अपनी ही कुछ बंदिश में न जाने क्यों
सीमित -दमित से ही रहते हैं कुछ लोग
इक छोटा -सा अपना ही आकाश लिए
क्यों भ्रमित-चकित रहते हैं कुछ लोग
चाँद -सूरज भी पल दो पल के लिए ही
रोज तो आते हैं पर यूँ ही चले जाते हैं
ख़ामोश -सी स्याह रात को ओढ़े लोग
अपनी जिक्र-फिक्र में ही भटक जाते हैं
उफ़ ! अकेलेपन का ये कैसा इन्तहां कि
दिल के धड़कने की , कोई आवाज़ नहीं
रोग तो लाखों हैं ,यूँ ही जीने के वास्ते
पर ग़म भूलाने को , कोई साज ही नहीं
बवंडर की तरह और तूफ़ान की तरह
हर तरफ ही देखो तो ,ये क्या उठ रहा है?
अपने ही सींखचों में ऐसे घूम -घूमकर
सब आकाश ही इतना क्यों घुट रहा है ?
पानी के बबूलों से बस मोहब्बत करके
कलक कर कागज की किश्ती बनाते हैं
अपने-अपने आग को ही अंदर छुपाकर
दावे से दूसरों पर , कैसे तिलमिलाते हैं
छलावा और दिखावा की ऐसी नुमाईश
करने वाला खुद ही क्या कह सकता है ?
चालाकी से चंद चांदमारी किये बगैर ही
ऐसा आकाश तो भला कैसे रह सकता है ?
अपनी सारी महफ़िल को वीराना करके
सबब पूछते हैं सब , हर एक से रोने का
किस्मत की किलाबंदी करने के बावजूद
खौफ़ रहता ही है उन्हें खुद को खोने का
बंदिशों के बंदिखाने में , बंधकर आकाश
सच -सच कहो तो कितना तड़फड़ाता है
भ्रमों के रेशमी जालों को ही बुन -बुनकर
उसी में खुद ही इतना जो उलझ जाता है
अकेलेपन से कभी अपना दामन छुड़ाकर
अस्ल इंसानियत का भरकर एकअहसास
जब नजरें मिलेंगी उस बड़े आकाश से तो
सीमित न रह पायेगा कोई भी आकाश .
जब नजरें मिलेंगी उस बड़े आकाश से तो
ReplyDeleteसीमित न रह पायेगा कोई भी आकाश ...
...................................................
सुन्दर और लाजवाब रचना
हमें तो अकेलेपन में न जाने कितना विश्व प्रतीक्षारत मिलता है।
ReplyDeleteAmrita,
ReplyDeleteKISI KE EKAKIK JEEVAN KAA VARNAN BAHUT SAPASHT SE KIYAA.
Take care
बहुत सुन्दर रचना अमृता जी ........आपने सही चित्रण किया है
ReplyDeleteखुद में चकित,भ्रमित,विशिष्टता का एहसास लिए चलना
ReplyDeleteबिना कुछ किये खुद को स्थापित मानना -
... अकेलेपन से कभी अपना दामन छुड़ाकर
अस्ल इंसानियत का भरकर एकअहसास
जब नजरें मिलेंगी उस बड़े आकाश से तो
सीमित न रह पायेगा कोई भी आकाश .
अकेलेपन से कभी अपना दामन छुड़ाकर
ReplyDeleteअस्ल इंसानियत का भरकर एकअहसास
जब नजरें मिलेंगी उस बड़े आकाश से तो
सीमित न रह पायेगा कोई भी आकाश,,,,
अहसासों का बहुत सुंदर चित्रण किया आपने,,,अमृता जी,,,
दिल है तो धड़कने का बहाना कोई ढूंढे...
