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Sunday, January 16, 2022

स्नेह-शिशु ..........

                                       अविज्ञात, अविदित प्रसन्नता से प्रसवित स्नेह-शिशु हृदय के प्रांगण में किलकारी मारकर पुलकोत्कंपित हो रहा है। कभी वह निज आवृत्ति में घुटने टेक कर कुहनियों के बल, तो कभी अन्य भावावृत्तियों को पकड़-पकड़ कर चलना सीख रहा है। विभिन्न भावों से अठखेलियाँ करते हुए, गिरते-पड़ते, सम्भलते-उठते, स्वयं ही लगी चोटों-खरोंचों को बहलाते-सहलाते हुए, वह बलक कर बलवन्त हो रहा है। कभी वह हथेलियों पर ठोड़ी रख कर, किसी उपकल्पित उपद्रव के लिए, शांत-गंभीर होकर निरंकुश उदंडता का योजना बना रहा है। तो कभी अप्रत्याशित रूप से उदासी को, मृदु किन्तु कम्पित हाथों से गुदगुदा कर चौंका रहा है। कभी वह अपने छोटे-छोटे, मनमोही घुँघरुओं की-सी रुनझुनाहट से, पीड़ित हृदय के बोझिल वातावरण को, मधुर मनोलीला से मुग्ध कर रहा है । तो कभी इधर-उधर भाग-भाग कर, समस्त नैराश्य-जगत् को ही, अपने नटराज होने की नटखट नीति बता रहा है। 

                     स्नेह-शिशु कभी निश्छल कौतुकों से ठिठक कर, इस भर्राये कंठ में जमे सारे अवसाद को पिघलाने के लिए, प्रायोजित उपक्रम कर रहा है। तो कभी वह ओठों के स्वरहीन गति को, निर्बंध गीतों में तोतलाना सिखा रहा है। वह येन-केन-प्रकारेण हृदय को, अपने अनुरागी स्नेह-बूँदों की आर्द्रता देकर, नव रोमांच से अभिसिंचित करना चाह रहा है। उसके नन्हें-नन्हें हाथों का घेराव, उसका यह कोमल आग्रह बड़ी प्रगाढ़ता से, मनोद्वेगों को समेट रहा है। फिर आगे बढ़ कर उसे आगत-विगत के समस्त व्यथित-विचारों से, विलग कर अपने निकट खींच रहा है। संभवतः उसका यह भरपूर लेकिन गहरा स्पर्श, उस अर्थ तक पहुँचने का यत्न है, जो स्वयं ही अवगत होता है। जिसे नैराश्य-जगत् का झेंप और उकताहट, मुँह फेर कर अवहेलना कर रहा है। पर स्नेह-शिशु की प्रत्येक भग्नक्रमित भंगिमाएँ उसे भी सायास मुस्कान से भर रहा है। तब तो उदासी भी अपलक-सी, अवाक् होकर उसका मुँह ताक रही है। जिससे उसपर पड़ी हुई व्यथा की, चिन्ता की काली छाया, विस्मृति के अतल गर्त में उतरने लगी है। 

                             स्नेह-शिशु अयाचित-सा एक निर्दोष अँगराई लेते हुए, विस्तीर्ण आकाश को, बाँहों से फैला रहा है। वह मनोविनोदी होकर, छुपा-छुपाई खेलना चाह रहा है। ऐसा करते हुए वह कभी दु:ख के पीछे, कभी संताप के पीछे छुप रहा है। तो कभी चुपके-से वह व्यथा का, तो कभी हताशा का आड़ ले रहा है। उसे पता है कि वह कितना भी छुपे, पर अब कहीं भी छुप नहीं सकता। फिर भी वह घोर निराशा के पीछे, स्वयं को छुपाने का अनथक प्रयास कर रहा है। पर उसका यह असफल प्रयास, हृदय को अंगन्यास-सा आमोदित कर रहा है। जिसे देखकर वह भी अपने स्वर्ण-दंत-पंक्तियों को निपोड़ते हुए, प्रमोद से खिलखिला रहा है। ऐसा करते हुए वह कभी इधर से तो कभी उधर से, अपने सुन्दर-सलोने मुखड़े को आड़ा-तिरछा करके, उदासी को चिढ़ा रहा है। तो कभी प्रेम-हठ से उसका हाथ पकड़े, चारों ओर चकरघिन्नी की तरह घुमा रहा है। उदासी अपने घुमते सिर को पकड़कर, उसे कोमल किन्तु कृत्रिम क्रोध से देख रही है।

