कौन अपनी अकुलाहट को जानता है
काल-व्यूह से निकलने को ठानता है
कुछ अस्पष्ट सी ध्वनि को टानता है
परिवर्तन की आहट को पहचानता है
लग गयी किस को ये कैसी लगन है
काल-चिंतन में ही जो बस मगन है
बड़वानल- सा हर क्षण जो चेतन है
सुगन्धित हो रहा कनक -चन्दन है
एक- एक कर संगी - साथी छूटते हैं
अभंग जिसकी सीमाएं , भी टूटते हैं
जब ह्रदय से यूँ ही फव्वारे छूटते हैं
तब मरू- भूमि में भी अंकुर फूटते हैं
क्यूँ भीतर- भीतर मचा हाहाकार है
किसलिए मुझे देता कोई ललकार है
न जाने कौन -सी सत्य की पुकार है
संभवत: मेरे मैं की पहली झंकार है
अदृश्य- सी डोर से खींचता है कोई
अज्ञात - अब्धि में सींचता है कोई
अनवगत - सा पथ दिखाता है कोई
अप्रति मैं ही हूँ वही या है इष्ट कोई.
बहुत ही खुबसूरत....
ReplyDeleteक्यूँ भीतर- भीतर मचा हाहाकार है
ReplyDeleteकिसलिए मुझे देता कोई ललकार है
न जाने कौन -सी सत्य की पुकार है
संभवत: मेरे मैं की पहली झंकार है
बहुत सुंदर,
विवेक जैन vivj2000.blogspot.com
स्वयं को जानने का बोध किसी देवत्व से कम नहीं है।
ReplyDeleteबेहतरीन शब्द संयोजन .....
ReplyDeletebhaut hi sundar abhivaykti....
ReplyDeleteबहुत सुन्दर प्रस्तुति ||
ReplyDeleteबहुत बहुत बधाई ||
बहुत ही मनभावन कविता है।
ReplyDeleteसादर
'अंतरात्मा' को झकझोरने वाला वीर-रस सा यह गीत प्रेरक है।
ReplyDeleteएक एक कर संगी छूटते हैं...
ReplyDeleteअभंग जिसकी सीमाएं भी टूटते हैं....
अद्भुत रचना ...
सादर....
'संभवतः मेरे मैं की पहली झंकार है'- इस पंक्ति में संपूर्ण कथा और इष्ट से सघर्ष भरा है. बहुत ही सुंदर काव्य-सृजन.
ReplyDeleteसुन्दर काव्य ...झंकार ही होती हुई मनन करने को प्रेरित करती रचना
ReplyDeleteसंगी साथी छूट जाते है, अकेला चला जाता है बंजारा :(
ReplyDeleteआप की पीछे की तीनो कविताएँ पड़ी.अब हम निशब्द हो गए. आप की सृजन शीलता तथा अद्भुत कल्पनाशीलता जीवन की यथार्त धरातल को साथ लिए ले चलती हैं एक नयी सी छितिज कीओर .जन्हा खो जाता है सुब कुछ और रह जाती है एक अनगुंज सस्वाता को गूंजती हूक.अब बधाई लिखना शोभा नहीं देता.
ReplyDeleteएक बात और आपकी प्रोफाइल में मैंने देखा था की आपकी रूचि homeopathy में है और मैंने एक महिला की जिसे बिगत दस वर्षों से सरे डॉक्टर लएलाज कह चुके थे बिगत तीन महीनो में ही आपके बताये दवाओं का अद्भुत असर हुआ .अब वे अपनी दिनचर्या स्वं ही करने लगी है.आप की कविताओं की तरह homeopathy का ज्ञान भी अद्भुत है. आप कृपया परामर्श देने के लिए एक साईट बना दें . जब तक ऐसी बय्वास्था नहीं है तो क्या मेल से परामर्श देंगी.
bahut hi khubsurat ...........dil me jhankar baja gayi , apki kavita dil ke taro ko baja gayi .
ReplyDeletesapne-shashi.blogspot.com
सुंदर काव्य-सृजन...
ReplyDeleteबहुत सुन्दर.......बहुत दिनों बाद वो रस, वो अंदाज़ जो पहले था.....एक गहन आध्यात्मिकता समेटे ये पोस्ट लाजवाब.......हैट्स ऑफ इसके लिए |
ReplyDeleteबस......टानता, बड़वानल, अब्धि, अनवगत.....का अर्थ बता दीजिएगा अमृता जी|
बहुत उम्दा!
ReplyDeleteस्वंय से पहचान कराती बहुत सुन्दर प्रस्तुति।
ReplyDeletekuch hatke bhawon ka sampreshan hua hai...
ReplyDeleteबेहतरीन रचना ......
ReplyDeleteआत्मसाक्षात्कार का द्वन्द है शायद ...
ReplyDeleteद्वन्द का खुबसूरत चित्रण , बधाई
ReplyDeleteआपकी कविता खुद को ठीक वैसी उसी अनुभूति से गुजर जाने का आमंत्रण है ....प्रभावपूर्ण ....!
ReplyDeletebehad hi adhboot or sundar parstooti..
ReplyDeletejai hind jai bharat
बहुत सुंदर रचना,आभार.
ReplyDeleteअंतर्मन के द्वन्द का बहुत गहन और प्रभावी चित्रण...
ReplyDeleteसंभवतः मेरे मैं की पहली झंकार है ....
ReplyDeleteअन्तर्मन की उलझन और अंतरद्वंद को दर्शाती रचना. खुद को खुद से पहचान कराने की कोशिश. आपकी रचनाओं के शब्द-संयोजन, भाव और अभिव्यक्ति बेमिशाल है..प्रभु का स्नेह और आशीर्वाद मिले आपको और आप यूँ ही लिखती रहें.
