जानते हो तुम
कि तुमसे ही है मेरी
मलाहत भरी मुस्कुराहट
बेसबब बेसमझ बेपरवा सी
न थमने वाली खिलखिलाहट....
और तुम खामख़ाह फुरकते ग़म देते हो
व मुद्दत बाद बेहाली से मिलते हो...
मैं रूठूँ तो यूँ न रूठो कहते हो
तिस पर खिलखिलाती रहूँ ख्वाहिश भी करते हो..
क्या कहूँ मैं...
कुछ न भी कहूँ तो
ये पलक ही उठकर
तुमसे हजार बातें कह जाती
और जब गिरती है तो
घबराकर क्यूँ साँसे तुम्हारी अटक जाती....
फिर तुम जबतक
इस माथे की उलझती-सुलझती लकीरों को
चूम-चूम कर सुलझा नहीं लेते
इन गालों की बदलती रंगत को
बड़ी सादगी से सहला नहीं लेते
गीतों के कुछ बेतरतीब पंक्तियाँ
बिन सुर गुनगुना नहीं लेते
उस चाँद के ग़रूर को भी
उसके दागों से आजमा नहीं लेते
और इस रूठी को मना नहीं लेते...
तबतक क़समें दे-देकर
वक़्त को तो रोक ही देते
छुनन-मुनन कर छेड़ती हवा को भी
झींख भरी झिड़क से टोक ही देते...
जैसे कि
मेरी मुस्कराहट की मुहताजी हों सब
जिसे देखकर खिल उठेंगे मोगरे के फूल
ठठा ठठाकर ठिठक जायेंगी
खिदमती खुशबू भी राह भूल....
फिर मानो पूरी कायनात ही
तुम्हारी इस ग़ाफ़िल ग़ज़ल की
गवाही देने को हो जायेगी बेचैन
और ये होंठ हिलते ही
मिल जाएगा सबको आराम-चैन....
ये जानते हुए भी
अजब-गजब अदा दिखा कर
मैं तो मानी हुई ही रूठी रहूँगी
कितने पिंगल पिरो-पिरोकर
तेरी प्रीत है झूठी कहती रहूँगी........
ताकि तुम यूँ ही
बेहिसाब ग़ाफ़िल ग़ज़ल गाते रहो
और बेताबी से बस मुझे मनाते रहो .
शाश्वत प्रेम....बधाई
ReplyDeleteक्या कहूँ मैं...
ReplyDeleteकुछ न भी कहूँ तो
ये पलक ही उठकर
तुमसे हजार बातें कह जाती
और जब गिरती है तो
घबराकर क्यूँ साँसे तुम्हारी अटक जाती.... क्या इसे नहीं देखते तुम !
इतनी सुन्दर नज़्म की शब्द ही कम पढ़ गये तारीफ़ को.
ReplyDeleteबधाई .
मेरी नयी कविता पर आपका स्वागत है जी.
तेरी प्रीत है झूठी कहती रहूँगी........
ReplyDeleteताकि तुम यूँ ही
बेहिसाब ग़ाफ़िल ग़ज़ल गाते रहो
और बेताबी से बस मुझे मनाते रहो .
सावनी ...सुहानी ...खूबसूरत गज़ल ...अभी जल्दी मे पढ़ी है ...फिर कई बार पढ़नी होगी ....
बहुत ही सुंदर अमृता जी ...
वाह अमृता जी....
ReplyDeleteआनंद आ गया...
अनु
बहुत सुंदर रचना
ReplyDeleteकुछ न भी कहूँ तो
ये पलक ही उठकर
तुमसे हजार बातें कह जाती
और जब गिरती है तो
घबराकर क्यूँ साँसे तुम्हारी अटक जाती....
बढिया
ताकि तुम यूँ ही
ReplyDeleteबेहिसाब ग़ाफ़िल ग़ज़ल गाते रहो
और बेताबी से बस मुझे मनाते रहो .
