ऐसा नहीं हो सकता कि
कोई अज्ञात नदी
पृथ्वी तले चुपचाप बहती हुई
समंदर की तरफ बढ़ी जा रही हो
हालाँकि उसका सफ़र
थोड़ा मुश्किल भरा होगा
उसे कुछ ज्यादा
वक्त लग रहा होगा
फिर भी बहती चली जा रही है
धीरे -धीरे , धीरे -धीरे
अपनी व्यथा को
स्वयं में ही समेटे हुए
हाँ प्रिय !
वो नदी मैं ही हूँ और
बाँहें फैलाये हुए तुम - समंदर
मुझमें ठंडा उन्माद है
तो तुममें उतप्त धैर्य
समय के साथ एकाकार होकर
मैं आ रही हूँ , आ रही हूँ ....
राहगीरों की प्यास बुझाते हुए
तुम भी अपनी सीमाओं को
और फैलाओ , और फैलाओ ....
ताकि जब हम मिलें तो
क्षितिज भी शेष न रहे .
अज्ञात नदी की व्यथा .....कथा... बेहद सुंदर.... अमृता
ReplyDeleteअमृता जी,
ReplyDeleteअज्ञात नदी....बहुत सुन्दर.....ये क्षितिज भी गवाह बनेगा नदी और सागर के उस 'महामिलन' का समंदर तो गहरा और शांत है बहना तो नदी को ही पड़ेगा अपनी समग्र शक्ति को इकठ्ठा करके उस महामिलन के लिए......बहुत सुन्दर|
बहुत खूबसूरत अभिव्यक्ति ..
ReplyDeletebhut accha likhti hai aap....bdhayi...
ReplyDeleteअमृता जी, आप की कई रचनाएँ आज पढ़ी, कमाल की अभिव्यक्ति है, पढ़ते पढ़ते मंत्रमुग्ध हो गया, मुझे लगता है कि इस कविता में पहली पंक्ति ' ऐसा नहीं हो सकता कि' की जगह 'ऐसा भी हो सकता है कि ' हो तो ज्यादा ठीक होगा ये पंक्ति रचना के हिसाब से उपयुक्त प्रतीत नहीं होती, क्योंकि आप शुरू में नकार रही हैं कि ऐसा नहीं हो सकता, मैं गलत भी हो सकता हूँ, लेकिन जो मुझे उचित लगा आप से कह दिया! शुभकामना!
ReplyDelete....ठंडा उन्माद और उतप्त धैर्य के साथ क्षितिज के एकाकार होने की कल्पना रोमांचित कर देती है।
ReplyDelete....सुंदर कविता।
वाह.क्या बात है..अज्ञात नदी..समंदर.. :)
ReplyDeleteमैं भी नीलेश जी की बात से सहमत हूँ, नदी होगी तभी तो समन्दर से मिलेगी ! कविता अच्छी लगी !
ReplyDeleteyakeenan behad shaandaar
ReplyDeleteनिलेश जी ,अनीता जी ,........ मैं स्पष्टीकरण कर रही हूँ ......... यह कविता संवाद शैली में लिखी गयी है . मैं अपने प्रिय से सहज रूप में पूछ रही हूँ कि .....ऐसा नहीं हो सकता कि ......... यहाँ नहीं का आशय केवल मेरी कौतूहल से है . फिर मैं प्रिय को बताती हूँ कि मैं ही अज्ञात नदी हूँ और वो समंदर है . ........आशा है कि आप सभी संतुष्ट अवश्य होंगे . ....आप सबों का हार्दिक धन्यवाद ..
ReplyDeleteबहुत बढ़िया लगी यह रचना
ReplyDeletebahut khub
ReplyDeleteaapki kavita maine bhi padhi...........main blog par jara der se aata hoon.aaj aaya to aapki kavita padhi.
ReplyDeleteprem ko bahut achchhi abhivyakti di hai aapne.
bahut badhiya.
maine bhi aapki sabhi kavitaaein padhi.
ReplyDeletemujhe lagta hai agar aap mujhe pahle mil jaati to bahut achchha hota.
aapki sabhi kavitaaein prem ko ek naya rang deti hain
agyaat naddi,khuli mutthi,paschyataap,nyaay,rachna ......kitno ke naam likhoon..............sab ke sab adbhut hain.
Real Happiness Lies in Making Others Happy...Avatar Meher Baba
ReplyDeleteइंग्लिश की क्लास
Regards
Chandar Meher
बहुत अच्छी प्रस्तुति। राजभाषा हिन्दी के प्रचार-प्रसार में आपका योगदान सराहनीय है! हार्दिक शुभकामनाएं!
ReplyDeleteलघुकथा – शांति का दूत
ताकि जब हम मिले तो क्षितिज भी शेष न रहे ...
