भाषिक अभिव्यक्ति के स्तर पर रचनाकर्म
सादृश्यता में मधुमक्खी के छत्ते की प्रतिकृति है
एक बहुआयामी रसास्वाद की व्यापकता
और सौंदर्यानुभूति ही इसकी प्रकृति है.....
क्या ये निज मधु मापने की
कोई मौनाबलम्बित मिति है ?
या दिग्ध-दंश से विक्षत होने की
कोई व्यग्र पटाक्षेपी वृति है ?
न ही जीवन की यथार्थ भूमिका से
यूँ ही तटस्थ रहा जाता है
न ही प्रयोजन-निष्प्रयोजन का ही
कोई स्थूल भेद कहा जाता है.....
विरोधाभासों की विक्षुब्धता तो
और भी सहा नहीं जाता है
पर मन को कितना भी रोको तो भी
सबके सुख-दुःख में बस बहा जाता है.....
तिसपर घटनाओं और भूमिकाओं की
अपनी-अपनी परिस्थितियां हैं
साथ ही भावनाओं और व्यंजनाओं की
विशेष अनाधिकृत व्युतपत्तियां हैं.....
क्या ये आनंद और आंतरिक पीड़ा से
क्षणिक भावावेश में मोहाछन्न मुक्ति है ?
या हर्षोल्लास और वेदना की
अपने दृष्टिनिक्षेप में व्यर्थ व्यासक्ति है ?
तब तो व्यक्तित्व से अस्तित्व तक का विस्तार
सबको विचित्र व्यथा से भर देता है
और कोई उपलब्ध क्षण पसर कर
मानवीय मूल्यों को घर देता है..........
एक यही घर तो हमारे जीवित होने का
श्वास से भी अधिक प्रमाण देता है
और शब्दों-भावों का एक संसार सजकर
रचनाकर्म को निरंतर विधान देता है......
निस्संदेह सर्जन-प्रक्रिया में विलक्षण चमत्कार सा
नितांत नया युग भी स्वयं को व्यंजित पाता है
इसलिए तो सामान्य मानसिक स्थितियों से अलग
रचनाकर्म की मनोभूमि को अतिविशिष्ट माना जाता है .
सादृश्यता में मधुमक्खी के छत्ते की प्रतिकृति है
एक बहुआयामी रसास्वाद की व्यापकता
और सौंदर्यानुभूति ही इसकी प्रकृति है.....
क्या ये निज मधु मापने की
कोई मौनाबलम्बित मिति है ?
या दिग्ध-दंश से विक्षत होने की
कोई व्यग्र पटाक्षेपी वृति है ?
न ही जीवन की यथार्थ भूमिका से
यूँ ही तटस्थ रहा जाता है
न ही प्रयोजन-निष्प्रयोजन का ही
कोई स्थूल भेद कहा जाता है.....
विरोधाभासों की विक्षुब्धता तो
और भी सहा नहीं जाता है
पर मन को कितना भी रोको तो भी
सबके सुख-दुःख में बस बहा जाता है.....
तिसपर घटनाओं और भूमिकाओं की
अपनी-अपनी परिस्थितियां हैं
साथ ही भावनाओं और व्यंजनाओं की
विशेष अनाधिकृत व्युतपत्तियां हैं.....
क्या ये आनंद और आंतरिक पीड़ा से
क्षणिक भावावेश में मोहाछन्न मुक्ति है ?
या हर्षोल्लास और वेदना की
अपने दृष्टिनिक्षेप में व्यर्थ व्यासक्ति है ?
तब तो व्यक्तित्व से अस्तित्व तक का विस्तार
सबको विचित्र व्यथा से भर देता है
और कोई उपलब्ध क्षण पसर कर
मानवीय मूल्यों को घर देता है..........
एक यही घर तो हमारे जीवित होने का
श्वास से भी अधिक प्रमाण देता है
और शब्दों-भावों का एक संसार सजकर
रचनाकर्म को निरंतर विधान देता है......
निस्संदेह सर्जन-प्रक्रिया में विलक्षण चमत्कार सा
नितांत नया युग भी स्वयं को व्यंजित पाता है
इसलिए तो सामान्य मानसिक स्थितियों से अलग
रचनाकर्म की मनोभूमि को अतिविशिष्ट माना जाता है .