वाह ... वाह बहुत खूब लिखा है आपने ... लाजवाब करती अभिव्यक्ति ।
मुझे तो बरबस बिहारी याद आये और उनकी ये पंक्तियाँ . "कहत नटत रीझत खीझत . मीलत खिलत लजियात ". सजनी का रूठना और साजन का मनुहार , स्मित मुस्कान ले आयी होठो पर. अति सुँदर .
ReplyDeleteवाह कितना खूबसूरत है यह माने हुए रूठना, जिस रूठने पर बेहिसाब ग़ज़ल बन जायें... बहुत खूबसूरत...
ReplyDeleteबड़ी ही प्यारी रचना है बिलकुल प्यार में सराबोर
ReplyDeleteबहुत अनोखे प्रेम की दास्तां सुना रही है आपकी यह प्यारी सी कविता...
ReplyDeleteऔर तुम खामख़ाह फुरकते ग़म देते हो
ReplyDeleteव मुद्दत बाद बेहाली से मिलते हो...
मैं रूठूँ तो यूँ न रूठो कहते हो
तिस पर खिलखिलाती रहूँ ख्वाहिश भी करते हो..
क्या कहूँ मैं...
...........
एक अजनबी सा गम...
गम की भटकती गंगा...
मुद्दतों की बेहाली...तो
लम्हा बस लम्हा...
रूठने... मनाने की
ख्वाहिशों का क्या...
लम्हा... बस लम्हा
बहुत बढ़िया ।
ReplyDeleteसादर अभिनन्दन ।।
बहुत बढ़िया प्रस्तुति!
ReplyDeleteआपकी प्रविष्टी की चर्चा कल शनिवार (14-07-2012) के चर्चा मंच पर लगाई गई है!
चर्चा मंच सजा दिया, देख लीजिए आप।
टिप्पणियों से किसी को, देना मत सन्ताप।।
मित्रभाव से सभी को, देना सही सुझाव।
शिष्ट आचरण से सदा, अंकित करना भाव।।
मैं तो मानी हुई ही रूठी रहूँगी
ReplyDeleteकितने पिंगल पिरो-पिरोकर
तेरी प्रीत है झूठी कहती रहूँगी........
ताकि तुम यूँ ही
बेहिसाब ग़ाफ़िल ग़ज़ल गाते रहो
और बेताबी से बस मुझे मनाते रहो .................
प्यार का यह अंदाज़ भी निराला है .....लेकिन बहुत प्यारा है
क्या नज़्म है...!!! वाह! वाह!
ReplyDeleteसादर बधाई।
तबतक क़समें दे-देकर
ReplyDeleteवक़्त को तो रोक ही देते
छुनन-मुनन कर छेड़ती हवा को भी
झींख भरी झिड़क से टोक ही देते...
जैसे कि
मेरी मुस्कराहट की मुहताजी हों सब.....amritaa jee aaj samajh me nahi aa raha kya likhoon...bas eun samajh leejiye kee aapkee behtareen rachnaaon kee shandaar shrankhla kee ek aur jaandaar kadi..bahut bahut badhayee
आपके रूठने मनाने ,मनाने रूठने का अंदाज़ भा गया ....गज़ब
ReplyDeleteमैं तो मानी हुई ही रूठी रहूँगी
ReplyDeleteकितने पिंगल पिरो-पिरोकर
तेरी प्रीत है झूठी कहती रहूँगी........
ताकि तुम यूँ ही
बेहिसाब ग़ाफ़िल ग़ज़ल गाते रहो
और बेताबी से बस मुझे मनाते रहो
रूठने मनाने का अपना ही मजा है :)
रुठती मनाती हुई सुंदर सी कविता ....!!
इस सुन्दर प्रस्तुति,,के लिए मेरे पास शब्द नही,,,,,,अमृता जी बधाई
ReplyDeleteRECENT POST...: राजनीति,तेरे रूप अनेक,...
बहुत उम्दा.... मन की गहरी बात लिए पंक्तियाँ
ReplyDeleteदो बार पढ़ा ..... एक और बार पढने को जी करता है....!!
ReplyDeleteवाह अद्भुत...
ReplyDeleteआह ....
