गुलाब नहीं मिला
तो पंँखरियाँ ही लाई हूँ !
बाँसुरी नहीं मिली
तो झंँखड़ियाँ ही लाई हूँ !
कैसे भेंट करूँ ?
सुवासित हुई तो
सुगंधियाँ लाई हूँ !
गुनगुन उठा तो
ध्वनियाँ ही लाई हूँ !
कैसे भेंट करूँ ?
देखो !
प्रेम प्रकट है
निज दर्श लाई हूँ !
तुम्हें छूने के लिए
कोमल से कोमलतम
स्पर्श लाई हूँ !
कैसे भेंट करूँ ?
संग-संग इक
झिझक भी लाई हूँ !
ये मत कहना कि
विरह जनित
मैं झक ही लाई हूँ !
कैसे भेंट करूँ ?
तुम ही कहो !
तुम्हें देने के लिए
बिन कुछ भेंट लिए
कैसे मैं चली आती ?
लाज के मारे ही
कहीं ये धड़कन
धक् से रूक न जाती !
यूँ निष्प्राण हो कर भला
जो सर्वस्व देना है तुम्हें
कहो कैसे दे पाती ?
मेरे तेजस्व !
हाँ ! निज देवस्व
देना है तुम्हें
अब तो कहो !
कैसे भेंट करूँ ?
पत्रम पुष्पं फलं तोयं का स्मरण हो आया है भक्ति,प्रेम,अनुराग और श्रद्धा के अमोल भावों से ओतप्रोत इस रचना को पढ़कर, समर्पण की पराकाष्ठा की पावन अभिव्यक्ति!!
ReplyDeleteअत्यंत कोमल भाव और समर्पण का सुंदर गीत।
ReplyDelete------
गुलाब या पंखुड़ियाँ,
बांसुरी या झंखडियाँ
मत करो तूम भेंट
सुगंधी या ध्वनियाँ
स्पर्श या झिझकियाँ
क्षणिक सांसारिक घड़ियाँ
सुनो! तुम उपहार में
ले आओ न कुछ प्रार्थनाएँ
जिसके पवित्र शब्दों के मध्य
गूँजे हमारे प्रेम की लहरियाँ
प्रकृति के कण-कण में रचे
शाश्वत आलाप की कड़ियाँ।
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सस्नेह।
वाह और सिर्फ वाह प्रिय श्वेता 👌👌👌🌷🌷❤️❤️
Deleteजी नमस्ते ,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार (२१-०१ -२०२२ ) को
'कैसे भेंट करूँ? '(चर्चा अंक-४३१६) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है।
सादर
वाह!वाह!गज़ब तारीफ़ करूँ क्या आपके सृजन की डूब कर लिखते हो। शब्द-शब्द मुग्ध करता।
ReplyDeleteतुम्हें छूने के लिए
कोमल से कोमलतम
स्पर्श लाई हूँ!... वाह!
आपको भी बहुत बहुत सारा स्नेह
वाह
ReplyDeleteजी नमस्ते,
ReplyDeleteआपकी लिखी रचना शुक्रवार २१ जनवरी २०२२ के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं।
सादर
धन्यवाद।
समर्पण भाव से युक्त मनमोहक भक्ति गीत।
ReplyDeleteबहुत ही शानदार रचना
ReplyDeleteविरह की गहनतम अभिव्यक्ति ।
ReplyDeleteबिना उपहार स्वयं को निष्प्राण कर मिलना भी नहीं चाहतीं । चरमसीमा है प्रेम की ।
यादों के बवंडर में डूबते हुए भावनाओं को खूबसूरत शब्दों का पैरहन दिया है ।
🙏🙏
सुन्दर प्रेम-गीत !
ReplyDelete'विरह जनित
मैं झक ही लाई हूँ !'
के स्थान पर कुछ और होता तो बेहतर होता.
सुंदर गीत।
ReplyDeleteतुम्हें छूने के लिए
ReplyDeleteकोमल से कोमलतम
स्पर्श लाई हूँ !