तब तो व्यक्तित्व से अस्तित्व तक का विस्तार
ReplyDeleteसबको विचित्र व्यथा से भर देता है
और कोई उपलब्ध क्षण पसर कर
मानवीय मूल्यों को घर देता है..........और जब ऐसे होता है तो निश्चित ही सामान्य मानसिक स्थितियों से अलग रचनाकर्म की मनोभूमि को अतिविशिष्ट माना जाता है। रचनाधर्मिता को स्थिति, परिस्थिति, देशकाल, भाव-विचारों के जिन उपक्रमों का सहारा लेना पड़ता है, उनका गहरा विश्लेषण है इस कविता में।
सुन्दर प्रस्तुति-
ReplyDeleteशुभकामनायें आदरणीया-
काव्याभिव्यक्ति मनुष्यता का प्रमाणीकरण है!अच्छा लिखा है -गद्य और पद्य दोनों के लिहाज से लालित्यपूर्ण और अर्थगाम्भीर्य लिए है !
ReplyDeleteअर्थगाम्भीर्य लिए सुंदर अभिव्यक्ति..!
ReplyDeleteRECENT POST -: कामयाबी.
तब तो व्यक्तित्व से अस्तित्व तक का विस्तार
ReplyDeleteसबको विचित्र व्यथा से भर देता है
और कोई उपलब्ध क्षण पसर कर
मानवीय मूल्यों को घर देता है..........
वाह ! बहुत सुंदर अमृता जी...रचना धर्मिता का बस यही प्रयोजन नहीं है क्या कि यह सहज है..निस्वार्थ है..जैसे कोई फूल बस खिलना जानता है वैसे ही जिसका अंतर भावों से पूर्ण हुआ वह बहना चाहता है...
रचनाधर्मिता ही स्वयं के होने की पुष्टि करती है !
ReplyDeleteबहुत खूब !
एक यही घर तो हमारे जीवित होने का
ReplyDeleteश्वास से भी अधिक प्रमाण देता है
और शब्दों-भावों का एक संसार सजकर
रचनाकर्म को निरंतर विधान देता है....
तब ही न सिर्फ विचार पनपते हैं बल्कि विस्तार भी पाते हैं ... और रचना को विशिष्ट पहचान भी देते हैं ... गहरे अर्थ और सुन्दर शब्द संयोजन का कमाल है ये रचना .. लाजवाब ...
विरोधाभासों की विक्षुब्धता तो
ReplyDeleteऔर भी सहा नहीं जाता है
पर मन को कितना भी रोको तो भी
सबके सुख-दुःख में बस बहा जाता है.....
निशब्द हूँ । रचनाकर्म कि इस भाषिक अभिव्यक्ति पर । बस "हैट्स ऑफ"
अति उत्तम एवं प्रशंसनीय . बधाई
ReplyDeleteहमारे ब्लॉग्स एवं ई - पत्रिका पर आपका स्वागत है . एक बार विसिट अवश्य करें :
http://www.swapnilsaundaryaezine.blogspot.in/2013/11/vol-01-issue-03-nov-dec-2013.html
Website : www.swapnilsaundaryaezine.hpage.com
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रचनाकार के मन में सृजन प्रक्रिया से उमड़ी बातों को जिस बेबाकी से आपने रखा है वो बहुत प्रशंसनीय है. रचनाधर्म की विशिष्टता शायद यही है की वह ना स्वयं से दूर है, ना ही औरों से. एक आवर्तकाल की तरह सतत दोनों किनारा छूता है और शब्द बन बरसता रहता है. अति सुन्दर रचना.
ReplyDeleteइस पोस्ट की चर्चा, बृहस्पतिवार, दिनांक :- 14/11/2013 को "हिंदी ब्लॉगर्स चौपाल {चर्चामंच}" चर्चा अंक - 43 पर.
ReplyDeleteआप भी पधारें, सादर ....
अपने लेखन के प्रति समर्पण भाव को अभिव्यक्त करने का सार्थक प्रयास। लेखक लिखता है और अपने भावों-विचारों का उचित परिणाम देख ताकत पाता है। लेखन के प्रति आशावाद का प्रकटन कविता करती है।
ReplyDeleteतिसपर घटनाओं और भूमिकाओं की
ReplyDeleteअपनी-अपनी परिस्थितियां हैं
साथ ही भावनाओं और व्यंजनाओं की
विशेष अनाधिकृत व्युतपत्तियां हैं.....
(व्युत्पत्तियाँ ,व्युत्पत्ति ,व्युत्पन्न ?)
क्या ये निज मधु मापने की
कोई मौनाबलम्बित मिति है ?
या दिग्ध-दंश से विक्षत होने की
कोई व्यग्र पटाक्षेपी वृति है ?
(वृत्ति ?)
निस्संदेह सर्जन-प्रक्रिया में विलक्षण चमत्कार सा
नितांत नया युग भी स्वयं को व्यंजित पाता है
इसलिए तो सामान्य मानसिक स्थितियों से अलग
रचनाकर्म की मनोभूमि को अतिविशिष्ट माना जाता है .
