रति की मूर्च्छा टूटी तो एक तरफ गूंज रही थी देववाणी की छलना
दूसरी तरफ उसकी उत्कट वेदना का सूझ रहा था कोई भी हल ना
व्याघातक दुर्भाग्य दंड से हत , गलित , व्यथित , शोकाकुल रति को
झुला रहा था विकट , विकराल , विभत्स , विध्वंसक मायावी पलना
तत्क्षण ही वह निज प्राण को तज दे या कि वह चिर प्रतीक्षा करे
या हृदय में अभी देवों और ॠतुपति के द्वारा दिए कल्प शिक्षा धरे
या कि उसके अंगस्वामी कामदेव जब तक पूर्ण सुअंग को न पाए
तब तक वह पतिव्रता निज अंग को पति के लिए क्यों न रक्षा करे
अकस्मात क्षीण-सी स्मृति भी कौंध आई माँ-पिता और बहन की
शापवश ही सही पर हश्र का कारण तो हुए है जो उसके मदन की
निश्चय किया कि जाकर पूछूं कि क्यों अकेले यहाँ मुझे वे छोड़ गए
क्रोधबल को पा उसकी बलवती हुई संचित क्षमता संताप सहन की
मदन-दहन सुन कर शैलराज हिमालय क्योंकर दौड़े-दौड़े आए थे
पिनाकपाणि के भय से भयभीत सुता की दशा देख के घबराये थे
क्या मेरी सुधि तनिक भी न आई कि मैं भी तो उनकी ही जाया हूँ
क्या निज अभिलाष को टूटा हुआ देखकर मन ही मन वे घबराये थे
मेरी आंखों के सामने ही उस एक क्षण में ही ये कैसा अनर्थ हो गया
गौरा की काया का पुलक पूर्ण अवयवों का विक्षेप भी व्यर्थ हो गया
पर यदि शूलपाणि का ही चित्त चंचल नहीं होता तो मैं भी मान लेती
कि पुरुषार्थ के समक्ष मूल्यविहीन , आकर्षणविहीन स्त्र्यर्थ हो गया
सृष्टि साक्षी है कि जितेंद्रियों का भी वश नहीं चला है स्त्रियों के आगे
तीनों लोक डोल जाता है जब स्त्रियों का सुप्त पड़ा अहंकार जो जागे
पार्वती के दृढ़ संकल्प , विश्वास और निश्चय को कौन नहीं है जानता
भूतनाथ अपने भूतों और गणों के संग जब तक भागना चाहें तो भागे
यदि लज्जा वश , संकोच वश स्त्रियां खुल कर कुछ नहीं कह पाती हैं
तो उसे निर्बल , असहाय , निरुपाय कह-कहकर ही जगती बुलाती है
क्यों पुरुषत्व को भी स्त्रीत्व के ही शरण में पुनः-पुन: आना पड़ता है
तब तो समर्पित स्त्रीत्व अपना होना भी त्याग कर सृष्टि आगे बढ़ाती है
ये सोचकर अपने कंधों पर अपना ही क्षत-विक्षत हुआ शव को ढोकर
थरथराते-लड़खराते , गिरते-पड़ते मग से पग-पग पर खाते हुए ठोकर
पथराई-सी आंखों में अविश्वसनीय-सा उस दारूण दृश्य को लिए हुए
चल पड़ी विह्वल रति विंध नव वैधव्य के व्यसनार्त में मूर्छित हो-होकर
उस क्षण दिनकर के रहते ही चहुंओर घिर आया था घोर तम का बसेरा
ह:! ह:! विलाप ! उसके सम्मुख ही कैसे डूब गया था उसका ही सबेरा
रह-रह कर उभरता त्रिपुरान्तकारी त्रिलोचन का वो क्रुद्ध कोपानल ही
उसके हर डग पर द्रुत बिजली की भांति ही जैसे कर रहा था उग्र उजेरा
चलो माना ! इस सृष्टि की रक्षा हेतु निमित्त हुआ पंचपुष्प शर सन्धानी
दैवीय प्रपंच के कुटिल व्यूह में फंस मेरा मनोज हुआ आत्म बलिदानी
पर अंतिम श्वास तक मेरा साथ निभाने का मुझको अटूट वचन देकर
हाय ! हाय ! हाय ! क्यों मेरे इस करुण दुःख से वही ऐसे हुआ अज्ञानी
मेरी आर्त हृदय की ऐसी चित्कार से निष्ठुर परमात्मा भी क्यों नहीं पसीजे
क्षमा करो अब आ भी जाओ , मुझे छोड़कर कहाँ चले गए मेरे मनसिजे
मेरी न सुनो न सही पर अपने सखा को सोचो कि बिन तुम्हारे क्या होगा
हे मन्मथ ! अभिमान रूप ॠतुराज की आंखें भी वर्षाकाल के जैसे भीजे
मेरे मनोभव ! दुःख है तेरे संग संसार का सुख के उद्गम का नाश हो गया
कल जो तुमने कुसुम शय्या सजाया था आज शोक-सर्प का पाश हो गया
अब तो स्मृतियों में ही तेरा दिव्य रूप दिखेगा और सब का समागम होगा
हे पंचशायक ! पापी दैव और काल के चाल में कैसा ये सत्यानाश हो गया
विदग्धा रति मायके पहुंची यूं ही अनर्गल प्रलाप और विलाप करते-करते
झुकी हुई आंखों से शैलराज ने उसे देखा मगर भीतर-ही-भीतर डरते-डरते
मरण-शय्या पर लेटी पार्वती थी और सिराहने में माँ मैना भी बुझी बैठी थी
सबके गले लग कर बिलख उठी रति और बोली क्यों वह बच गई मरते-मरते
जो मेरे आत्मभू का सृष्टि हेतु शुभ प्रयोजन न जाने स्वयंभू वे कैसे अन्तर्यामी हैं
काम से मुख फेर लिया किन्तु क्रोध को जो जीत न पाए तो वे भी वृत्तिगामी हैं
ब्रम्ह विधान में विघ्न डालना कोई उनसे जा के पूछे कि क्या यही है पुरुषोचित
इतना सबकुछ होने पर भी जग उनको ही पूजेगा क्योंकि वे तो औढरदानी हैं
जी भर सुनने के बाद गौरा बोली चाहे जो हो जाए पर प्रण मैं निभा कर रहूंगी
जिसको मैंने मन में वरण किया है अब उसी को अपना पति बना कर रहूंगी
मुझ पर आंख बंद करके भरोसा रख और जरा धीरज धर मेरी प्यारी बहना
उसी भोले-भाले त्रिलोचन के प्रसाद से ही तेरे पति को भी जिला कर रहूंगी.