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Sunday, October 9, 2011

तुम्हें लगता है....

तुम्हें लगता है
बहती हूँ मैं
हवाओं की तरह
भरता रहता है
तुममें प्राण.......
तुम्हें लगता है
लहराती हूँ मैं
नदियों की तरह
भींगे-भीगें से
तरंगित होते हो तुम......
तुम्हें लगता है
महकती हूँ मैं
फूलों की तरह
मादकता से
उन्मत्त होते हो तुम......
तुम्हें लगता है
चहकती हूँ मैं
चिड़ियों की तरह
नाच उठता है
तुम्हारा मन-मयूर........
तुम्हें लगता है
चमकती हूँ मैं
सूरज की तरह
रोशनी से
भरे रहते हो तुम.......
तुम्हें लगता है
छिटकती हूँ मैं
चाँदनी की तरह
शीतलित होता है
तुम्हारा रोम-रोम.......
प्रिय !
ये प्रेमातिरेक है या
उसकी सहज प्रवृति
पर मुझे लगता है
कि ये है तुम्हारी
आत्म-विस्मृति...
या फिर
तुमने मान लिया है
कि मैं हूँ तुम्हारी
कोई निगूढ़ प्रकृति .
 

48 comments:

  1. खूबसूरत प्रस्तुति ||
    बधाई ||

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  2. बहुत खूबसूरती से ....आपने ''मै ''और ''तुम '' को बिम्बों से परिभाषित किया है

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  3. प्रेम और प्रेम कि भाषा से सुसज्जित सुंदर प्रस्तुति.

    बहुत बधाई.

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  4. निश्छल और निष्पाप प्रेम की "मैं" और 'तुम' संबोधन के साथ सुन्दर , खूबसूरत और अद्भुत अभिव्यक्ति !!

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  5. बहुत खूबसूरती से "मै" और "तुम" को एकाकार किया है... निश्छल प्रेम को परिभाषित करती सुन्दर रचना....

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  6. वाह,क्या कहनें है.
    बढ़िया रचना.

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  7. प्रेम रसायन की यह सहज क्रिया है कि दोनों ओर एक समान भाव उठते हैं. एक हवा है तो दूसरा प्राण है. बहुत ही सुंदर कविता.

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  8. प्रेम में सब जायज है.....!!

    निश्छल प्रेम कुछ ऐसा ही चाहता है..!!!

    सुन्दर रचना........

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  9. बहुत ही सुन्दर और प्रभावशाली अभिवयक्ति.....

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  10. प्रेम गली अति सांकरो...
    बहुत बढ़िया आध्यात्मिक अभिव्यक्ति....
    सादर....

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  11. मै और तुम के बीच झूलती सुंदर प्रेममयी रचना , आभार

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  12. प्रेम की चलताऊ परिभाषा से इतर अत्युत्तम रचना.बहुत-बहुत बधाई..

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  13. "ये प्रेमातिरेक है या उसकी सहज प्रवृति पर मुझे लगता है की ये है तुम्हारी आत्म-विस्मृति" वास्तव इसमें दोनों बातों की पूरी गुंजाईश बनती है. शानदार रचना

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  14. मन जब किसी और में तन्मय हो जाता है तो यही प्रभाव परिलक्षित होते हैं।

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  15. bahut achcha laga padhkar....
    jai hind jai bharat

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  16. तुम्हारे लगने से मैं नदी बन जाना चाहती हूँ , चिड़िया की चहक बन जाना चाहती हूँ ... क्योंकि यूँ सोचकर तुम साकार हो उठते हो

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  17. सुन्दर भावाभिव्यक्ति

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  18. सुन्दर भावाभिव्यक्ति और मनोदशा का चित्रण

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  19. प्रकृति और पुरुष के बीच यह खेल अनादि काल से चल रहा है... कौन जाने कौन किसके लिये है....

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  20. गहन भावों को सुंदर, सरल शब्दों मे रोचकता के साथ प्रस्तुत किया है।

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  21. मन में रचे बसे प्रेम के आयाम को सतरंगी भावों के माध्यम से आपने इसे जिस शैली और अंदाज में प्रस्तुत किया है, उसके विवर में झाँक कर मुझे जिस आनंद की चरम अनुभूति होती है, उसका वर्णन करना मेरे लिए संभव नही है । बहुत सुंदर । मेरे नए पोस्ट पर आपके लिए प्रतीक्षारत रहूँगा । धन्यवाद ।

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  22. ek naye pan aaur tajgi se bharpoor ek shandaar kriti..sadar badhayee ke sath

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  23. अमृत कलश छलके .

