मेरे अंधे अनुचरों
मैं अति महत्वाकांक्षी
सिद्धि सिद्ध कर
मैंने दिया तुम्हें
वो दिव्य दृष्टि
जिससे तुम मुझे
देख सको
अपनी-अपनी
आकांक्षा के आईने में....
मेरी महानता है कि
आईने के पीछे चढ़ा
केसरिया मुलम्मे को
रगड़-पोछ कर
हो गया मैं
थोड़ा पारदर्शी......
देखो मेरा विशाल साम्राज्य
कब्र में लेटा सिकंदर भी
रश्क करता होगा
इसे देखकर.......
थोड़ा और
पारदर्शी हो जाऊं तो
कब्ज़ा ही न जमा लूँ
पहले पायदान पर......
आओ कुछ कर्म करें
एक लम्बी सांस
अपने अंदर करो
तुम अपनी तिजोरी से
और तुम
अपनी अंटी से
परमारथ के लिए
कुछ बाहर करो.........
बाजार में
बड़ी मारामारी है
देश में या तो बेकारी है
या केवल भ्रष्टाचारी हैं...
मेरे पीछे चलना
तुम्हारी लाचारी है.....
और तो और
विरोधियों के हाथ
सान धरा आड़ी है......
हमें मिलकर
संभलकर चलना है
काले-गोरे का
भेद मिटा
परमारथ के लिए
एक-दूसरे को
छलना है.
बहुत अच्छी रचना ... यह कटाक्ष किस पर साधा है ?
ReplyDeleteवाकई यह प्रश्न शेष है कि आपने अंतिम कटाक्ष किस पर किया है हालाँकि इसका उत्तर देना आपके लिए बाध्यकारी नहीं है.
ReplyDeleteसुंदर रचना.
kaafi kuch sochne ko de diya
ReplyDeleteगहरा कटाक्ष है ... व्यवस्था के प्रति क्षोभ है जो रचना में उतरा है ...
ReplyDeleteपरमारथ के नाम पर ये छलना छलनी तो जैसे हमारी नियति बनती गयी हो !
ReplyDeleteइस दिव्यदृष्टि से सब को छला ही तो जा रहा है॥
ReplyDeleteव्यवस्था के प्रति गहरा कटाक्ष ।
ReplyDeleteइस अप्रतिम रचना के लिए बधाई स्वीकारें
ReplyDeleteनीरज
बहुत स्पष्ट सोच....आज के वक़्त के अनुरूप ...आज के समाज पर ....बाबाओं के जाल पर ......बहुत खूब....
ReplyDeleteसोचने को मजबूर करती आपकी लेखनी
इक्कीसवीं सदी का परमार्थ...
ReplyDeleteसोचने को मजबूर करती रचना,
ReplyDeleteआभार- विवेक जैन vivj2000.blogspot.com
व्यंग की धार तेज है . सान धरी आरी अब निस्तेज है .
ReplyDeleteसमसामयिक कटाक्ष..... बेहतरीन रचना
ReplyDeleteपरमारथ के लिए एक दुसरे को छलना है. जबरदस्त कटाक्ष सीधी सरल रचना के द्वारा.
ReplyDeleteसुंदर प्रस्तुति के लिए बधाई.
intense sarcasm and a thought stimulating write up !!
ReplyDeleteLoved it.
har bar ki tarah uttam rachna...jaanta hun kataksh kis par hai...you ki bhog mayi rajneeti aur pad lolupta ki chaah...aah...bahut hi saamyik aur satya kathan amrita..
ReplyDeleteMain Hyderabad mein tha aur Friday ko poori tarah utsuk ki aaj kuchh achha padhne ko milega...par ye intezaar saturday tak ke liye khinch gaya...aur intezar ka fal meetha hota hi hai...
bahut achhi kavita aur seekh bhi.
परमार्थ के लिए एक दूसरे को छलना है....
ReplyDeleteवाह, बेजोड़ बात कही है आपने।
बहुत बड़िया।
सुंदर रचना ...विचारों की गहन अभिव्यक्ति
ReplyDeleteसमसामयिक कटाक्ष..... बेहतरीन रचना
Fine poem.You are writing thought poems in a good manner.My best wishes.
ReplyDeletedr.bhoopendra
mp
Bahut acha vayang kiya hai mam. . . . . .
ReplyDeleteJai hind jai bharat
इतने साड़ी टिप्पणीयों में मुझे नहीं लगा कोई समझ पाया या जान कर अनजान बने....पर मैं समझ गया ये निशाना कहाँ लगा हैं.....आपसे सहमत हूँ ......एक एक शब्द सत्य को उजागर कर रहा है......ज़बरदस्त व्यंग्य.......आपके साहस को सलाम ऐसी पोस्ट के लिए |
ReplyDeleteबढ़िया कटाक्ष !
