उड़ - उड़ कर , बहुत छान लिया
हमने कई , अम्बर - भूतल
कितने पंख , गिर गये हमारे
अबतक , तिल- तिल कर जल
अंगारों पर ही , चल रहा है
बंदी -सा , हर छिन - पल
क्यों किसी द्वार पर
नहीं रुकते ये शिथिल चरण ?
क्यों व्याकुल प्रश्नों से
बोझिल है ये धरती - गगन ?
क्यों संझियाई उदासी लिए
उत्तर के ताके है नयन ?
अब तो निर्लक्ष्य , न उड़
विकल खग -सा , रे! मन
देख , मरू के मग पर
क्षण भर को ही , लहराया है घन
भाग , उठ , उस रस का
भींग कर , कर आलिंगन
कबतक जड़वत जीवन से
खाता रहेगा , तू ठेस रे!
ठगिनी माया है , तुझे रिझाए
धर , हंसिनी का वेश रे!
हंसा , उड़ चल न
अपने ही , उस देश रे!
जिस देश का दुर्गम पथ भी
बने हमारा , पावन बंधन
उस बंधन से ही , बंध जाए
इस मन का , सब सूनापन
और सूनेपन में भी , खिल जाए
कमल - पंखुड़ियों सा , ये जीवन
तब ताकता रह जाएगा , तू ही
उन पंखुड़ियों को , अनिमेष रे!
सबकुछ अपना , निछावर करके
न रखेगा , कुछ भी शेष रे!
हंसा , उड़ चल न
अपने ही , उस देश रे!
बहुत ही सुन्दर कविता |अमृता जी नववर्ष की शुभकामनायें |अब नये साल में मुलाकात होगी |
ReplyDeleteअद्भुत अभिव्यक्ति अमृता जी ......
ReplyDeleteअटूट प्रेम .....लिप्त होकर भी निर्लिप्त भाव .....दिव्यता है आपके काव्य में.....बहुत सुंदर ....!!
अब तो निर्लक्ष्य , न उड़
ReplyDeleteविकल खग -सा ,रे .....
धवला कांति बिखेरता काव्य दर्पण है अनुभूति का|
आव्रजन के अभिलाषी हंस की तरुनाई उत्साह से
भरी स्वदेश की उडान का सुन्दर चित्रं खीचा है,
आ. अमृता जी आपने ....... साधो
bahut sundar chitran hai aapki lekhni me
ReplyDeleteउड़ - उड़ कर , बहुत छान लिया
ReplyDeleteहमने कई , अम्बर - भूतल
कितने पंख , गिर गये हमारे
अबतक , तिल- तिल कर जल
अंगारों पर ही , चल रहा है
बंदी -सा , हर छिन - पल....सच कहा आपने ....हर और सिर्फ व्यथा ही दिखाई देती है ......
ये जग सारा झूठी माया
ReplyDeleteजाना है अपने देस रे
हंसा , उड़ चल न
अपने ही , उस देश रे!
अद्भुत भाव...
नहीं जहाँ जग मन अनुकूल,
ReplyDeleteछोड़ उड़ा चल उससे दूर।
कबतक जड़वत जीवन से
ReplyDeleteखाता रहेगा , तू ठेस रे!
ठगिनी माया है , तुझे रिझाए
धर , हंसिनी का वेश रे!
हंसा , उड़ चल न
अपने ही , उस देश रे!
कमाल....लाजवाब.......सुन्दर......हैट्स ऑफ ।
bahut badhia..
ReplyDeleteमंजिल से कोसों दूर सही
ReplyDeleteपुर दर्द सही, रंजूर सही
ज़ख्मों से मुसाफिर चूर सही
यह अहल-ए-वफ़ा
किस आग में जलते रहते हैं
क्यूँ बुझ कर राख नहीं होते
....................
