कम नहीं हैं
अपेक्षाएं
खुद से ही....
चुनौती की
दोधारी तलवार
आतंरिक एवम
बाह्यरूप से....
खुद को
साबित करने का
एक जूनून भी....
घड़ी-घड़ी घुड़की
घुड़दौड़ में
अव्वल न सही
जगह सुरक्षित कर
दौड़ते रहने का...
साथ ही
लंगड़ी मारने में भी
कुशल होने का......
आखिर
आँख खोलने से
अब तक
पिलाया गया
हर घुट्टी का
असर है.....
जो मूर्च्छा में भी
दोहरे दबाव को
घुसपैठ करा
किसी भी कीमत पर
ऊँच-नीच करके
सफलता के झंडे को
ऊँचा किये रहता है...
और
तराजू के पलड़े को
बराबर करने के लिए
राज़ी-ख़ुशी से
खुद को ही
काट-काट कर
बोटी-बोटी करना
सफल उद्यम
बन जाता है .
ज़बरदस्त लिखा है आपने.
ReplyDeleteसादर
संदेशपरक कविता प्रेरणादायी भी है.
ReplyDeletetruly brilliant..
ReplyDeletekeep writing.....all the best
अच्छी सार्थक अभिव्यक्ति....
ReplyDeleteदरअसल सब मानते हैं...हारे को हरि नाम...पर यकीन मानिये रेस का मज़ा रेस में दौड़ने वाले को नहीं...देखने वाले को मिलता है...
ReplyDeleteवाह वाह ...
ReplyDeletebahut badhiya... waah...
ReplyDeleteWell written again amrita jee.. keep it up...
ReplyDeleteवहीँ कुछ चालाक तराजू के माल
ReplyDeleteको चाट कर संतुलन बनाते हैं ||
बधाई ||
हर-हर बम-बम, बम-बम धम-धम |
तड-पत हम-हम, हर पल नम-नम ||
अक्सर गम-गम, थम-थम, अब थम |
शठ-शम शठ-शम, व्यर्थम - व्यर्थम ||
दम-ख़म, बम-बम, चट-पट हट तम |
तन तन हर-दम *समदन सम-सम || *युद्ध
*करवर पर हम, समरथ सक्षम | *विपत्ति
अनरथ कर कम, झट-पट भर दम ||
भकभक जल यम, मरदन मरहम |
हर-हर बम-बम, हर-हर बम-बम ||
राहुल उवाच : कई देशों में तो, बम विस्फोट दिनचर्या में शामिल है |
चिदंबरम उवाच: इक्तीस माह तो बचाया मुंबई को |
देश को कब तक बचाओगे ????
bhaut hi sarthak likha hai aapne...
ReplyDeleteशानदार ! बहुत खूब !!
ReplyDeleteदौड़ते रहने का...
ReplyDeleteसाथ ही
लंगड़ी मारने में भी
कुशल होने का......
हाँ बिलकुल. आजकल मार्कीट में सफलता का यह रहस्य है और कसौटी भी. खूब कहा है.
अपेक्षाएं खुद से हो तो चुनौती भी खुद को ही देनी पड़ेगी।
ReplyDeleteसुंदर प्रस्तुति।
ekdum bejod..... kya kahun? achcha laga blog ko padh ke... aise hi likha kare....
ReplyDeleteThis comment has been removed by the author.
ReplyDeleteसुंदर प्रस्तुति,बढ़िया रचना,आभार.
ReplyDeleteविचारणीय कविता,
ReplyDeleteसुंदर प्रस्तुति। आभार.........
जीवन में इस तरह का उद्यम तो करना ही पड़ता है।
ReplyDeleteअच्छी कविता।
उद्धम की जगह उद्यम होना चाहिए।
जब अपेक्षा पूरी करके खुद को शाबाशी देने का आनंद खुद लेना है तो खुद को बोटी-बोटी काटना और दुखी होना भी तो अपने ही हिस्से में आयेगा न !
ReplyDeleteउद्यमशीलता तो एडी रगड़ रही है आजकल चाटुकारिता के सामने . इस गलाकाट प्रतियोगिता के दौर में आगे बढ़ने के गुर के साथ दूसरों को आगे ना बढ़ने देने की होड़ लगी है . हम तो रोज दो चार हो रहे है इन दिनों ऐसी प्रतियोगिता से .
ReplyDeletejab baudhikata bhawna par bhaaree pade tab kavita ka dam ghutane lagataa hai , jarooree naheen ki har ek baat kavita mein hee ho .phir bhee sashakt abhivyakti ewam jeewant udrek .
ReplyDeleteकल 18/07/2011 को आपकी एक पोस्ट नयी पुरानी हलचल पर लिंक की जा रही हैं.आपके सुझावों का स्वागत है .
ReplyDeleteधन्यवाद!
