर्भ काबिल-ए-गौर है। नई रचना के शुक्रिया और स्वागत।
ReplyDeleteदिल को छू ली रचना
ReplyDeleteशुभकामनायें !!
अक्सर एक दूसरे का अभूजापन ..एक अजनबियत पैदा कर देता है ...या खड़ी कर देता है एक दीवार ..जिसमें न खिड़कियाँ न झरोखे ...न ही कोई संध होती है जिससे आवागमन का कोई बहाना तो मिले ....
ReplyDeleteउलझे समीकरणों से ही ऋजु समीकरण निकल आयेगें
ReplyDeleteवेगवती धारा सी सशक्त अभिव्यक्ति भाव की अनुभाव की संबंधों की सीलन और दूरी की बुनावट की ,आहट की वैचारिक वैभिन्न्य की ....
ReplyDeleteअरे वाह! बहुत ख़ूब
ReplyDeleteऔर यह भी!
केतना हमे सतइबू हमार सजनी!
bahut sashakt abhivyakti. badhai.
ReplyDeleteउलझे समीकरणों से ही ऋजु समीकरण उपजेगें -मनवा धीरज रख!दीवारें तब ध्वस्त हो जायेगी
ReplyDeleteउलझे समीकरणों के बीच
ReplyDeleteबराबर का लम्बा-सा
चिह्न देकर
खींचती जा रही है
अपने अनंत तक
कोशिश की है तो अंतर मिटेगा ही.... सशक्त अभिव्यक्ति
sundar rachna amrita ji aapne sambandho ko alag tarah se samjhne ki koshish ki hai
ReplyDeleteKaan bharti
ReplyDeleteहमारी ही
दीवारों की भाषा.....
mahimamandan
फिर उधेड़े लिपियों के
उधेड़-बुन से रेशों से
खींचती रही रेखाचित्र....
Sampidan
अँधेरी गुफाओं से चुने
कुछ दाने
चिड़ियों के लिए...
Vishaad ko apnaane
अब झूलते चित्रों को
नीचे की खाई में
झाँकने नहीं देती है
बस कुछ
kaa prabhaav chhodti kavitaa ...
Roman fonts mein likh dee meri tippani taki Bhashaantar toh banaa rahe ....... Sadho Amrita Ji
समीकरण बने हैं तो सम पर आने की थ्योरी भी होगी अवश्य- बस थोड़ी खोज !
ReplyDeleteनव संवत्सर की हार्दिक बधाई और शुभकामनाएँ!! बहुत दिनों बाद ब्लाग पर आने के लिए में माफ़ी चाहता हूँ
ReplyDeleteबहुत खूब बेह्तरीन अभिव्यक्ति
आज की मेरी नई रचना आपके विचारो के इंतजार में
मेरी मांग
न उसने मुझे
ReplyDeleteकभी पढ़ना चाहा
न ही उसे पढने की
मैंने कोशिश की...
इस फ़रक के दरम्यान
पनपती रही
हमारी ही
दीवारों की भाषा
जो देती रही
हमारे शहतीरों को
कुछ अलग-सा अर्थ ...
संवाद जब मौन का हो जाए तो मौन अपनी भाषा में ही बोलने लगता है ... ओर दिवारों की भाषा मुखर हो जाती है ...
बहुत गहरे भाव रहे होंगे आपके भीतर जब इसे लिखा होगा ..दो बार पढ़ा पर समझ के बाहर ही है..अमृता जी
ReplyDelete
ReplyDeleteअब झूलते चित्रों को
नीचे की खाई में
झाँकने नहीं देती है
बस कुछ
उलझे समीकरणों के बीच
बराबर का लम्बा-सा
चिह्न देकर
खींचती जा रही है
अपने अनंत तक
ताकि
अब कोई भाषांतर न हो .
निःशब्द करती रचना
दीवारों की भाषा..........बेहतरीन और लाजवाब।
ReplyDeleteपढो,ना पढो ... फिर भी ज़िन्दगी की किताब लिखती जाती है और थरथराते एहसास मन को सुनते जाते हैं कितना कुछ
ReplyDeleteमेरे विचाराधीन।
ReplyDeleteअनुपम शब्द ,अद्भुत भाव और चमत्कारिक बिम्ब, वाह !!!!!!!
