खोजती रही मैं ..
अपने पादचिह्न
कभी आग पर चलते हुए
तो कभी पानी पर चलते हुए
खोजती रही मैं ..
अपनी प्रतिच्छाया
कभी रात के घुप्प अँधेरे में
तो कभी सिर पर खड़ी धूप में
खोजती रही मैं ..
अपना परिगमन -पथ
कभी जीवन के अयनवृतों में
तो कभी अभिशप्त चक्रव्यूहों में
खोजती रही मैं..
अपनी अभिव्यक्ति
कभी निर्वाक निनादों में
तो कभी अवमर्दित उद्घोषों में
खोजती रही मैं ..
अपना अस्तित्व
कभी हाशिये पर कराहती आहों में
तो कभी कालचक्र के पिसते गवाहों में
हाँ ! खोज रही हूँ मैं ........
नियति और परिणति के बीच
अपने होने का औचित्य .
यही खोजते रहना ही मनुष्य होने की सार्थकता है।
ReplyDelete...सशक्त अभिव्यक्ति।
jeevan ko talaashti hui kavita ..hamesha ki tarah lajaawab
ReplyDeleteबहुत सुन्दर अभिव्यक्ति, बेहतरीन अंदाज!
ReplyDeleteहकीकत से रूबरू कराती हुई सुन्दर रचना
ReplyDeleteअमृता जी,
ReplyDeleteखोज बहुत सुन्दर लगी....जीवन एक खोज ही है.....बहुत कम लोग ऐसे जीते हैं जिनके पदचिह्न पीछे संसार में छूटते हैं और उनका अनुसरण करने वाले बनते हैं.....खोजते-खोजते ही एक दिन वो मिल जाता है जिसे पाने पर और कुछ पाने की अभिलाषा नहीं रह जाती है....पर कई बार मंजिल से ज्यादा अच्छा सफ़र होता है........शुभकामनाये इस खोज के लिए |
bahut achha laga.
ReplyDeleterahul
यही तो जीवन की त्रासदी है सब गलत जगह खोज रहे हैं, आग व पानी पर चिह्न,अँधेरे में परछाई....बाहर आनंद....जो जहाँ खोया है वहाँ कोई नहीं जाता.... इस सच्चाई से रूबरू कराने वाली रचना के लिये बधाई!
ReplyDeleteबहुत खूबसूरत अभिव्यक्ति ...यह खोज निरंतर चलती है ....सोचने पर मजबूर करती रचना ...
ReplyDeleteअंतिम पंक्तियाँ जीवन का निष्कर्ष हैं ..पूरी कविता सच में औचित्य को खोजने का प्रयास है ..लाजबाब प्रस्तुति
ReplyDeleteचलते -चलते पर भी आपका स्वागत है ..
आप भी खोजिये, मैं भी खोजता हूँ....
ReplyDeleteबहुत अच्छी कविता है...
बेहद अंतर्द्वन्दात्मक है स्वयं से रूबरू होने का यह सफर ..
ReplyDeleteशायद अपने होने का औचित्य तलाशना दुष्कर ही है
बेहद खूबसूरत रचना
अमृता जी,
ReplyDeleteवाह... क्या बात है! आपके लेखन में शास्त्रोक्त खोज ‘कोऽहम्’(मैं कौन हूँ)की गंध का अनुभव हुआ..अच्छा लगा।
आपने जिन बिम्बों को बख़ूबी साधा है, वे आपके परिपक्व काव्य-शिल्प की बानगी पेश करते हैं...बहुत कम लोग इस स्तर पर जाकर सोच पाते हैं।
आपके ‘निर्वाक निनाद’ और ‘अवमर्दित उद्घोषों’ ने काफी देर तक मुझे बाँधकर रखा....चिंतन-लोक में भ्रमण करता रहा मैं। (आपसे अनवधानतावश वर्तनी अशुद्ध छप गयी है: ‘उद्धोषों’ नहीं, बल्कि ‘उद्घोषों’ होना चाहिए...है न? यदि आप टाइप करें- ud^^ghoShoM तो सही वर्तनी छप जाएगी।)
‘रात के घुप्प अँधेरे में
तो कभी सिर पर खड़ी धूप में’
यहाँ जो बिम्ब आपने उकेरा है, वह अत्यन्त प्रशंसनीय है। रात में क़द ‘लम्बा’ और सिर-चढ़ी धूप में ‘बौना’ हो जाता है। यह बिम्ब आपके अंदर के असली चिंतक का स्वरूप लेकर सामने आया है।
आपने बात को सिर्फ़ ‘कोऽहम्’ तक ही नहीं, प्रत्युत् (कवितान्त में जाकर) ‘किम प्रयोजनम्’ तक पहुँचा दिया।
समग्रतः अस्तित्व, अभिव्यक्ति और औचित्य को तलाशती यह कविता अति सुन्दर है।
यक़ीनन मैं आपको आज प्रथम बार पढ़ने आया हूँ...लेकिन सच मानिए मैंने काफी मनोयोग से पढ़ा है आपको...आता रहूँगा अब मैं!
यदि कभी भूल भी जाऊँ तो भी आप स्वयं याद दिलाने में संकोच न करें!
such a meaningful lines of self discovery.
ReplyDeleteTa umra ham apne hone ka aauchtya khojte rahte hain....apni abhivyakti ko Abhimanyu kar koshish karte hain kal ke chakravyuh ka udbedhan karne ki...
ReplyDeleteaapki kavita hamare manobhavon ki sundar abhuiyakti hai...Aap hamare man mein uthe sawalon aur jawabon ka bakhubi chitran karti hain...
aap bahut hi samvedansheel hain aur pardarhi bhi...Aapko bahut shubhkaamna.
खुद को ढूंढ पाना ही शायद चरम है जीवन के अस्तित्व का।
ReplyDeleteजी नमस्ते ,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार(०७ -०९-२०२१) को
'गौरय्या का गाँव'(चर्चा अंक- ४१८०) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है।
सादर
यह खोज कभी खत्म भी नहीं होती ! होनी भी नहीं चाहिए
ReplyDeleteबहुत बहुत सुन्दर सराहनीय |
ReplyDeleteगजब अमृता जी।
ReplyDeleteसच हम विसंगतियों में ही संगति क्यों खोजने में लगे रहते हैं जहाँ सिर्फ हाथ मलना ही बाकी रहता है।
गहन दर्शन है आपके सृजन में।
सुंदर सृजन।
वाकई सरहानीय रचना!
ReplyDeleteहाँ ! खोज रही हूँ मैं ........
ReplyDeleteनियति और परिणति के बीच
अपने होने का औचित्य .
वाह!लाजवाब सृजन । गहन चिंतन ।