अमृता जी बहुत प्यारी सी सुन्दर सी कविता पढ़ने को मिली बधाई |
ReplyDeletesarathak rachna,,,
ReplyDeletejai hind jai bharat
एक सुन्दर भावपूर्ण अभिव्यक्ति ...
ReplyDeleteसही कहा है ...शुभकामनायें आपको !
ReplyDeleteएकदम दुरुस्त फ़रमाया है......कविता के सहारे ...पर उम्मीद करता हु की यही परिभाश या तो आप नहीं अपनाती होंगी...या अनजाने में अपना रही होंगी तो इससे निकल जाने वाली होंगी...अच्छी कविता..
ReplyDeleteसुन्दर भाव और अभिव्यक्ति के साथ ज़बरदस्त रचना लिखा है आपने जो काबिले तारीफ़ है! बधाई!
ReplyDeleteलंगड़ी मर कर आगे निकलने का फार्मूला आजकल कामयाब है सन्देश देती हुई रचना , आभार
ReplyDeleteअपने आप से अपेक्षाएँ रखना बुरी बात नहीं,पर उनकी परिपूर्णता बाधित होने की अवस्था में अपने आप को खो देना या अशांत हो जाना कष्टकर होता है...यह भी सत्या है की सही माने में आज के जमाने मे उद्यमी वही है जो कर्म के साथ साथ लंगरी मारने में भी उस्ताद हो....सीधी उंगली से घी निकालने वाले पीछे रह जाते क्यूंकी जरूरत पड़ने पर उंगली टेढ़ा कर घी निकालने वलर बाज़ी मार ले जाते हैं...
ReplyDeleteअमृता बहुत ही सही लिखा है आपने...बहुत बढ़िया..बधाई।
समय मिले तो “कविता की प्रासंगिकता” पर अपना विचार प्रेषित कीजिएगा....शायद मेरी कविता अप्रासंगिक होने से बच जाये।
बहुत सुंदर रचना और
ReplyDeleteतराजू के पलड़े को
बराबर करने के लिए
राजी खुशी से
ही खुद को
काट काट कर
बोटी बोटी करना
सफल उद्यम
बन जाता है.
वाकई बहुत बढिया
अमृता जी.........छा गए........हैट्स ऑफ........बहुत ही शानदार........और कुछ कहने को शब्द नहीं हैं|
ReplyDeletethoughtful poem
ReplyDeleteexcellent
जीवन की विसंगतियों ,संघर्ष और समझौतों से उभरे गहन भावों की यथार्थ प्रस्तुति
ReplyDelete'खुद को ही
काट-काट कर
बोटी-बोटी करना
सफल उद्यम
बन जाता है '
बहुत अच्छी सार्थक अभिव्यक्ति|
ReplyDeleteबहुत सही कि आन्तरिक और बाह्य तौर पर खुद को कुछ साबित करना आम आदमी के विचार / इसके बाद राजनीतिज्ञों पर कटाक्ष /किसी भी तरह सफल होने वाली बात अनीति की रह पर चलने वालों के लिए और रचना का समापन बहुत गंभीर बात से कि तराजू के पलड़ों को बराबर करने के चक्कर में व्यक्ति खुद के ही टुकड़े कर रहा है /यदि इस रचना को आध्यात्मिक द्रष्टिकोण से देखें तो भी रचना आध्यात्म की और बहुत कुछ झुकी हुई है ' आज ऐसी ही रचनाओं की साहित्य को आवश्यकता है
ReplyDeleteघुड़की, घुड़दौड़ और लंगड़ी उस पर तराजू की तोल
ReplyDeleteछोटी सी कविता में कई सारी बातें
बधाई स्वीकार करें
मेरा दोस्त कहता है रेट रेस है जो जितना तेज दौड़ा वो उतना मोटा चूहा .....कविता नहीं है .जिंदगी के एक हिस्से का कम्पाइल वर्ज़न है
ReplyDeleteAisa udyam kahan nhi milta ? blogjagat bhi achhuta nahi hai...badhiya prahar
ReplyDeleteबहुत ही सार्थक और सशक्त लेखन...बधाई
ReplyDeletebahut achchhi rachna. ek sach ko prabhavshali dhang se prastut kiya hai aapne...
ReplyDeleteसच है..एकदम सच..
ReplyDeleteअभी तो मैं अच्छे से महसूस कर सकता हूँ इस कविता को..:)
Hello
ReplyDeleteI found your blog.
I'm from Brazil.
It's great to meet people from other nations.
God is with thee,
Suely
Maringa, Brazil
can relate to it. bihar mein hamari parvarish ka yehi template hota hai. nicely brought out
ReplyDeleteअमृताजी जीवन के अंतर द्वंद्व ,मानसिक कुहांसे का नया व्याकरण कोई आपसे बुनना सीखे .बेहतरीन रचना ,अपने से बाहर आने की कश - म -कश . जीवन से संवाद का नया अंदाज़ लिए रहतीं हैं आपकी रचनाएं .
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