ज्यादातर तो ये गद्य है कहीं कहीं लयात्मकता इसमें आकर मिल जाती है। बाहर की शब्द योजना भीतर से स्पष्ट होने की कामना करती है। यह ठीक वैसे ही है जैसे कोई घूँघट निकालके मुख दर्शन कराना चाहे यदि आप स्पष्ट होना चाहते हैं तो उसके लिए स्पष्ट भाषा का सहारा लेना पड़ता है। सृजन प्रक्रिया बेशक जटिल है लेकिन अगर आप उसे शब्दों से और जटिल बनायेंगें तो पाठक तक क्या पहुंचेगा भाषा अभिव्यक्ति के लिए होती है अभिव्यक्ति को अवगुंठित करने के लिए नहीं होती अपने भीतर जैसे कोई संघर्ष चल रहा है उसको कहना जैसे कवियित्री को मुश्किल रहता है। रचना प्रक्रिया की दृष्टि तो यह है वह जटिल रचना प्रक्रिया निकलके वह पाठक के सामने आये। परिणिति क्या है परिणाम क्या है यह पाठक के समझ में आये है। संरचना का जो जटिलता है उस पर पार पाने का दाियत्व रचना कार का है पाठक का नहीं है। जटिल को और जटिल बनाना ?बेशक कवि अपना पाठक भी होता है लेकिन और भी तो पाठक पैदा करता है।
bahut sundar
ReplyDeletemere blog par bhi aap sabhi ka swagat hai
iwillrocknow.blogspot.in
भिन्न भिन्न परिस्थियों की जो प्रतिक्रियाएं हैं ,वे मन के आँगन से बाहर आने के लिए बेताब होते हैं |कभी सरल सहज गद्य के रूप में निसृत होते है ,कभी ताल लय को साथ लिए पद्य /गीत के रूप में प्रगट होता है |निश्चित रूप में यह एक नया रूप है और यह रचनाकार के मन के भार को उतार देता है और एक नई सृष्टि के रूप में सामने आता है |यह सृष्टि जितना सहज और सरल होगा उतना बोधगम्य होगा ,ग्राह्य होगा|
ReplyDeleteनई पोस्ट लोकतंत्र -स्तम्भ
बहुत ही सशक्त उदगार.
ReplyDeleteरामराम.
सृजन तो हमेशा से अतिविशिष्ट रहा है ..चाहे वह किसी भी रूप में हो ....केवल मर्यादाएं बदलती हैं .....गौरव नहीं ....!!!
ReplyDeleteबहुत सुन्दर कृति अमृताजी
अत्यंत गंभीर बिषय पर गंभीरता से लिखी गंभीर रचना ..आपको हार्दिक बधाई ..पुनः एक निवेदन ..कठिन शब्दों का अर्थ भी देतो और आसानी होगी .हर पाठक के लिए संभव नहीं कठिन बात को गूढ़ शब्दों के माध्यम से समझ पाना ..आपकी रचनाएँ व्यापक चिंतन केलिए प्रेरित करती हैं यदि गूढ़ शब्दों के अर्थ भी यहाँ हो तो आपकी रचनाएँ एक पाठशाला हो जावेंगी ..जिसका साहित्य उन्नयन में महती योगदान होगा ..और अगले रचना को समझने के लिए पाठक को उन्नत मानसिक स्तर प्रदान करेगी ..पाठक तब तक उस गहराई तक नहीं पहुँच पाटा जब तक रचनाकार और पाठक की आवृति एक जैसी न हो जाए ..आदरणीया आप मेरे निवेदन को अन्यथा न लीजियेगा ..रहस्यों से पर्दा हटाने के लिए शायद मेरा ये निवेदन आप को उचित प्रतीत हो ..सादर
ReplyDeleteनिस्संदेह... विलक्षण, चमत्कार सा सृजन...
ReplyDelete.....सच, कई शब्दों से भिड़ने के बाद इस अनमोल कृति को पढ़कर हैरान हूँ...एक बेहतरीन रचनाकार की कलम से जो भी निकलता है, वो सबको तृप्त व आत्मिक अनुभूति में सराबोर करने वाला होता है... ऐसे में कहीं न कहीं अंदर दबी उस पीड़ा का अविरल प्रवाह भला कौन रोक सकता है ? बस ...ऐसा ही पोस्ट है ये ....हमारा भी मन उस पीड़ा और दुःख में बहा जा रहा है......
ReplyDeleteलेखनी में ख़ूबसूरत अदायगी है ...
ReplyDeleteअद्भुत लेखनी .
ReplyDeleteसार्थक व् सटीक। श्वांसों से जीवित होने का प्रमाण मिले तो हम पशु ही कहलायेंगे, मनुष्य बनकर जीने के लिए निस्संदेह रचनाकर्म ही साँसें हैं।
ReplyDeleteशब्द बहुत ही सुन्दर लिए हैं आपने इस रचना में.