कैसे भेंट करूँ ?
संग-संग इक
झिझक भी लाई हूँ !बेहद खूबसूरत गीत।
बहुत सुंदर रचना, मुग्ध करते भाव, सुंदर शब्द समायोजन।
ReplyDeleteदेवस्व कहाँ निज का होता है, तेजस्व का तेजस्व को अर्पित कैसे करना बस यही समझना है।
अप्रतिम।
तुम ही कहो !
ReplyDeleteतुम्हें देने के लिए
बिन कुछ भेंट लिए
कैसे मैं चली आती ?
लाज के मारे ही
कहीं ये धड़कन
धक् से रूक न जाती !
अद्वितीय..
सादर
मेरे तेजस्व !
ReplyDeleteहाँ ! निज देवस्व
देना है तुम्हें
अब तो कहो !
कैसे भेंट करूँ ?
प्रेम भक्ति और समर्पण से ओतप्रोत लाजवाब सृजन
वाह!!!
मेरे तेजस्व !
ReplyDeleteहाँ ! निज देवस्व
देना है तुम्हें
सुंदर रचना..
सादर नमन.
बहुत खूबसूरत वर्णन लाजवाब
ReplyDeleteबहुत बहुत सुन्दर मधुर रचना
ReplyDeleteअंतस से निसृत कोमलतम भावों की बहुत ही सुन्दर अभिव्यक्ति अमृता जी। प्रेम की सबसे आनंददायी अवस्था वही है जहां स्व का आभास मिट कर दूसरे की सत्ता में विलीन हो एकाकार हो जाता है। सर्वस्व समर्पण की कामना में डूबे हुए हृदय के मधुर उदगारों की मोहक प्रस्तुति के लिए हार्दिक बधाई और शुभकामनाएं आपको 🙏🌷🌷🌷🌷
ReplyDeleteमिलते जुलते भाव 🙏
ReplyDeleteक्या दूं प्रिय! उपहार तुम्हें?
जब सर्वस्व पे है अधिकार तुम्हें
मेरी हर प्रार्थना में तुम हो
निर्मल अभ्यर्थना में तुम हो
तुम्हें समर्पित हर प्रण मेरा
माना जीवन आधार तुम्हें
मुझमें -तुझमें क्या अंतर अब!
कहां भिन्न दो मन-प्रांतर अब
क्या शेष रहा भीतर मेरे
जीता है सब कुछ हार तुम्हें
मेरे साथ मेरे सखा तुम्हीं
मन की पीड़ा की दवा तुम्हीं
क्यों आस कोई जग से रखूं
जब सौंपा सब उर भार तुम्हें
🌷🌷🙏🌷🌷🙏🌷🌷
अमृता जी आपकी रचना को समर्पित मेरे भाव💐💐
ReplyDeleteओह! प्रेम ?
पहचानती नहीं तुम्हें,
फिर भी चाहती कुशल क्षेम ।।
जानती हूं तुम निराकार ब्रह्म हो ।
फिर भी मेरे जीवन का आरंभ हो ।।
तुम्हें स्वीकार किया है ।
अंगीकार किया है ।।
तुमने कहा था जीवन एक तपस्या है ।
शेष सब मिथ्या है ।।
तुम्हारे कहे पे चल रही हूं ।
दिए की भांति जल रही हूं ।।
कहीं ये पड़ाव तो नहीं ।
भावनाओं का बहाव तो नहीं ।।
डूब गई तो क्या होगा ?
शायद वहीं हमारा मिलन है जहां भंवर होगा ।।👏👏
तुम्हें ही स्वीकार किया है ।
Deleteअंगीकार किया है ।।//
वाह क्या बात है प्रिय जिज्ञासा जी 👌👌👌
प्रेम की कोई सटीक परिभाषा होती कहां है। सच में निराकार ब्रह्म ही तो है प्रेम 🙏
लाजवाब सृजन
ReplyDeleteप्रेम की भक्ति में परिणति हो रही है, सब स्वीकार होगा ही!
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