तुम्हें लगता है
बहती हूँ मैं
हवाओं की तरह
भरता रहता है
तुममें प्राण.......
तुम्हें लगता है
लहराती हूँ मैं
नदियों की तरह
भींगे-भीगें से
तरंगित होते हो तुम......
तुम्हें लगता है
महकती हूँ मैं
फूलों की तरह
मादकता से
उन्मत्त होते हो तुम......
तुम्हें लगता है
चहकती हूँ मैं
चिड़ियों की तरह
नाच उठता है
तुम्हारा मन-मयूर........
तुम्हें लगता है
चमकती हूँ मैं
सूरज की तरह
रोशनी से
भरे रहते हो तुम.......
तुम्हें लगता है
छिटकती हूँ मैं
चाँदनी की तरह
शीतलित होता है
तुम्हारा रोम-रोम.......
प्रिय !
ये प्रेमातिरेक है या
उसकी सहज प्रवृति
पर मुझे लगता है
कि ये है तुम्हारी
आत्म-विस्मृति...
या फिर
तुमने मान लिया है
कि मैं हूँ तुम्हारी
कोई निगूढ़ प्रकृति .
खूबसूरत प्रस्तुति ||
ReplyDeleteबधाई ||
बहुत खूबसूरती से ....आपने ''मै ''और ''तुम '' को बिम्बों से परिभाषित किया है
ReplyDeleteप्रेम और प्रेम कि भाषा से सुसज्जित सुंदर प्रस्तुति.
ReplyDeleteबहुत बधाई.
निश्छल और निष्पाप प्रेम की "मैं" और 'तुम' संबोधन के साथ सुन्दर , खूबसूरत और अद्भुत अभिव्यक्ति !!
ReplyDeleteबहुत खूबसूरती से "मै" और "तुम" को एकाकार किया है... निश्छल प्रेम को परिभाषित करती सुन्दर रचना....
ReplyDeleteवाह,क्या कहनें है.
ReplyDeleteबढ़िया रचना.
प्रेम रसायन की यह सहज क्रिया है कि दोनों ओर एक समान भाव उठते हैं. एक हवा है तो दूसरा प्राण है. बहुत ही सुंदर कविता.
ReplyDeleteप्रेम में सब जायज है.....!!
ReplyDeleteनिश्छल प्रेम कुछ ऐसा ही चाहता है..!!!
सुन्दर रचना........
बहुत ही सुन्दर और प्रभावशाली अभिवयक्ति.....
ReplyDeleteप्रेम गली अति सांकरो...
ReplyDeleteबहुत बढ़िया आध्यात्मिक अभिव्यक्ति....
सादर....
मै और तुम के बीच झूलती सुंदर प्रेममयी रचना , आभार
ReplyDeleteप्रेम की चलताऊ परिभाषा से इतर अत्युत्तम रचना.बहुत-बहुत बधाई..
ReplyDelete"ये प्रेमातिरेक है या उसकी सहज प्रवृति पर मुझे लगता है की ये है तुम्हारी आत्म-विस्मृति" वास्तव इसमें दोनों बातों की पूरी गुंजाईश बनती है. शानदार रचना
ReplyDeleteमन जब किसी और में तन्मय हो जाता है तो यही प्रभाव परिलक्षित होते हैं।
ReplyDeletebahut achcha laga padhkar....
ReplyDeletejai hind jai bharat
तुम्हारे लगने से मैं नदी बन जाना चाहती हूँ , चिड़िया की चहक बन जाना चाहती हूँ ... क्योंकि यूँ सोचकर तुम साकार हो उठते हो
ReplyDeleteसुन्दर भावाभिव्यक्ति
ReplyDeleteसुन्दर भावाभिव्यक्ति और मनोदशा का चित्रण
ReplyDeleteप्रकृति और पुरुष के बीच यह खेल अनादि काल से चल रहा है... कौन जाने कौन किसके लिये है....
ReplyDeletesundar...
ReplyDeleteगहन भावों को सुंदर, सरल शब्दों मे रोचकता के साथ प्रस्तुत किया है।
ReplyDeleteमन में रचे बसे प्रेम के आयाम को सतरंगी भावों के माध्यम से आपने इसे जिस शैली और अंदाज में प्रस्तुत किया है, उसके विवर में झाँक कर मुझे जिस आनंद की चरम अनुभूति होती है, उसका वर्णन करना मेरे लिए संभव नही है । बहुत सुंदर । मेरे नए पोस्ट पर आपके लिए प्रतीक्षारत रहूँगा । धन्यवाद ।
ReplyDeleteek naye pan aaur tajgi se bharpoor ek shandaar kriti..sadar badhayee ke sath
ReplyDeleteअमृत कलश छलके .
