इतना न पुकार , मुझे
ओ! पुकारती हुई पुकार ...
मुझ अनाधार को देकर
इक अनहोता-सा अनुराग-भार
अनबोले हिया में क्यों ?
मचाया है हाही हाहाकार
अनमना ये मन है
विचित्र-सा हर क्षण है
और है विस्मित क्षितिज तक
केवल वेदना-विस्तार...
इतना न पुकार , मुझे
ओ! पुकारती हुई पुकार...
अंधियारी-सी सींखचों में
अनजाने ही घूम रहा
अबतक मेरा सहज संसार
मुंदी पलकों पर पग-पग कर
पड़ती रही तेरी चमकार
चट चिराग जलाकर क्यों ?
तुमने खोल दिया
अपना निश्छल नेह-द्वार...
इतना न पुकार , मुझे
ओ! पुकारती हुई पुकार...
प्रतिपल छीजती जाती
जो है ये जीवन-डोर
मैं न जानूं खींचे क्यों ?
मुझे बस तेरी ही ओर
जो नहीं है , शेष कुछ भी
कैसे कहूँ ? वही मेरी निधि
मैं अभिसारिका तेरी
अभिसार कर , चाहे जिस विधि
मंजुल मुख फेर , मत कर
तू , मुझसे निठुर व्यवहार...
इतना न पुकार , मुझे
ओ! पुकारती हुई पुकार...
सब कहते हैं कि
ये बिछोह की पीड़ा ही
प्रेम की सतत प्रतीति है
और विषाद की रीती घड़ियों में
अनबुझ मिलन की ही रीति है
ये चिर प्यास भी है तुझसे
संतृप्ति रसमय भी है तुझसे
तू भी , बासंतिक बावरा सा
बरसा मुझपर अपना रसधार...
इतना न पुकार , मुझे
ओ! पुकारती हुई पुकार .
बासंती अट्टालिका पर मनभावन शब्द-संसार।
ReplyDelete...................................................................................
ReplyDeleteवाह...
ReplyDeleteमैं अभिसारिका तेरी
अभिसार कर , चाहे जिस विधि
मंजुल मुख फेर , मत कर
तू , मुझसे निठुर व्यवहार...
बहुत सुन्दर!!!
अनु
बहुत सुंदर भावभिव्यक्ति ।
ReplyDeleteआपकी पोस्ट 14 - 02- 2013 के चर्चा मंच पर प्रस्तुत की गई है
ReplyDeleteकृपया पधारें ।
सब कहते हैं कि
ReplyDeleteये बिछोह की पीड़ा ही
प्रेम की सतत प्रतीति है
और विषाद की रीती घड़ियों में
अनबुझ मिलन की ही रीति है
ये चिर प्यास भी है तुझसे
संतृप्ति रसमय भी है तुझसे
तू भी , बासंतिक बावरा सा
बरसा मुझपर अपना रसधार...!
बहुत सुन्दर...
ये चिर प्यास भी है तुझसे
ReplyDeleteसंतृप्ति रसमय भी है तुझसे
तू भी , बासंतिक बावरा सा
बरसा मुझपर अपना रसधार...बहुत उम्दा पन्तियाँ,,,,,
RECENT POST... नवगीत,
सुंदर पुकार ...
ReplyDeleteवाह ..... मन के भावों की सुंदर अभिव्यक्ति..
ReplyDelete
ReplyDeleteवाह आ. अमृता तन्मय जी ,
मानसी वर्णित, मीत से नीत लगाना सरस लाक्षिक श्रंगारिता
साधूवाद प्रेषित करता हूँ ।
अपने शब्दों में कहूं तो ....
puchhkar aae, wo sapnon mein
apnon ki tarah,
jo kholte the darwaaje kabhi
Aznabiyon ki tarah..... By ~Pradeep Yadav~
..जब विस्मित क्षितिज के पार अनबोले हिया में मन अनमना हो जाए जब प्रतिपल छीजते वक़्त में पीड़ा शेष रह जाए ... तब इतनी सी पुकार.. इतनी सी पुकार ...
ReplyDeleteअमृता , बेहद खूबसूरत अनुभूति और उसका विस्तृत बयान.....बिछोह की पीड़ा घनीभूत हो बरस रही....मन धरती हो क्षितिज को तरस रही.....ये किसने है पुकारा मुझे की मन खिल सा गया है.....मेरी साँसों के स्पंदन से तेरी सांसें भी सरस हुयी....
ReplyDeleteअंधियारी-सी सींखचों में
ReplyDeleteअनजाने ही घूम रहा
अबतक मेरा सहज संसार
मुंदी पलकों पर पग-पग कर
पड़ती रही तेरी चमकार
चट चिराग जलाकर क्यों ?