ReplyDeleteमेरे ब्लाग पर आपके आगमन का धन्यवाद ।
ReplyDeleteआपको नाचीज का कहा कुछ अच्छा लगा, उसके लिए हार्दिक आभार
आपका ब्लाग भी अच्छा लगा । बधाई
सटीक...एवं शानदार रचना....
ReplyDeleteबढ़िया कटाक्ष !
ReplyDeleteबहुत सुन्दर और ज़बरदस्त रचना लिखा है आपने! शानदार कटाक्ष!
ReplyDeleteबहुत ही सुंदर कविता अमृता जी बधाई और शुभकामनाएं |
ReplyDeleteअंतिम पंक्तियाँ बेहतरीन हैं...
ReplyDelete"काले-गोरे का
भेद मिटा
परमारथ के लिए
एक-दूसरे को
छलना है."
एक अलग तरीके से वही बात!
मुझे लगता है कि इस रचना की एक हार्ड कापी सही जगह पहुंचा दी जानी चाहिए।
ReplyDeleteअच्छा व्यंग..ढोंगियों के लिए
देखने और दिखाने का युग है |
ReplyDeleteकलयुग है |
दुनिया रंगों का चश्मा लगाकर
ही देखी जा रही है |
लाल, केशरिया
नीला हरा
सफ़ेद |
और कई भेद ||
पर कोई झंडा अब-तक काला नहीं
कोई दिल के रंग का झंडा कैसे बनाए |
दिल की कालिमा बाहर कैसे लाये, कैसे दिखाए ||
अमृता तन्मय जी सुन्दर रचना सोचने को विवश करती व्यंग्य और कटाक्ष छलना काला गोरा क्या खूब निशाना रहा
ReplyDeleteशुक्ल भ्रमर५
बिलकुल सही और यथार्थ वाक्य है आपका परमार्थ के बारे में.परमार्थ के नाम पर ही तो लुटेरे,काले व्यापार वाले जनता को छल रहे हैं.
ReplyDeleteकाले गोरे का भेद मिटा ,
ReplyDeleteपरमार्थ के लिए -
एक दूसरे को छलना है ।
अच्छी रचना ,विडंबना यही है गोरे हाथ नहीं आते .छली जाती है सृजना .
आईने को रगड़ कर पारदर्शी बनाने की कल्पना बिलकुल ही अभिनव प्रयोग है.इन पंक्तियों के लिए मेरी विशेष बधाई स्वीकार करें.प्रथम आगमन को नियमित आगमन बनायें.
ReplyDeleteबहुत सही बात कही है आपने.
ReplyDeleteआजकल लोगों का परमार्थ भी अपने स्वार्थ में निहित होता है.
सादर
यह वास्तव में केवल कविता ही है या व्यंग्य । आज के माहौल ने इतना भ्रमित कर दिया है कि सच और व्यंग्य मेरी समझ में ही नहीं आ पाता
ReplyDeleteएकदम सीधे प्रहार किया है आपने आज की व्यवस्था पर....माहौल पर....समाज पर...
ReplyDeleteसांस्कृतिक गिरावट के इस दौर में इस सार्थक लेखन के लिए आपको हार्दिक बधाई।
गहरे भावों से लबरेज़ कविता.
ReplyDeleteआपकी इस पोस्ट की हलचल यहाँ भी है-
ReplyDeleteनयी-पुरानी हलचल
तथाकथित परमारथ ..
ReplyDeleteजोरदार रचना
aap achchha likhtee hain aur achchha likhnewalon se apekshaa hotee hee hai . kabhee mere blog par bhee aaiye .
ReplyDeleteआज के भ्रष्टाचारी माहौल पर करारा व्यंग...
ReplyDeleteअमृता जी, मेरे मन की बात आपने कह दी। बधाई।
ReplyDelete---------
ब्लॉग समीक्षा की 20वीं कड़ी...
आई साइबोर्ग, नैतिकता की धज्जियाँ...
धारदार व्यंग्य रचना
ReplyDeleteसब कुछ स्पष्ट है किन्तु कुछ लोग अपने चश्मे से देखकर कुछ ज्यादा ही खुश दिख रहे हैं
Gajab ki rachna... Bahut sare rahasya aapki rachna se nikal kar baahar aati hain.. Bahut der kar di mujhe to kab ka aapka anuchar ban jana chahiye tha... Congrats !
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