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  24. सामने वाले को लगता है तो ठीक है
    मगर हमें भी करनी चाहिए
    एक कोशिश अपना पक्ष बताने की
    और साथ ही उनका पक्ष जान लेने की
    ताकि संवाद एकतरफा न रह जाए .
    कभी-कभी सहज भी अतिरेक लगता है
    तो कभी अतिरेक से भी
    शिकायत नहीं होती
    जब स्मृति में कोई और हो तो
    आत्म विस्मृति के अलावा
    रास्ता ही कहाँ बचता है
    जब मैंने मान ही लिया तुमको
    अपनी प्रकृति की अभिव्यक्ति
    तो फिर सवालों की धुंध तो
    आप ही छंट जाती है.
    बेहद सुंदर रचना जो प्रेम के कई आयामों को स्पष्ट करती है.

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  25. खूबसूरत शब्‍द संयोजन।
    बेहतरीन भावाभिव्‍यक्ति....

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  26. बहुत खूबसूरत अहसास.

    तुम हो तो मैं हूँ.
    मैं हूँ तो तुम हो.

    काफ़ी नहीं है क्या.

    आपके शब्द शिल्प का जवाब नहीं.

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  27. प्रिय !
    ये प्रेमातिरेक है या
    उसकी सहज प्रवृति
    पर मुझे लगता है
    कि ये है तुम्हारी
    आत्म-विस्मृति...
    या फिर
    तुमने मान लिया है
    कि मैं हूँ तुम्हारी
    कोई निगुढ़ प्रकृति .

    प्रेम के मनोरम भावों से भरी आपकी यह पंक्तियाँ ........कोमल भावनाओं का सम्प्रेषण करती हैं ......!

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  28. प्रेम में होता है कुछ ऐसा ही...

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  29. ज़बरदस्त अभिव्यक्ति.

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  30. जी बिलकुल ऐसे ही लगता है ....बहुत ही भावपूर्ण ..मन तरंगित और ऊर्जित हुआ पढ़कर ....प्रेमानुभूति ऐसी ही उदात्तता लिए होती है ....
    इतनी सुन्दर भावोदगार पूर्ण कविता के लिए क्या कहूं और कुछ कहने को बस निःशब्द हूँ! बिना कहा ही समझिये :)

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  31. मन को भाने वाली कविता।

    सादर

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  32. सुन्दर अभिव्यक्ति गहन चिन्तन...

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  33. सदैव की तरह गहन चिंतन और उसकी सशक्त भावमयी प्रस्तुति...

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  34. बहुत खूब.....शुभकामनायें !

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  35. वाह वाह ..क्या निश्छल भाव हैं ..बहुत ही सुन्दर.

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  36. तुम्हें लगता है
    बहती हूँ मैं
    हवाओं की तरह
    भरता रहता है
    तुममें प्राण.......
    तुम्हें लगता है
    लहराती हूँ मैं
    नदियों की तरह
    भींगे-भीगें से
    तरंगित होते हो तुम......
    तुम्हें लगता है
    महकती हूँ मैं
    फूलों की तरह
    मादकता से
    उन्मत्त होते हो तुम......
    तुम्हें लगता है
    चहकती हूँ मैं
    अमृता जी आप बहुत अच्छा लिख रही हैं बधाई |

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  37. देर से आने की माफ़ी..........बहुत खुबसूरत शब्दों के साथ भावनाओ का सम मिश्रण ........शानदार|

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  38. जब मैं था तब हरि नहीं, अब हरि है मैं नाहिं ...
    बहुर सुन्दर!

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  39. बडी प्यारी सी कविता है अमृता जी :) :)

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  40. Beautiful as always.
    It is pleasure reading your poems.

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  41. भावों की लाजवाब प्रस्तुति है ...

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  42. Very nice written Amrita Ji..
    A different type of thinking and writing about love.. Regards..

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  43. khubsurat parstutii....subhkaamnayen..
    jai hind jai bharat

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  44. Wah!!! kya baat hai....antim panktiyan adbhut....

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