खूब सुन्दर कविता.. सब कुछ न्योछावर करती-कराती हुई
बेहद खूबसूरत भाव
ReplyDeleteAmrita,
ReplyDeleteKHUSHI KO PAANE KE LIYE YATAN KARNE KI BAHUT ACHCHHI SALAAH.
Take care
ओह,उड़ने की आकंठ चाह पर परवाज को पंख नहीं :-(
ReplyDeleteजिस देश का दुर्गम पथ भी
ReplyDeleteबने हमारा , पावन बंधन
उस बंधन से ही , बंध जाए
इस मन का , सब सूनापन
और सूनेपन में भी , खिल जाए
कमल - पंखुड़ियों सा , ये जीवन
जीवन को दिशा निर्देश देती रचना ...
मन की छटपटाहट को दर्शाती ... गहन अभिव्यक्ति
ReplyDeleteअंतर्मन से उठती पुकार -चल चकई, वा देस को रैन कबहुँ ना होय!
ReplyDeleteअब तो निर्लक्ष्य , न उड़
ReplyDeleteविकल खग -सा , रे! मन
देख , मरू के मग पर
क्षण भर को ही , लहराया है घन
भाग , उठ , उस रस का
भींग कर , कर आलिंगन
ab bhi kuchh likhane ko shesh bacha kya ?wikal man ki byatha ka yah saarwbhomik chitran. har dil ki aawaj.amritaji kya likhun iske baad shabad maun aur bhaawhi bachate hain.itani pyari si abhibyakti ke liya annant badhai.
hansa kavita ko kitni aadhyatmik unchai de jata hai.
ReplyDeleteअब तो निर्लक्ष्य , न उड़
ReplyDeleteविकल खग -सा , रे! मन
देख , मरू के मग पर
क्षण भर को ही , लहराया है घन
भाग , उठ , उस रस का
भींग कर , कर आलिंगन
चल हंसा ...
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ReplyDeleteदेर सबेर सबको उड़ जाना है, और जाना है अकेले ही ... :(
ReplyDeleteमनोदशा को बहुत खूबसूरती से इस कविता में चित्रित किया है. सुंदर प्रस्तुति के लिये बधाई.
ReplyDeleteतब ताकता रह जाएगा , तू ही
ReplyDeleteउन पंखुड़ियों को , अनिमेष रे!
सबकुछ अपना , निछावर करके
न रखेगा , कुछ भी शेष रे!
हंसा , उड़ चल न
अपने ही , उस देश रे!
...मन के भावों की बहुत उत्कृष्ट अभिव्यक्ति....
जो सुकून अपने देश में है वो परदेश में कहा..
ReplyDeleteअति सुन्दर अभिव्यक्ति...
:-)
शाश्वत..
ReplyDeleteआरंभ : चोर ले मोटरा उतियइल
क्यों किसी द्वार पर
ReplyDeleteनहीं रुकते ये शिथिल चरण ?
क्यों व्याकुल प्रश्नों से
बोझिल है ये धरती - गगन ?
क्यों संझियाई उदासी लिए
उत्तर के ताके है नयन ?
नहीं रुकते क्योंकि जाना ही नहीं तलाश है किसकी..या फिर तलाश करता ही कौन है..शाश्वत प्रश्नों को उठाती सुंदर कविता के लिए बधाई अमृता जी !
अद्भुत हमेशा की तरह .
ReplyDeleteबहुत सुन्दर अभिव्यक्ति!
ReplyDeleteये जग झूठी माया है .. काहे का रैन बसेरा है ...
ReplyDeleteउड़ चल अपने देस ... मन में उतरती हुई रचना है ...
अच्छी कविता है,,,,,,,,,"निर्गुन" जैसी ....
ReplyDelete:)
बचपन का एक गीत याद आया -
ReplyDeleteहंसा अब उडि चल वहिं देशवा में हो ना
जहां सपने में चमकै बिजुरिया हो ना
बस इतना ही याद है -एक घुटन भरे माहौल से एक स्वच्छंद फंतासी की चाह है यह !