ReplyDeleteआज तो ग़ालिब की बस यही ग़ज़ल शिद्दत से याद हो आयी है
आह को चाहिए एक उम्र असर होने तक
कौन जीता है तेरी जुल्फ के सर होने तक
आशिकी सब्र तलब और तमन्ना बेताब
दिल का क्या रंग करूं खूने जिगर होने तक
हमने माना तगाफुल न करोगे लेकिन
ख़ाक हो जायेगें हम तुमको खबर होने तक :-(
अमृता जी ,
ReplyDeleteआज तो आपकी नज़्म ने
नया रंग गढ़ा है
ये प्रेम का नशा है या
नशे का सरूर चढ़ा है ?
बहुत खूबसूरत नज़्म ....
वाह अमृता बड़ी सिद्दत से पेश की है आपने. शुक्रिया
ReplyDeleteरूठने-मनाने की सतत प्रक्रिया के विविध रंगों में भीगी कविता बहुत सुंदर बन पड़ी है. ख़ूब.
ReplyDeleteसुन्दर कविता
ReplyDeleteवाह: अमृता जी रूठने और मनाने का एक प्यारा सा अहसास..बहुत सुन्दर..
ReplyDeleteAmrita,
ReplyDeletePREMIKAA KAA APNE PREMI KO SADAA PREM PAANE KE LIYE PRYATANSHEEL RAHNE KAA SANDESH ACHCHHA BATAYAA HAI.
Take care
काश, ये आलम बना रहे..
ReplyDeleteअभिव्यक्ति को लग गए हैं पंख .एक शब्द चित्र एक भाव चित्र गढ़ गए हैं शब्द, रूठी प्रेयसी को मनाने का, और उसके बार बार रूठ जाने का .
ReplyDeleteRomantic Line......
ReplyDeletevah vah
Amrita Ji Anand Aaa gaya ..
Dhanyabad..
http://yayavar420.blogspot.in/
जीवन के हर रंगों को अपनी संपूर्णता में रूपायित करती आपकी यह प्रस्तुति अच्छी लगी । मेरे नए पोस्ट पर आपका इंतजार रहेगा। धन्यवाद।
ReplyDeletebeautifull :)
ReplyDeletebahut sundar
ReplyDeleteबहुत सुन्दर एक एक पंक्तियाँ दिल में उतरती जा रही है...
ReplyDeleteअनुपम ,कोमल भाव लिए बेहतरीन रचना...
बेहिसाब ग़ाफ़िल ग़ज़ल गाते रहो
ReplyDeleteऔर बेताबी से बस मुझे मनाते रहो .
बहुत ही गज़ब की प्रस्तुति.
बहुत ही सुंदर
ReplyDeleteरूठें मनाने का सिलसिला काश ऐसे में खत्म ही न हो ... बहुत खूबसूरत अंदाज़ के लिखी रचना ..
ReplyDeleteगाफ़िल प्रेम की अनकही चाहतें
ReplyDeleteमेरी मुस्कराहट की मुहताजी हों सब
ReplyDeleteजिसे देखकर खिल उठेंगे मोगरे के फूल
ठठा ठठाकर ठिठक जायेंगी
खिदमती खुशबू भी राह भूल....
फिर मानो पूरी कायनात ही
तुम्हारी इस ग़ाफ़िल ग़ज़ल की
गवाही देने को हो जायेगी बेचैन
और ये होंठ हिलते ही
मिल जाएगा सबको आराम-
बहुत खूबसूरत अल्फाजों में पिरोया है आपने.....अमृता जी ये ग़ज़ल नहीं है ये नज़्म है ।
ReplyDeleteक्या कहने ! एक पुराना गीत याद आ गया !
ReplyDelete'तुम रूठी रहो मैं मनाता रहूँ कि
इन अदाओं पे और प्यार आता है'
मान मनौव्वल की यह रचना और उसमें निहित अनछुए प्यार का एक भीगा सा अहसास मन को भिगो गया ! बहुत ही सुन्दर प्रस्तुति ! बहुत-बहुत बधाई आपको !