ReplyDeleteसामने वाले को लगता है तो ठीक है
ReplyDeleteमगर हमें भी करनी चाहिए
एक कोशिश अपना पक्ष बताने की
और साथ ही उनका पक्ष जान लेने की
ताकि संवाद एकतरफा न रह जाए .
कभी-कभी सहज भी अतिरेक लगता है
तो कभी अतिरेक से भी
शिकायत नहीं होती
जब स्मृति में कोई और हो तो
आत्म विस्मृति के अलावा
रास्ता ही कहाँ बचता है
जब मैंने मान ही लिया तुमको
अपनी प्रकृति की अभिव्यक्ति
तो फिर सवालों की धुंध तो
आप ही छंट जाती है.
बेहद सुंदर रचना जो प्रेम के कई आयामों को स्पष्ट करती है.
खूबसूरत शब्द संयोजन।
ReplyDeleteबेहतरीन भावाभिव्यक्ति....
बढिया भाव॥
ReplyDeleteबहुत खूबसूरत अहसास.
ReplyDeleteतुम हो तो मैं हूँ.
मैं हूँ तो तुम हो.
काफ़ी नहीं है क्या.
आपके शब्द शिल्प का जवाब नहीं.
प्रिय !
ReplyDeleteये प्रेमातिरेक है या
उसकी सहज प्रवृति
पर मुझे लगता है
कि ये है तुम्हारी
आत्म-विस्मृति...
या फिर
तुमने मान लिया है
कि मैं हूँ तुम्हारी
कोई निगुढ़ प्रकृति .
प्रेम के मनोरम भावों से भरी आपकी यह पंक्तियाँ ........कोमल भावनाओं का सम्प्रेषण करती हैं ......!
प्रेम में होता है कुछ ऐसा ही...
ReplyDeleteज़बरदस्त अभिव्यक्ति.
ReplyDeletenice post
ReplyDeleteगहन श्रृंगार!
ReplyDeleteजी बिलकुल ऐसे ही लगता है ....बहुत ही भावपूर्ण ..मन तरंगित और ऊर्जित हुआ पढ़कर ....प्रेमानुभूति ऐसी ही उदात्तता लिए होती है ....
ReplyDeleteइतनी सुन्दर भावोदगार पूर्ण कविता के लिए क्या कहूं और कुछ कहने को बस निःशब्द हूँ! बिना कहा ही समझिये :)
मन को भाने वाली कविता।
ReplyDeleteसादर
सुन्दर अभिव्यक्ति गहन चिन्तन...
ReplyDeleteसदैव की तरह गहन चिंतन और उसकी सशक्त भावमयी प्रस्तुति...
ReplyDeleteबहुत खूब.....शुभकामनायें !
ReplyDeleteवाह वाह ..क्या निश्छल भाव हैं ..बहुत ही सुन्दर.
ReplyDeleteतुम्हें लगता है
ReplyDeleteबहती हूँ मैं
हवाओं की तरह
भरता रहता है
तुममें प्राण.......
तुम्हें लगता है
लहराती हूँ मैं
नदियों की तरह
भींगे-भीगें से
तरंगित होते हो तुम......
तुम्हें लगता है
महकती हूँ मैं
फूलों की तरह
मादकता से
उन्मत्त होते हो तुम......
तुम्हें लगता है
चहकती हूँ मैं
अमृता जी आप बहुत अच्छा लिख रही हैं बधाई |
देर से आने की माफ़ी..........बहुत खुबसूरत शब्दों के साथ भावनाओ का सम मिश्रण ........शानदार|
ReplyDeleteजब मैं था तब हरि नहीं, अब हरि है मैं नाहिं ...
ReplyDeleteबहुर सुन्दर!
बडी प्यारी सी कविता है अमृता जी :) :)
ReplyDeleteBeautiful as always.
ReplyDeleteIt is pleasure reading your poems.
भावों की लाजवाब प्रस्तुति है ...
ReplyDeleteVery nice written Amrita Ji..
ReplyDeleteA different type of thinking and writing about love.. Regards..
khubsurat parstutii....subhkaamnayen..
ReplyDeletejai hind jai bharat
Wah!!! kya baat hai....antim panktiyan adbhut....
ReplyDelete