                    स्नेह-शिशु को यूँ ही उचटती दृष्टि से देखते हुए भी चाहना के विपरीत, बस एक अवश भाव से मन बँधा जा रहा है। वह भाव जो प्रसन्नता के भी पार जाना चाहता है। वह भाव जो उसके प्रेम में पड़कर उसी के गालों को, पलकों को, माथे को बंधरहित होकर चूमना चाह रहा है। ऐसा लग रहा है कि जैसे वह भी प्रतिचुम्बन में उदासी के आँखों को, कपोलों को,  ग्रीवा को, कर्णमूल को, ओठों को एक अलक्षित चुम्बन से चूम रहा हो। जिससे अबतक हृदय में जमा हुआ सारा अवसाद द्रवित होकर द्रुत वेग से बहना चाह रहा है। फिर तो उसकी उँगलियाँ भी उदासी के माथे के उलझे बालों से बड़े कोमल स्पर्श में खेलने लगी हैं। ऐसा अविश्वसनीय इन्द्रजाल! ऐसा संपृक्त सम्मोहन! ऐसा आलंबित आलोड़न! जिससे हृदय एक मीठी अवशता से अवलिप्त होकर सारे नकारात्मक भावों को यथोचित सत्कार के साथ विदा करना चाह रहा है। 

                                                 स्नेह-शिशु के लिए एक स्निग्ध, करुण, वात्सल्य-भरा स्पर्श से उफनता हुआ हृदय स्वयं को रोक नहीं पा रहा है। उसकी सम, कोमल थपकियों से, कभी बड़ी-बड़ी सिसकियों से अवरूद्ध हुआ स्वर, पुनः एकस्वर में लयबद्ध हो रहा है। फिर कानों में जीजिविषा की एक अदम्य फुसफुसाहट भी तो हो रही है। फिर से इन आँखों को भी सत्य-सौंदर्य की दामिनी-सी ही सही कुछ झलकियाँ दिख रही है। उदास विचार मन से असम्बद्ध-सा उसाँस लेकर क्षीणतर होने लगा है। अरे! ये क्या ? स्नेह-शिशु के पैरों का थाप चारों ओर तीव्र-से-तीव्रतर होता जा रहा है। मानो स्नेह-शिशु का इसतरह से ध्यानाकर्षण, सहसा स्मृति के बाढ़ को ही इस क्षण के बाँध से रोक दिया हो।

                                     स्नेह-शिशु के इस जीवन से भरपूर, ऐसा प्रगाढ़ चुम्बन और आलिंगन में हृदय हो तो किसी भी अवांछित उद्वेग को, मन मारकर, दबे पाँव ही सही अपने मूल में लौटना ही पड़ेगा। तब चिरकालिक शीत-प्रकोपित अलसाये उमंगों को भी मुक्त भाव से मन में फूटना ही पड़ेगा। मृत-गत विचारों के बाहु-लता की जकड़ को ढीली करके, आकाश के विस्तार में फिर से हृदय को ऊँची छलांग लगाना ही होगा। कोई भी टूटा स्वर ही क्यों न हो सही पर,जीवन-गीत को नित नए सुर से गाना ही होगा। साथ ही जीवन के सरल सूत्रों के सत्य से, आंतरिक सहजता को आदी होना ही होगा। जब क्षण-क्षण परिवर्तित होते भाव-जगत् में भी भावों का आना-जाना होता ही रहता है तो ये उदासी किसलिए ? स्नेह-शिशु भी तो यही कह रहा है कि जब कोई भी भाव स्थाई नहीं है तो उसे पकड़ कर रखना व्यर्थ है और आगे की ओर केवल सस्नेह बढ़ते रहने में ही जीवन का जीवितव्य अर्थ है। 

16 comments:

  1. ज़िन्दगी जीने के लिए बहुत ज़रूरी है कि ऐसे स्नेह शिशु मार्ग प्रशस्त करते रहें ।उदासी भी आखिर कब तक ? जो इंसान दुख को ओढ़ लेता है वो अपने ही लोगों को परेशान करता है और एक वक्त आता है कि नितांत अकेला रह जाता है । मुझे प्रसन्नता है कि आप अपने को इस लेखन के माध्यम से खुद को व्यस्त रख रही हैं ।
    प्रेरक लेख ।

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  2. आपकी लिखी रचना सोमवार. 17 जनवरी 2022 को
    पांच लिंकों का आनंद पर... साझा की गई है
    आप भी सादर आमंत्रित हैं।
    सादर
    धन्यवाद।

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  3. वाह ! अद्भुत !! अप्रतिम !!! अंतर में जगे इस अलौकिक, अविदित, अविज्ञात प्रसन्नता से प्रसवित स्नेह शिशु की बलिहारी जाने को दिल चाहता है, जो अपनी इतनी सुंदर भाव-भंगिमाओं से जीवन के सरल सूत्रों को समझा रहा है. आपके अंतर्मन में इसी तरह जीवन के सत्य का सहज उद्घाटन होता रहे और पाठकों को उसका रसास्वादन मिलता रहे.