तुमने खोल दिया
अपना निश्छल नेह-द्वार...
सुंदर भाव, अच्छी रचना
बहुत बढिया
सब कहते हैं कि
ReplyDeleteये बिछोह की पीड़ा ही
प्रेम की सतत प्रतीति है
और विषाद की रीती घड़ियों में
अनबुझ मिलन की ही रीति है
ये चिर प्यास भी है तुझसे
संतृप्ति रसमय भी है तुझसे
प्रेम का सारा निचोड़ इन पंक्तियों में कह दिया आपने ! मन को भिगोती हुई बहुत ही खूबसूरत रचना !
बेहद खूबसूरत अनुभूति,मन के भावों की सुन्दर प्रस्तुति.
ReplyDeleteमेरे ब्लोग्स संकलक (ब्लॉग कलश) पर आपका स्वागत है,आपका परामर्श चाहिए.
"ब्लॉग कलश"
इस पुकार को पुकारता है सारा जगत..इस वियोग को गले लगाना चाहे हर प्रेमी..प्रेम की गहनता से उपजी सुंदर रचना..
ReplyDeleteसब कहते हैं कि
ReplyDeleteये बिछोह की पीड़ा ही
प्रेम की सतत प्रतीति है
और विषाद की रीती घड़ियों में
अनबुझ मिलन की ही रीति है
..........हैट्स ऑफ इसके लिए।
इतना न पुकार , मुझे
ReplyDeleteओ! पुकारती हुई पुकार .
इस पुकार पर हर भाव नि:शब्द हो गया ... अनुपम प्रस्तुति
bahut sundar
ReplyDeleteमन में हलचल,
ReplyDeleteसंग बहा चल।
प्रतिपल छीजती जाती
ReplyDeleteजो है ये जीवन-डोर
मैं न जानूं खींचे क्यों ?
मुझे बस तेरी ही ओर
जो नहीं है , शेष कुछ भी
कैसे कहूँ ? वही मेरी निधि
मैं अभिसारिका तेरी
अभिसार कर , चाहे जिस विधि
मंजुल मुख फेर , मत कर
तू , मुझसे निठुर व्यवहार...
खूबसूरत अभिव्यक्ति.
ReplyDeleteसौंदर्य विरह का, दर्प अनुराग का,
कल्पना अभिसार, कातर मिलन स्वर,
पुकार का अधिकार ....
सुन्दर शब्द मंजूषा है आ. अमृता जी .... साधो ।
बसंत आ गया अब तो .......अनंग अब अंग अंग को उद्वेलित करेगा - क्या विरही क्या संयोगी?
ReplyDeleteसब कहते हैं कि
ये बिछोह की पीड़ा ही
प्रेम की सतत प्रतीति है
और विषाद की रीती घड़ियों में
अनबुझ मिलन की ही रीति है
ये चिर प्यास भी है तुझसे
संतृप्ति रसमय भी है तुझसे
तू भी , बासंतिक बावरा सा
बरसा मुझपर अपना रसधार...
इतना न पुकार , मुझे
ओ! पुकारती हुई पुकार .
बहुत ही सुन्दर विरह के रंग में रंगी रचना
चट चिराग जलाकर क्यों ?
ReplyDeleteतुमने खोल दिया
अपना निश्छल नेह-द्वार...
इतना न मुझसे तू प्यार बढ़ा ....
ना पुकार
ReplyDeleteबढ़िया निश्छल रचना वेदना की गुहार लिए ,अभिसार लिए पूर्ण समर्पण का ....
जो नहीं है , शेष कुछ भी
ReplyDeleteकैसे कहूँ ? वही मेरी निधि
मैं अभिसारिका तेरी
अभिसार कर , चाहे जिस विधि
मंजुल मुख फेर , मत कर
तू , मुझसे निठुर व्यवहार...
भाव, शब्द, प्रवाह सभीकुछ अनुपम....
ये बिछोह की पीड़ा ही
ReplyDeleteप्रेम की सतत प्रतीति है
और विषाद की रीती घड़ियों में
अनबुझ मिलन की ही रीति है
ये चिर प्यास भी है तुझसे
संतृप्ति रसमय भी है तुझसे
तू भी , बासंतिक बावरा सा
बरसा मुझपर अपना रसधार
अनुपम अनुपम अनुपम
ReplyDeleteआपकी ये कविता पढ़ी . बहुत सुन्दर लिखा है .. बधाई स्वीकार करिए
प्रेम की सच्ची पुकार है ये.
विजय
www.poemsofvijay.blogspot.in
खूबसूरत अभिव्यक्ति.
ReplyDeletewww.darshanjangra.blogspot.com
www.premkephool.blogspot.com