ReplyDeleteइंसानियत के आकाश को आकाश से विस्तृत करके देखने का अदाज-ए-बयां पसंद आया। जीवन के कई आयामों की घुटन को समेटती कविता। जिससे निजात का विकल्प भी कविता की नदी में प्रतिबिंबित होता है। स्वागत है।
ReplyDeleteअपनी सारी महफ़िल को वीराना करके
ReplyDeleteसबब पूछते हैं सब , हर एक से रोने का
किस्मत की किलाबंदी करने के बावजूद
खौफ़ रहता ही है उन्हें खुद को खोने का
बहु आयामी अभिव्यक्ति
बंदिशों के बंदिखाने में , बंधकर आकाश
ReplyDeleteसच -सच कहो तो कितना तड़फड़ाता है
भ्रमों के रेशमी जालों को ही बुन -बुनकर
उसी में खुद ही इतना जो उलझ जाता है
सत्य को कहती सार्थक रचना .... इंसान अपने ही बनाए जाले में उलझता जाता है ।
बंदिशों के बंदिखाने(बंदी -खाने ) में , बंधकर आकाश
ReplyDeleteसच -सच कहो तो कितना तड़फड़ाता है
भ्रमों के रेशमी जालों को ही बुन -बुनकर
उसी में खुद ही इतना जो उलझ जाता है
अकेलेपन से कभी अपना दामन छुड़ाकर
अस्ल(असल ) इंसानियत का भरकर एकअहसास
जब नजरें मिलेंगी उस बड़े आकाश से तो
सीमित न रह पायेगा कोई भी आकाश .
बेशक कवि को मात्राओं की छूट लेने का हक़ हासिल है लेकिन असल ,असली .असलियत /असल /नक़ल प्रयोग हैं उर्दू में .बाकी आप विदूषी हैं .सोच समझ के तौल के ही प्रयोग किया होगा .
कवियित्री ने .
रचना बेहद सशक्त है परिसीमन के बाँध टूटते ज़रूर हैं .सैलाब आता ज़रूर है भावना का ज्वार भी सारी हदबंदी तब चुक जाती है .खुद से खुद की .आप आशु कवियित्री का दर्ज़ा हैसल करने की देहलीज़ पे खड़ीं हैं दो लाइनें एक पूरा प्रबंध रच दिया आपने भाव का ,अनुभाव का ,विराग का ,और वैयक्तिक सुराग का .ओढ़े हुए सुरक्षा कवच को बींधना बड़े कौशल का काम होता है .
ram ram bhai
मुखपृष्ठ
सोमवार, 1 अक्तूबर 2012
ब्लॉग जगत में अनुनासिक की अनदेखी
ब्लॉग जगत में अनुनासिक की अनदेखी
ReplyDeleteअकेलेपन से कभी अपना दामन छुड़ाकर
अस्ल इंसानियत का भरकर एकअहसास
जब नजरें मिलेंगी उस बड़े आकाश से तो
सीमित न रह पायेगा कोई भी आकाश .
सच बात है ....अपनी अंतर दृष्टि ही सीमा से असीम की ओर ले जाती है हमें .....
अपनी सारी महफ़िल को वीराना करके
ReplyDeleteसबब पूछते हैं सब , हर एक से रोने का
किस्मत की किलाबंदी करने के बावजूद
खौफ़ रहता ही है उन्हें खुद को खोने का
अमृता जी आपका काव्य चित्रण अच्छा लगा । मेरी नई पोस्ट 'बहती गंगा' पर आपका इंतजार रहेगा। धन्यवाद।
अपनी सारी महफ़िल को वीराना करके
ReplyDeleteसबब पूछते हैं सब , हर एक से रोने का
किस्मत की किलाबंदी करने के बावजूद
खौफ़ रहता ही है उन्हें खुद को खोने का
...जब नजरें मिलेंगी उस बड़े आकाश से तो
सीमित न रह पायेगा कोई भी आकाश .
बहुत बढ़िया
सुन्दर और लाजवाब रचना
ReplyDeleteअकेलेपन से कभी अपना दामन छुड़ाकर
ReplyDeleteअस्ल इंसानियत का भरकर एकअहसास
जब नजरें मिलेंगी उस बड़े आकाश से तो
सीमित न रह पायेगा कोई भी आकाश .
....बहुत सच..यही है एक उपाय अकेलापन भगाने का..बहुत उत्कृष्ट प्रस्तुति..