ReplyDeleteमैं आपकी इन पंक्तियों पर अपनी एक कविता को कमेन्ट के रूप में निछावर करता हूँ ....यही आपकी कविता के लिए मेरा सच्चा कमेन्ट होंगा !!
"" क्षितिज ""
तुमने कहीं वो क्षितिज देखा है ,
जहाँ , हम मिल सकें !
एक हो सके !!
मैंने तो बहुत ढूँढा ;
पर मिल नही पाया ,
कहीं मैंने तुम्हे देखा ;
अपनी ही बनाई हुई जंजीरों में कैद ,
अपनी एकाकी ज़िन्दगी को ढोते हुए ,
कहीं मैंने अपने आपको देखा ;
अकेला न होकर भी अकेला चलते हुए ,
अपनी जिम्मेदारियों को निभाते हुए ,
अपने प्यार को तलाशते हुए ;
कहीं मैंने हम दोनों को देखा ,
क्षितिज को ढूंढते हुए
पर हमें कभी क्षितिज नही मिला !
भला ,
अपने ही बन्धनों के साथ ,
क्षितिज को कभी पाया जा सकता है ,
शायद नहीं ;
पर ,मुझे तो अब भी उस क्षितिज की तलाश है !
जहाँ मैं तुमसे मिल सकूँ ,
तुम्हारा हो सकूँ ,
तुम्हे पा सकूँ .
और , कह सकूँ ;
कि ;
आकाश कितना अनंत है
और हम अपने क्षितिज पर खड़े है
काश ,
ऐसा हो पाता;
पर क्षितिज को आज तक किस ने पाया है
किसी ने भी तो नही ,
न तुमने , न मैंने
क्षितिज कभी नही मिल पाता है
पर ;
हम ; अपने ह्रदय के प्रेम क्षितिज पर
अवश्य मिल रहें है !
यही अपना क्षितिज है !!
हाँ ; यही अपना क्षितिज है !!!
बेहद खूबसूरत
ReplyDeleteआपकी रचनाएँ भाव से परिपूर्ण हैं और बेहद सघन अनुभूतियों को समेटे हुए प्रतीत होती हैं
अमृता जी ,
ReplyDeleteमैंने आपके ब्लॉग पर प्रकाशित लगभग सभी रचनायें पढ़ ली हैं...बेहद गहन सोच और सटीक शब्द चयन आपके लेखन में पारिलाक्षित होता है...आपसे किस तरह कांताक्ट किया जा सकता है..कृपया मेरे email address " mgarg226@gmail.com " पर संपर्क करें..आपके ब्लॉग पर टिप्पणी आपके द्वारा संचालित होती हैं इसलिए कृपया इस टिप्पणी को ब्लॉग पर पोस्ट ना करें यह आपसे संपर्क करने का एक जरिया है मात्र...
शुक्रिया
मुदिता
Bahut aacha likha hai aapne....Antim panktiya bahut khoob hai.
ReplyDeleteअमृता जी,
ReplyDeleteपहली दफ़ा आपके ब्लॉग पर आया हूँ । दुबारा आने से खुद को रोक न पाऊँगा । खैर, इस कविता की बात करता हूँ...
"समय के साथ एकाकार होकर
मैं आ रही हूँ , आ रही हूँ ....
राहगीरों की प्यास बुझाते हुए
तुम भी अपनी सीमाओं को
और फैलाओ , और फैलाओ ....
ताकि जब हम मिलें तो
क्षितिज भी शेष न रहे"
यह मेरी व्यक्तिगत सोच है कि इन पंक्तियों तक आते आते कविता ने आपको रचना शुरू कर दिया, वरना इतनी खूबसूरत बात कैसे कह पातीं आप ? दार्शनिकता की झलक भी मिलती है । बहुत अच्छी रचना है । आशा है, आगे भी अपनी रचनाओं से हमें अनुगृहित करेंगीं !
अमृता , बचपन मे हम एक गाना सुनते थे और गाते भी थे...”ओह रे ताल मिले नदी के जल में,नदी मिले सागर में ,सागर मिले कौन से जल में कोई जाने ना...”...मैं आज भी इस प्रश्न का उत्तर शायद ढूंढ नहीं पाया...
ReplyDeleteआपकी कविता ने कुछ कुछ प्रत्युत्तरित किया है मेरे प्रश्न को ...सच में हमारे भीतर की अन्तः सलिला है जो ठंडे उन्माद की आंच में किसी धैर्यवान समंदर की प्रतीक्षा में वाष्प होती जा रही...समंदर की बाहें विशाल हैं...और उनमे समा जाना नदी की नियति...
बहुत ही दार्शनिक बात कही आपने...बधाई ...लिखती रहें....ताकि हम पढ़ते रहें...
ईश्वर प्रेम
ReplyDeleteमोक्ष निर्वाण सा मिलन
प्रेम
नदियों का मिलन
Very Nice
बहुत सुन्दर!
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