आभार.
झंकृत कर गयी झंकार
ReplyDeleteशब्दों का बेहतर इस्तेमाल।
ReplyDeleteमन के भावों का सुंदर तरीके से चित्रण।
'जब ह्रदय से यूँ ही फव्वारे छूटते हैं
ReplyDeleteतब मरुभूमि में भी अंकुर फूटते हैं'
......................बहुत सुन्दर ...भावों की प्रभावी प्रस्तुति
मनोभावो का सुन्दर चित्रण.....
ReplyDeleteसुंदर मुक्तकीय प्रस्तुति
ReplyDeleteगुजर गया एक साल
क्यूँ भीतर- भीतर मचा हाहाकार है
ReplyDeleteकिसलिए मुझे देता कोई ललकार है
न जाने कौन -सी सत्य की पुकार है
संभवत: मेरे मैं की पहली झंकार है
शब्दों का सरल और सहज प्रवाह ....आपकी रचना काबिल - ए - तारीफ है .....!
बहुत बढ़िया लिखा है आपने! और शानदार प्रस्तुती!
ReplyDeleteमैं आपके ब्लॉग पे देरी से आने की वजह से माफ़ी चाहूँगा मैं वैष्णोदेवी और सालासर हनुमान के दर्शन को गया हुआ था और आप से मैं आशा करता हु की आप मेरे ब्लॉग पे आके मुझे आपने विचारो से अवगत करवाएंगे और मेरे ब्लॉग के मेम्बर बनकर मुझे अनुग्रहित करे
आपको एवं आपके परिवार को क्रवाचोथ की हार्दिक शुभकामनायें!
http://kuchtumkahokuchmekahu.blogspot.com/
बहुत ही सुन्दर रचना है अमृता जी सचमुच
ReplyDeleteबहुत बहुत बधाई हो आपको
कोई झंकार कुदरत के कण कण में गूंज ही रही है... कोई कब तक उससे बचेगा...आपकी कविता आमन्त्रित कर रही है उस अनजान लोक की यात्रा के लिये...आभार!
ReplyDeleteझंकृत सत्य.. ..
ReplyDeleteअम्रता जी,आपने शब्दों का संयोंजन बहुत अच्छा किया है,एक एक शब्द
ReplyDeleteअपना भाव दर्शाते है,कुल मिलाकर आपकी रचना मुझे बहुत लगी..बधाई समय निकाल कर मेरे ब्लॉग में आइये आपका स्वागत है......
शब्दों और भावों का संयोजन....
ReplyDeleteबेहतरीन रचना.....!!
अच्छी कविता अमृता जी |
ReplyDeletebahut sunder rachna .....
ReplyDeleteलाजवाब कविता।
ReplyDeleteप्रत्येक पंक्ति प्रभावशाली है।
क्यूँ भीतर- भीतर मचा हाहाकार है
ReplyDeleteकिसलिए मुझे देता कोई ललकार है
न जाने कौन -सी सत्य की पुकार है
संभवत: मेरे मैं की पहली झंकार है........ACHE SABDOAN KA SANGRAH.BADHAYI..........?
सुंदर कविता और सुंदर शब्द संयोजन. बधाई.
ReplyDeleteअमृता जी, आपके पोस्ट पर आना सार्थक सिद्ध होता है । यह रचना भाव-प्रवण होने के कारण अन्य रचनाओं की तरह अपना वैशिष्ट्य स्थापित करने में सर्वरूपेण एवं सर्वभावेन सफल सिद्ध हुई है । मेरे पोस्ट पर आपका स्वागत है । धन्यवाद ।
ReplyDeleteबहुत ही भावपूर्ण रचना,बधाई!
ReplyDeleteमेरी पोस्ट में आकार आपने जो हौसला बढाया,उसके लिए सुक्रिया आभार.....
ReplyDeleteआपकी कविता बहुत सुन्दर है.
ReplyDeletenice one amrita
ReplyDeleteसत्य की पुकार पर यह कैसी झंकार
ReplyDeleteरोम-रोम में जागरण,साँस-साँस फुँफकार.
खड़े हुए पाषाण भी , करने लगे हुंकार
निकल गई है म्यान से,स्वाभिमानी तलवार.
अद्दुत और बहुत खूबसूरत..बेहतरीन! शानदार!!
ReplyDeleteGreetings ,
ReplyDeleteRead urs blog its just Awosum.
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Anyways Have a nice day.
Regards,
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बेजोड़ रचना...बधाई स्वीकारें
ReplyDeleteनीरज
सुन्दर भाव लिए प्यारी रचना अमृता जी ...जब ह्रदय से यूं ही फव्वारे छूटते हैं तब .....मरू भूमि में भी अंकुर फूटते हैं ..बहुत खूबसूरत अहसास
ReplyDeleteभ्रमर ५
सच है इक इक के सब छूट जाते हैं बस अंतस ही साथ देता है ... तभी ह्रदय से फव्वारे छूटते हैं ...
ReplyDeleteआपकी दार्शनिक अभिव्यक्ति अचंभित कर देती है.
ReplyDeleteसुन्दर प्रस्तुति के लिए आभार.
कौन अपनी अकुलाहट को जानता है
ReplyDeleteकाल-व्यूह से निकलने को ठानता है
कुछ अस्पष्ट सी ध्वनि को टानता है
परिवर्तन की आहट को पहचानता है
sarthak post..
jai hind jai bharat
बहुत बढ़िया रचना.. बहुत मिस किया आपकी रचनाओं को..
ReplyDeleteब्लॉग्गिंग से बहुत दिन दूर रहने के बाद फिर से उपस्थित हूँ..