ReplyDeleteबहुत सुन्दर प्रस्तुति!
ReplyDeleteआपको सूचित करते हुए हर्ष हो रहा है कि-
आपकी इस प्रविष्टी की चर्चा कल बुधवार (17-04-2013) के "साहित्य दर्पण " (चर्चा मंच-1210) पर भी होगी! आपके अनमोल विचार दीजिये , मंच पर आपकी प्रतीक्षा है .
सूचनार्थ...सादर!
लाजवाब |
ReplyDeleteकभी यहाँ भी पधारें और लेखन भाने पर अनुसरण अथवा टिपण्णी के रूप में स्नेह प्रकट करने की कृपा करें |
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बीच में मौन की दीवार और मन में न जाने कितने संवाद .... बेहतरीन रचना ।
ReplyDeleteभाषांतर भी दीवारें खड़ी कर देता है. लेकिन मनुष्य के लिए भाषा का औज़ार आवश्यक है. मौन विकल्प नहीं. बहुत ही सुंदर रचना.
ReplyDelete
ReplyDeleteसुन्दर अभिव्यक्ति...अमृता जी ...
बहुत सुन्दर....बेहतरीन प्रस्तुति...अमृता जी !!
ReplyDeleteपधारें "आँसुओं के मोती"
कभी पढ़ना नहीं चाहा
ReplyDeleteकभी उसने पढ़ कर भी समझना नहीं चाहा
या पढ़कर भी अनपढ़ा सा लगा उसे
या पढ़कर भी अनदेखा किया
समझने...न समझने और समझ कर अनदेखा करने के बीच अपने अपने प्रयासों में लगा रहना...बावजूद इसके कई बार समझ नहीं पाते हम..या कहें कि समझने का प्रयास भी नहीं करते..फिर तो भाषा का अंतर रह ही जाएगा..या कहें कि भाषा पर दोषारोपण करने को ही बचा रह जाता है
एक दुसरे को न पढना संवाद हीनता है ,संवादहीनता ही दोनों के बीच का दीवार...उसका परिणाम की सशक्त अभीव्यक्ति
ReplyDeletelatest post"मेरे विचार मेरी अनुभूति " ब्लॉग की वर्षगांठ
दीवारों की भाषा...उलझे समीकरण हल करने का प्रयास..बहुत सुन्दर और गहन अभिव्यक्ति...
ReplyDeleteउलझे समीकरणों के बीच
ReplyDeleteबराबर का लम्बा-सा
चिह्न देकर
खींचती जा रही है
अपने अनंत तक
ताकि
अब कोई भाषांतर न हो ........
इन पंक्तियों में तुमने सब कुछ कह दिया है अमृता.....
अमृता,अति सुंदर.....बिंबों का प्रयोग सटीक....अर्थवन हो उठता है एक एक शब्द....और पुनरावृत्ति भी नहीं....बिलकुल एक प्रवाह लिए..बहुत खूब....
ReplyDeleteबहुत सुंदर .बेह्तरीन अभिव्यक्ति !शुभकामनायें.
ReplyDeleteसुन्दर और सटीक रचना | जीवन में संतुलन कितना मायने रखता है सही रूप में समझती है |
ReplyDeleteकभी यहाँ भी पधारें और लेखन भाने पर अनुसरण अथवा टिपण्णी के रूप में स्नेह प्रकट करने की कृपा करें |
Tamasha-E-Zindagi
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बहुत ही सारगर्भित और मनोहारी कविता |
ReplyDeleteबेह्तरीन अभिव्यक्ति,शुभकामनायें
ReplyDeleteबहुत भावपूर्ण ....एक बार पड़ने की चीज़ नहीं ....इसे तो बार बार पढ़ना होगा ....
ReplyDeleteसमता की खोज में सुन्दर काव्य दर्शन .
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