ReplyDeleteबंदिशों के बंदिखाने में , बंधकर आकाश
सच -सच कहो तो कितना तड़फड़ाता है
भ्रमों के रेशमी जालों को ही बुन -बुनकर
उसी में खुद ही इतना जो उलझ जाता है
बहुत सुंदर, क्या बात
जब भी समय मिले, मेरे नए ब्लाग पर जरूर आएं..
http://tvstationlive.blogspot.in/2012/09/blog-post.html?spref=fb
मिश्रित भवनाएँ ,कुछ प्रस्फुटित होती कुछ घुटती सी -कुछ मचलती आकाश छूने को उद्यत !
ReplyDeleteपानी के बबूलों से बस मोहब्बत करके
ReplyDeleteकलक कर कागज की किश्ती बनाते हैं
अपने-अपने आग को ही अंदर छुपाकर
दावे से दूसरों पर , कैसे तिलमिलाते हैं
वाह....
बहुत सुन्दर रचना...
अनु
अपनी सारी महफ़िल को वीराना करके
ReplyDeleteसबब पूछते हैं सब , हर एक से रोने का
किस्मत की किलाबंदी करने के बावजूद
खौफ़ रहता ही है उन्हें खुद को खोने का...
कितना सच ...बहुत ही खुबसूरत शेर..
भ्रमों के रेशमी जालों को ही बुन -बुनकर
ReplyDeleteउसी में खुद ही इतना जो उलझ जाता है!!
भ्रम के रेशमी जाल में सिमटा आसमान विस्तृत होने की बात जोहता है !
बहुत खूब !
अकेलेपन से कभी अपना दामन छुड़ाकर
ReplyDeleteअस्ल इंसानियत का भरकर एकअहसास
जब नजरें मिलेंगी उस बड़े आकाश से तो
सीमित न रह पायेगा कोई भी आकाश .म्म्बहुत सुन्दर भाव..बहुत खूब !
आसमान के विस्तार से जुड़कर मन का विस्तार बहुत कुछ समेटना चाहता है।
ReplyDeleteबेहतरीन भावार्थ समेटे एक अच्छी कविता |
ReplyDeletekomal bhawnaon ko samete ek utkkrist rachana anmol si.
ReplyDeleteबंदिशों के बंदिखाने में , बंधकर आकाश
ReplyDeleteसच -सच कहो तो कितना तड़फड़ाता है
भ्रमों के रेशमी जालों को ही बुन -बुनकर
उसी में खुद ही इतना जो उलझ जाता है
बंदिशों के बंदिखाने में , बंधकर आकाश
ReplyDeleteसच -सच कहो तो कितना तड़फड़ाता है
भ्रमों के रेशमी जालों को ही बुन -बुनकर
उसी में खुद ही इतना जो उलझ जाता है
WAH...
ReplyDeleteअपनी ही कुछ बंदिश में न जाने क्यों
ReplyDeleteसीमित -दमित से ही रहते हैं कुछ लोग
.....satya....satya ....aur satya ....
बहुत ख़ूब! वाह!
ReplyDeleteकृपया इसे भी देखें-
नाहक़ ही प्यार आया
पानी के बबूलों से बस मोहब्बत करके
ReplyDeleteकलक कर कागज की किश्ती बनाते हैं
हिंदी फ्लेवर की इतनी खूबसूरत नज़्म पहली बार पढ़ी है. बहुत ख़ूब.
अकेलेपन से कभी अपना दामन छुड़ाकर
ReplyDeleteअस्ल इंसानियत का भरकर एकअहसास
जब नजरें मिलेंगी उस बड़े आकाश से तो
सीमित न रह पायेगा कोई भी आकाश .
बहुत ही सच कहा है आपने,अमृता जी.
उठा बगुला प्रेम का तिनका उड़ा आकाश
तिनका तिनके से मिला तिनका तिनके पास
बेहतरीन और लाजवाब करती ये पोस्ट शानदार है ।
ReplyDeleteकभी कभी शब्द छोटे पड़ जाते हैं भाव प्रबल हो जाते हैं तब व्याकरण के नियम बेमानी हो जाते हैं..सुंदर रचना !
ReplyDeleteअकेलेपन से कभी अपना दामन छुड़ाकर
ReplyDeleteअस्ल इंसानियत का भरकर एकअहसास
जब नजरें मिलेंगी उस बड़े आकाश से तो
सीमित न रह पायेगा कोई भी आकाश .
लाजवाब करते शब्दों का संगम