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Friday, December 21, 2012

हंसा , उड़ चल न ...


उड़ - उड़ कर , बहुत छान लिया
हमने कई , अम्बर - भूतल
कितने पंख , गिर गये हमारे
अबतक , तिल- तिल कर जल
अंगारों पर ही , चल रहा है
बंदी -सा , हर छिन - पल

क्यों किसी द्वार पर
नहीं रुकते ये शिथिल चरण ?
क्यों व्याकुल प्रश्नों से
बोझिल है ये धरती - गगन ?
क्यों संझियाई उदासी लिए
उत्तर के ताके है नयन ?

अब तो निर्लक्ष्य , न उड़
विकल खग -सा ,  रे! मन
देख , मरू के मग पर
क्षण भर को ही , लहराया है घन
भाग , उठ , उस रस का
भींग कर , कर आलिंगन

कबतक जड़वत जीवन से
खाता रहेगा , तू ठेस रे!
ठगिनी माया है , तुझे रिझाए
धर , हंसिनी का वेश रे!
हंसा , उड़ चल न
अपने ही , उस देश रे!

जिस देश का दुर्गम पथ भी
बने हमारा , पावन बंधन
उस बंधन से ही , बंध जाए
इस मन का , सब सूनापन
और सूनेपन में भी , खिल जाए
कमल - पंखुड़ियों सा , ये जीवन

तब ताकता रह जाएगा , तू ही
उन पंखुड़ियों को , अनिमेष रे!
सबकुछ अपना , निछावर करके
न रखेगा  , कुछ भी शेष रे!
हंसा , उड़ चल न
अपने ही , उस देश रे!

31 comments:

  1. बहुत ही सुन्दर कविता |अमृता जी नववर्ष की शुभकामनायें |अब नये साल में मुलाकात होगी |

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  2. अद्भुत अभिव्यक्ति अमृता जी ......
    अटूट प्रेम .....लिप्त होकर भी निर्लिप्त भाव .....दिव्यता है आपके काव्य में.....बहुत सुंदर ....!!

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  3. अब तो निर्लक्ष्य , न उड़
    विकल खग -सा ,रे .....

    धवला कांति बिखेरता काव्य दर्पण है अनुभूति का|
    आव्रजन के अभिलाषी हंस की तरुनाई उत्साह से
    भरी स्वदेश की उडान का सुन्दर चित्रं खीचा है,
    आ. अमृता जी आपने ....... साधो

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  4. bahut sundar chitran hai aapki lekhni me

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  5. उड़ - उड़ कर , बहुत छान लिया
    हमने कई , अम्बर - भूतल
    कितने पंख , गिर गये हमारे
    अबतक , तिल- तिल कर जल
    अंगारों पर ही , चल रहा है
    बंदी -सा , हर छिन - पल....सच कहा आपने ....हर और सिर्फ व्यथा ही दिखाई देती है ......

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  6. ये जग सारा झूठी माया
    जाना है अपने देस रे
    हंसा , उड़ चल न
    अपने ही , उस देश रे!
    अद्भुत भाव...

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  7. नहीं जहाँ जग मन अनुकूल,
    छोड़ उड़ा चल उससे दूर।

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  8. कबतक जड़वत जीवन से
    खाता रहेगा , तू ठेस रे!
    ठगिनी माया है , तुझे रिझाए
    धर , हंसिनी का वेश रे!
    हंसा , उड़ चल न
    अपने ही , उस देश रे!

    कमाल....लाजवाब.......सुन्दर......हैट्स ऑफ ।

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  9. मंजिल से कोसों दूर सही
    पुर दर्द सही, रंजूर सही
    ज़ख्मों से मुसाफिर चूर सही
    यह अहल-ए-वफ़ा
    किस आग में जलते रहते हैं
    क्यूँ बुझ कर राख नहीं होते
    ....................
    खूब सुन्दर कविता.. सब कुछ न्योछावर करती-कराती हुई

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  10. बेहद खूबसूरत भाव

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  11. Amrita,

    KHUSHI KO PAANE KE LIYE YATAN KARNE KI BAHUT ACHCHHI SALAAH.

    Take care

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  12. ओह,उड़ने की आकंठ चाह पर परवाज को पंख नहीं :-(

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  13. जिस देश का दुर्गम पथ भी
    बने हमारा , पावन बंधन
    उस बंधन से ही , बंध जाए
    इस मन का , सब सूनापन
    और सूनेपन में भी , खिल जाए
    कमल - पंखुड़ियों सा , ये जीवन

    जीवन को दिशा निर्देश देती रचना ...

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  14. मन की छटपटाहट को दर्शाती ... गहन अभिव्यक्ति

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  15. अंतर्मन से उठती पुकार -चल चकई, वा देस को रैन कबहुँ ना होय!

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  16. अब तो निर्लक्ष्य , न उड़
    विकल खग -सा , रे! मन
    देख , मरू के मग पर
    क्षण भर को ही , लहराया है घन
    भाग , उठ , उस रस का
    भींग कर , कर आलिंगन

    ab bhi kuchh likhane ko shesh bacha kya ?wikal man ki byatha ka yah saarwbhomik chitran. har dil ki aawaj.amritaji kya likhun iske baad shabad maun aur bhaawhi bachate hain.itani pyari si abhibyakti ke liya annant badhai.

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  17. hansa kavita ko kitni aadhyatmik unchai de jata hai.

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  18. अब तो निर्लक्ष्य , न उड़
    विकल खग -सा , रे! मन
    देख , मरू के मग पर
    क्षण भर को ही , लहराया है घन
    भाग , उठ , उस रस का
    भींग कर , कर आलिंगन

    चल हंसा ...

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  19. This comment has been removed by the author.

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  20. देर सबेर सबको उड़ जाना है, और जाना है अकेले ही ... :(

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  21. मनोदशा को बहुत खूबसूरती से इस कविता में चित्रित किया है. सुंदर प्रस्तुति के लिये बधाई.

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  22. तब ताकता रह जाएगा , तू ही
    उन पंखुड़ियों को , अनिमेष रे!
    सबकुछ अपना , निछावर करके
    न रखेगा , कुछ भी शेष रे!
    हंसा , उड़ चल न
    अपने ही , उस देश रे!

    ...मन के भावों की बहुत उत्कृष्ट अभिव्यक्ति....

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  23. जो सुकून अपने देश में है वो परदेश में कहा..
    अति सुन्दर अभिव्यक्ति...
    :-)

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  24. क्यों किसी द्वार पर
    नहीं रुकते ये शिथिल चरण ?
    क्यों व्याकुल प्रश्नों से
    बोझिल है ये धरती - गगन ?
    क्यों संझियाई उदासी लिए
    उत्तर के ताके है नयन ?

    नहीं रुकते क्योंकि जाना ही नहीं तलाश है किसकी..या फिर तलाश करता ही कौन है..शाश्वत प्रश्नों को उठाती सुंदर कविता के लिए बधाई अमृता जी !

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  25. अद्भुत हमेशा की तरह .

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  26. बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति!

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  27. ये जग झूठी माया है .. काहे का रैन बसेरा है ...
    उड़ चल अपने देस ... मन में उतरती हुई रचना है ...

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  28. अच्छी कविता है,,,,,,,,,"निर्गुन" जैसी ....
    :)

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  29. बचपन का एक गीत याद आया -
    हंसा अब उडि चल वहिं देशवा में हो ना
    जहां सपने में चमकै बिजुरिया हो ना
    बस इतना ही याद है -एक घुटन भरे माहौल से एक स्वच्छंद फंतासी की चाह है यह !

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