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  4. नमस्ते,
    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा सोमवार (17-01-2022 ) को 'आने वाला देश में, अब फिर से ऋतुराज' (चर्चा अंक 4312) पर भी होगी। आप भी सादर आमंत्रित है। 12:01 AM के बाद प्रस्तुति ब्लॉग 'चर्चामंच' पर उपलब्ध होगी।

    चर्चामंच पर आपकी रचना का लिंक विस्तारिक पाठक वर्ग तक पहुँचाने के उद्देश्य से सम्मिलित किया गया है ताकि साहित्य रसिक पाठकों को अनेक विकल्प मिल सकें तथा साहित्य-सृजन के विभिन्न आयामों से वे सूचित हो सकें।

    यदि हमारे द्वारा किए गए इस प्रयास से आपको कोई आपत्ति है तो कृपया संबंधित प्रस्तुति के अंक में अपनी टिप्पणी के ज़रिये या हमारे ब्लॉग पर प्रदर्शित संपर्क फ़ॉर्म के माध्यम से हमें सूचित कीजिएगा ताकि आपकी रचना का लिंक प्रस्तुति से विलोपित किया जा सके।

    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।

    #रवीन्द्र_सिंह_यादव

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  5. वाह!बहुत ही सुंदर।
    स्नेह-शिशु की अनेकों अटखेलियाँ हृदय में उतर गई।
    प्रेम का आलौकिक स्वरूप, शब्दों के सहारे भावों की वल्लरियाँ
    में पल्लवित पुष्प चित्त को चूमते हुए से...। सराहनीय सृजन।

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  6. बहुत खूब !! बिलकुल सत्य ! अंतिम पंक्तियां पूरे आलेख को समृद्ध कर गईं, शिशु तो मध्यम बन सकता है, जीवन को पुनर्जीवित करने के लिए जिजीविषा तो स्वयं ही पैदा करनी पड़ती है, मानव जीवन की यही श्रेष्ठता है, स्नेह शिशु.. बहुत सुंदर जीवंतता से ओतप्रोत आलेख । एक शिशु सुंदर जीवन का आधार बने यही कामना है ।
    गूढ़, आत्मीय, चिंतनपूर्ण आलेख के लिए बहुत बधाई अमृता जी ।

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  7. स्नेह शिशू प्रतीक रखकर जीवन में आते उतार-चढ़ाव बदलाव , अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थितियों को व उससे नि:सृत प्रतिछाया और उनसे स्वयं को अटल रखना।
    एक अप्रतिम भाव संप्रेषण।
    अभिनव सृजन।

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  8. निशब्द हूं आपके इस खूबसूरत लेख को पढ़कर.. !
    सारे भाव सारी महत्वपूर्ण बिंदु पर आपने प्रकाश डाल ही दिया
    मैं क्या करूं समझ नहीं आ रहा! 🙏🙏🙏

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  9. मृत-गत विचारों के बाहु-लता की जकड़ को ढीली करके, आकाश के विस्तार में फिर से हृदय को ऊँची छलांग लगाना ही होगा। कोई भी टूटा स्वर ही क्यों न हो सही पर,जीवन-गीत को नित नए सुर से गाना ही होगा।
    सही कहा स्नेह शिशु ने कि कोई भाव स्थाई नहीं तो उन्हें पकड़ना व्यर्थ है समयानुरूप बदलाव जरूरी है भावों का भी...
    बहुत ही सुन्दर चिनतनपूर्ण सृजन।

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  10. स्नेह शिशु के निश्छल, पवित्र और सहज क्रीड़ामय भावों से जाने क्यों आँखें छलछला गयी। अंतस भाव निर्बाध रूप से प्रवाहित होते हैं स्नेह हो या उदासी समान रूप से जीवन के गति को प्रभावित करते हैं।
    स्नेह शिशु के हावभाव से उदास मन को बहलाना,फुसलाना,मनाना सहज करने की प्रक्रिया नहीं एक कठिन तप है। हाँ, यह तो सच है कि भाव हो या क्षण कुछ भी स्थायी नहीं इस सूत्र को जीवन में अंगीकार कर लें समय से मिले किसी भी शोक को सहजता से स्वीकार कर पाना आसान हो शायद...।
    स्नेह शिशु के क्रियाकलापों में डूबता उतराता मन सचमुच सारी पीड़ा भूल जाता है,इस प्रेरणादायक,सकारात्मकता का उद्घोष किसी उदास मन पर औषधि के लेप की तरह है।
    इस अद्भुत रचना के लिए बधाई।

    सस्नेह।

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  11. बहुत ही भावपूर्ण आलेख

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  12. बहुत भावपूर्ण अभिव्यक्ति है अमृता जी। आपके लेख मोहक भाषा में बंध मन को बरबस बांध लेते हैं। स्नेह शिशु का क्रिया कलाप अर्थात स्नेह का शैशव काल विभिन्न अनुभूतियों का काल होता है। शिशु शब्द में अबोधपन
    मासूमियत और मौलिकता सब होते हैं। अभिनय का पुट न होना इसकी सार्थकता है। गहन मंथन से उपजे इस सुंदर लेख के लिए हार्दिक आभार और अभिनंदन 🙏🙏🎈🎈❤️❤️

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  13. समझ में लेकिन मुश्किल से ही आ पाता है "जीवन का जीवितव्य अर्थ"

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  14. बहुत ही सार्थक लेख

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  15. वा व्व अमृता दी, स्नेह शिशु के क्रियाकलापो का इतना सूक्ष्म अवलोकन! बहुत सुंदर लेख के लिए बधाई।

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  16. बहुत सुन्दर! कुछ शब्दों को चुराऊँगा यहाँ से, कुछ लिखना है ... और सारे शब्द यहीं पड़े हुए हैं !

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